अध्याय 9: सिकतासेतुः (बालू का पुल)

परिचय

यह पाठ **'कथासरित्सागर'** नामक सुप्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ से लिया गया है। 'कथासरित्सागर' गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' पर आधारित है, जिसे सोमदेव भट्ट ने संस्कृत में लिखा है। यह कथा एक ऐसे व्यक्ति की है, जिसका नाम **तपोदत्त** है, जो बिना परिश्रम के ही विद्या प्राप्त करना चाहता है। उसे लगता है कि केवल तपस्या से ही ज्ञान मिल सकता है, चाहे उसके लिए शास्त्र अध्ययन की आवश्यकता न हो। इस कथा में एक देवता या इंद्र (साधारण व्यक्ति के वेश में) आकर उसे एक **बालू का पुल** बनाते हुए दिखाते हैं, जिससे उसे अपनी गलती का एहसास होता है। यह कहानी हमें संदेश देती है कि विद्या प्राप्त करने के लिए **कठिन परिश्रम और निरंतर अभ्यास** अनिवार्य है; केवल तपस्या या भाग्य से ज्ञान प्राप्त नहीं होता।

कथा (The Story)

ततः प्रविशति तपस्यायां लीनः तपोदत्तः।
**तपोदत्तः** - भोः! मया अहोरात्रं शास्त्रैः अध्ययनं त्यक्तम्। कथम् अधुना विद्या प्राप्स्यामि? न हि केवलं तपसा विद्या प्राप्यते। यत् अलब्धं तत् तपसैव लभ्यते। तथापि, किम् करोमि?

तभी तपस्या में लीन तपोदत्त का प्रवेश होता है।
**तपोदत्त** - अरे! मैंने दिन-रात शास्त्रों का अध्ययन छोड़ दिया है। अब विद्या कैसे प्राप्त करूँगा? निश्चय ही केवल तपस्या से विद्या प्राप्त नहीं होती। जो प्राप्त नहीं हुआ, वह तपस्या से ही प्राप्त होता है। फिर भी, मैं क्या करूँ?

(पृष्ठतः दृष्टिं कृत्वा) अये! कः एषः जलप्रवाहे सिकताभिः सेतुं निर्मातुं प्रयतते? (उपसृत्य) भो महात्मन्! किम् एतत्? अलम् अलम् तव श्रमेण। पश्य:—
**न हि जलाधाराणां सेतुर्बन्धो याति सिकताभिः।**
**कुरुष्वं परिश्रमं व्यर्थम्, पश्य किं त्वया लभ्यते।**

(पीछे मुड़कर देखकर) अरे! यह कौन है जो जल के बहाव में बालू से पुल बनाने का प्रयास कर रहा है? (पास जाकर) अरे महात्मा! यह क्या है? बस करो, बस करो अपना परिश्रम। देखो:—
**निश्चय ही जलधाराओं पर पुल का बंधन बालू से नहीं जाता।**
**तुम व्यर्थ परिश्रम करो, देखो तुम्हें क्या मिलता है।**

**पुरुषः** - (सस्मितम्) भोः तपस्विन्! कथम् एतत् न सम्भवति? दृढतराभिः सिकताभिः सेतुं निर्मातुं शक्यते। यथा रामेण सेतुर्बद्धः, तथा अहमपि बन्धयामि।
**तपोदत्तः** - (हसन्) अहो! रामेण शिलाभिः सेतुर्बद्धः। त्वं तु सिकताभिः। तथापि, एषा न विद्या, न च बुद्धिः।

**पुरुष** - (मुस्कुराकर) अरे तपस्वी! यह कैसे संभव नहीं? अधिक मजबूत बालू से पुल बनाना संभव है। जैसे राम ने पुल बाँधा, वैसे ही मैं भी बाँधता हूँ।
**तपोदत्त** - (हँसते हुए) अरे! राम ने पत्थरों से पुल बाँधा था। तुम तो बालू से! फिर भी, यह न विद्या है, न बुद्धि।

**पुरुषः** - भोः तपस्विन्! यदि बिना अक्षरज्ञानं तपसा एव विद्यां प्राप्स्यामि इति चिन्तयसि, तर्हि कथं मम सिकताभिः सेतुनिर्माणं न भविष्यति? पश्य:—
**गुरुगृहं गत्वा, विद्यां प्राप्यते।**
**नायं मार्गः, येन विना विद्यां प्राप्स्यसि।**

**पुरुष** - अरे तपस्वी! यदि तुम बिना अक्षर ज्ञान (पढ़ाई) के केवल तपस्या से ही विद्या प्राप्त कर लोगे ऐसा सोचते हो, तो कैसे मेरा बालू से पुल निर्माण नहीं होगा? देखो:—
**गुरु के घर जाकर ही विद्या प्राप्त की जाती है।**
**यह वह मार्ग नहीं, जिससे बिना विद्या प्राप्त करोगे।**

**तपोदत्तः** - (स्वगतम्) अहो! इयम् एव अस्य शिक्षा। अक्षरज्ञानं विना विद्यां प्राप्स्यामि इति चिन्तयतः मम अपि सिकताभिः सेतुनिर्माणं समानम्। तद् इदम् उचितम्। धिग् माम्!
इति विचिन्त्य, पुरुषं प्रति गतः।

**तपोदत्त** - (मन ही मन) अरे! यही इसकी शिक्षा है। बिना अक्षर ज्ञान के विद्या प्राप्त करूँगा ऐसा सोचने वाला मेरा भी बालू से पुल निर्माण के समान ही है। तो यह उचित है। मुझे धिक्कार है!
ऐसा सोचकर, पुरुष की ओर गया।

**तपोदत्तः** - भगवन्! क्षमस्व। अहं न जानामि। येन अहं विद्यां प्राप्तुं इच्छामि, तेन मार्गेण विद्या न प्राप्यते। तर्हि कं मार्गं अनुसरामः?
**पुरुषः** - वत्स! गुरुगृहं गत्वा, विद्यां प्राप्यते।
**तपोदत्तः** - (उत्साहेन) भगवन्! त्वाम् एव गुरुं मत्वा, त्वत्तः विद्यां प्राप्तुं इच्छामि।

**तपोदत्त** - भगवन! क्षमा करें। मैं नहीं जानता था। जिससे मैं विद्या प्राप्त करना चाहता हूँ, उस मार्ग से विद्या प्राप्त नहीं होती। तो कौन सा मार्ग अपनाएँ?
**पुरुष** - वत्स! गुरु के घर जाकर ही विद्या प्राप्त की जाती है।
**तपोदत्त** - (उत्साह से) भगवन! आपको ही गुरु मानकर, आपसे विद्या प्राप्त करना चाहता हूँ।

**पुरुषः** - (हसन्) भोः मूर्ख! तस्यै विद्यायै प्रयत्नं कुरु यस्मिन् त्वं सफलः भविष्यसि। विद्या न तपसा प्राप्यते।
**तपोदत्तः** - भगवन्! अहं विद्याध्ययनाय गुरुगृहं गच्छामि।

**पुरुष** - (हँसते हुए) अरे मूर्ख! उस विद्या के लिए प्रयत्न करो जिसमें तुम सफल होगे। विद्या तपस्या से प्राप्त नहीं होती।
**तपोदत्त** - भगवन! मैं विद्याध्ययन के लिए गुरु के घर जाता हूँ।

(इति निष्क्रान्तः पुरुषः, तपोदत्तः च विद्याध्ययनाय प्रस्थितः।)

(ऐसा कहकर पुरुष चला जाता है, और तपोदत्त विद्याध्ययन के लिए निकल पड़ता है।)

शब्दार्थ (Word Meanings)

सारांश (Summary)

यह पाठ **'कथासरित्सागर'** से संकलित है और बिना परिश्रम के विद्या प्राप्त करने की मूर्खता पर प्रकाश डालता है।

एक **तपोदत्त** नाम का व्यक्ति तपस्या में लीन होकर विद्या प्राप्त करना चाहता था। उसने यह मान लिया था कि **केवल तपस्या से ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है**, और इसलिए उसने शास्त्रों का अध्ययन छोड़ दिया था। वह इस बात को लेकर चिंतित था कि बिना पढ़े वह विद्या कैसे प्राप्त करेगा, लेकिन फिर भी अपनी तपस्या पर ही निर्भर था।

एक दिन, जब तपोदत्त नदी के किनारे था, उसने एक **पुरुष (वास्तव में इंद्रदेव)** को देखा जो नदी के तेज बहाव में **बालू से पुल बनाने का प्रयास** कर रहा था। तपोदत्त को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ और वह उस पुरुष के पास गया। उसने पुरुष को समझाया कि यह एक मूर्खतापूर्ण और व्यर्थ का प्रयास है, क्योंकि **बालू से कभी भी जलधारा पर पुल नहीं बन सकता**। उसने एक श्लोक भी बोला कि इस प्रकार व्यर्थ परिश्रम करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होगा।

पुरुष ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि यह क्यों संभव नहीं? यदि मजबूत बालू हो तो पुल बन सकता है, जैसे राम ने पत्थरों से समुद्र पर पुल बनाया था। फिर पुरुष ने तपोदत्त की ओर इशारा करते हुए व्यंग्य किया, "अरे तपस्वी! यदि तुम बिना अक्षर ज्ञान (पढ़ाई) के केवल तपस्या से ही विद्या प्राप्त करने की सोचते हो, तो मेरा बालू से पुल बनाना क्यों संभव नहीं होगा? देखो, **गुरु के घर जाकर ही विद्या प्राप्त होती है**, यह वह मार्ग नहीं है जिससे तुम बिना गुरु के विद्या प्राप्त करोगे।"

पुरुष के इन शब्दों से **तपोदत्त को अपनी गलती का एहसास हुआ**। उसने मन ही मन सोचा कि उसकी स्थिति भी उस पुरुष के समान ही है, जो बालू से पुल बनाने का व्यर्थ प्रयास कर रहा है, क्योंकि वह भी बिना पढ़े विद्या प्राप्त करना चाहता था। उसे अपनी मूर्खता पर धिक्कार महसूस हुआ।

तपोदत्त ने पुरुष से क्षमा मांगी और स्वीकार किया कि वह अज्ञानता में था। उसने पूछा कि विद्या प्राप्त करने का सही मार्ग क्या है। पुरुष ने फिर दोहराया कि **गुरुगृह जाकर ही विद्या प्राप्त होती है**। तपोदत्त उत्साह से भर गया और पुरुष को ही अपना गुरु मानकर विद्या प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। पुरुष ने उसे समझाया कि विद्या तपस्या से नहीं, बल्कि **प्रयत्न और परिश्रम से ही प्राप्त होती है**।

अंत में, वह पुरुष (इंद्रदेव) अदृश्य हो गया और **तपोदत्त विद्याध्ययन के लिए गुरुगृह की ओर निकल पड़ा**। इस प्रकार, यह कहानी हमें सिखाती है कि सफलता केवल कठिन परिश्रम, दृढ़ संकल्प और उचित मार्गदर्शन (गुरु) से ही प्राप्त होती है, न कि केवल तपस्या या भाग्य पर निर्भर रहने से।

अभ्यास-प्रश्नाः (Exercise Questions)

I. एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दें)

  1. तपोदत्तः कः आसीत्?

    तपस्वी (तपस्या करने वाला)

  2. तपोदत्तः कं विना विद्यां प्राप्तुं इच्छति स्म?

    अक्षरज्ञानं (अक्षर ज्ञान को)

  3. पुरुषः केन सेतुं निर्मातुम् प्रयतते स्म?

    सिकताभिः (बालू से)

  4. रामेण कः सेतुर्बद्धः?

    शिलाभिः (पत्थरों से)

  5. विद्या कथं प्राप्यते?

    गुरुगृहं गत्वा (गुरु के घर जाकर)

  6. तपोदत्तः स्वस्य किं मन्यते स्म?

    मूर्खत्वम् (मूर्खता)

II. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूरे वाक्य में उत्तर दें)

  1. तपोदत्तः किमर्थं चिन्तितः आसीत्?

    तपोदत्तः चिन्तितः आसीत् यत् मया अहोरात्रं शास्त्रैः अध्ययनं त्यक्तम्, कथम् अधुना विद्या प्राप्स्यामि इति। (तपोदत्त चिंतित था कि मैंने दिन-रात शास्त्रों का अध्ययन छोड़ दिया है, अब विद्या कैसे प्राप्त करूँगा।)

  2. पुरुषः किं कुर्वन् आसीत्?

    पुरुषः जलप्रवाहे सिकताभिः सेतुं निर्मातुम् प्रयतते स्म। (पुरुष जल के बहाव में बालू से पुल बनाने का प्रयास कर रहा था।)

  3. तपोदत्तः पुरुषं किं कथयति स्म?

    तपोदत्तः पुरुषं कथयति स्म यत् न हि जलाधाराणां सेतुर्बन्धो याति सिकताभिः, कुरुष्वं परिश्रमं व्यर्थम्। (तपोदत्त पुरुष से कहता था कि निश्चय ही जलधाराओं पर पुल का बंधन बालू से नहीं जाता, तुम व्यर्थ परिश्रम करो।)

  4. पुरुषः तपोदत्तं प्रति किं प्रत्यवदत्?

    पुरुषः तपोदत्तं प्रति प्रत्यवदत् यत् यदि बिना अक्षरज्ञानं तपसा एव विद्यां प्राप्स्यामि इति चिन्तयसि, तर्हि कथं मम सिकताभिः सेतुनिर्माणं न भविष्यति? गुरुगृहं गत्वा, विद्यां प्राप्यते। (पुरुष ने तपोदत्त को उत्तर दिया कि यदि तुम बिना अक्षर ज्ञान के तपस्या से ही विद्या प्राप्त करोगे ऐसा सोचते हो, तो कैसे मेरा बालू से पुल निर्माण नहीं होगा? गुरु के घर जाकर ही विद्या प्राप्त की जाती है।)

  5. तपोदत्तः कथं प्रबुद्धः अभवत्?

    तपोदत्तः पुरुषस्य वचनं श्रुत्वा, स्वस्य मूर्खत्वम् ज्ञात्वा प्रबुद्धः अभवत् यत् अक्षरज्ञानं विना विद्यां न प्राप्यते। (तपोदत्त पुरुष के वचन सुनकर, अपनी मूर्खता को जानकर जागृत हुआ कि अक्षर ज्ञान के बिना विद्या प्राप्त नहीं होती।)

III. स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत (मोटे अक्षरों के आधार पर प्रश्न निर्माण करें)

  1. **तपोदत्तः** तपस्यायां लीनः।

    **कः** तपस्यायां लीनः?

  2. पुरुषः **जलप्रवाहे** सेतुं निर्मातुं प्रयतते स्म।

    पुरुषः **कुत्र** सेतुं निर्मातुं प्रयतते स्म?

  3. रामेण **शिलाभिः** सेतुर्बद्धः।

    रामेण **कैः** सेतुर्बद्धः?

  4. **गुरुगृहं गत्वा** विद्या प्राप्यते।

    **कथं** विद्या प्राप्यते?

  5. तपोदत्तः **पुरुषस्य** वचनं श्रुत्वा प्रबुद्धः अभवत्।

    तपोदत्तः **कस्य** वचनं श्रुत्वा प्रबुद्धः अभवत्?

IV. निम्नलिखितानां वाक्यानां निर्देशानुसारं वाच्यपरिवर्तनं कुरुत (निम्नलिखित वाक्यों का निर्देशानुसार वाच्य परिवर्तन करें)

  1. मया शास्त्रैः अध्ययनं त्यक्तम्। (कर्तृवाच्ये)

    अहं शास्त्रैः अध्ययनं त्यक्तवान्।

  2. पुरुषेण सिकताभिः सेतुः निर्मायते। (कर्तृवाच्ये)

    पुरुषः सिकताभिः सेतुं निर्मिन्ते।

  3. त्वं परिश्रमं व्यर्थं कुरुष्व। (कर्मवाच्ये)

    त्वया परिश्रमं व्यर्थं क्रियताम्।

  4. अहं विद्याध्ययनाय गुरुगृहं गच्छामि। (कर्मवाच्ये)

    मया विद्याध्ययनाय गुरुगृहं गम्यते।

  5. तपसा विद्या न प्राप्यते। (कर्तृवाच्ये)

    तपस्वी विद्यां न प्राप्नोति।

(ब्राउज़र के प्रिंट-टू-पीडीएफ़ फ़ंक्शन का उपयोग करता है। दिखावट भिन्न हो सकती है।)