अध्याय 4: कल्पतरुः (कल्पवृक्ष)

परिचय

प्रस्तुत पाठ **वेतालपञ्चविंशतिः** नामक प्रसिद्ध कथासंग्रह से संकलित किया गया है। यहाँ मनोरंजन के लिए और उपदेश के लिए वेताल द्वारा सुनाई गई कथाएँ दी गई हैं। इसमें जिमूतवाहन नामक एक राजा के त्याग और उदारता को दर्शाया गया है। यह कथा बताती है कि भौतिक वस्तुएँ नाशवान होती हैं, जबकि परोपकार ही सर्वोत्तम धन है, जो हमेशा रहता है।

कथा (The Story)

अस्ति हिमवान् नाम सर्वो्यरत्नभूमिर्नगेन्द्रः। तस्य सानोः उपरि विभाति कञ्चनपुरं नाम नगरम्। तत्र हिमवतः पुत्रः श्रीमान् विद्याधरपतिः जीमूतकेतुः इति निवसति स्म। तस्य गृहोद्याने कुलक्रमागतः कल्पतरुः आसीत्। स राजा जीमूतकेतुः तं कल्पतरुं श्रद्धया पूजयति स्म।

हिमालय नामक सभी रत्नों की भूमि पर्वतों का राजा है। उसके शिखर पर कंचनपुर नामक नगर सुशोभित है। वहाँ हिमालय का पुत्र श्रीमान विद्याधरों का स्वामी जीमूतकेतु नाम का राजा रहता था। उसके घर के बगीचे में कुल-परम्परा से प्राप्त कल्पवृक्ष था। वह राजा जीमूतकेतु उस कल्पवृक्ष की श्रद्धा से पूजा करता था।

सः जीमूतकेतुः तम् कल्पतरुम् आराधित्वा तत्प्रसादात् च बोधिसत्त्वांशसम्भूतं जीमूतवाहनं नाम पुत्रम् अलभत। स जीमूतवाहनः महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च आसीत्। तस्य गुणैः प्रसन्नः स्वसचिवैश्च प्रेरितः राजा कालेन संप्राप्तयौवनं तम् यौवराज्ये अभिषिक्तवान्।

उस जीमूतकेतु ने उस कल्पवृक्ष की आराधना करके और उसकी कृपा से बोधिसत्त्व के अंश से उत्पन्न जीमूतवाहन नामक पुत्र को प्राप्त किया। वह जीमूतवाहन महान दानवीर और सभी जीवों पर दया करने वाला था। उसके गुणों से प्रसन्न होकर और अपने मंत्रियों द्वारा प्रेरित होकर राजा ने समय पर युवा हुए उसे युवराज पद पर अभिषिक्त किया।

एकदा हितेषिणः पितृमन्त्रिणः जीमूतवाहनम् ऊचुः – “युवराज! योऽयं सर्वकामदः कल्पतरुः तव उद्याने तिष्ठति, सः तव सदा पूज्यः। अस्मिन् सति अनुकूलिते सति, शक्रोऽपि न अस्मान् बाधितुं शक्नुयात्।”

एक बार हितैषी पिता के मंत्रियों ने जीमूतवाहन से कहा - "युवराज! यह जो सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष तुम्हारे उद्यान में स्थित है, वह तुम्हारे लिए सदा पूजनीय है। इसके अनुकूल होने पर, इंद्र भी हमें बाधित नहीं कर सकता।"

एतत् आकर्ण्य जीमूतवाहनः अचिन्तयत् – “अहो! ईदृशं अमरपादपं प्राप्य अपि पूर्वेः पुरुषैः अस्माकं तादृशं फलम् न प्राप्तम्, केवलं कैश्चिद् एव कल्पतरुतो धनम् याचितम्। तदहं अस्मात् कल्पतरोः इष्टम् साधयामि।”

यह सुनकर जीमूतवाहन ने सोचा - "अहो! ऐसा अमर वृक्ष पाकर भी हमारे पूर्वजों ने वैसा फल प्राप्त नहीं किया, केवल कुछ ने ही कल्पवृक्ष से धन माँगा। तो मैं इस कल्पवृक्ष से अपनी इच्छानुसार कार्य सिद्ध करूँगा।"

स पितुरन्तिकम् आगत्य सुखम् आसीनं पितरम् अवदत् – “तात! त्वं तु जानासि यत् अस्मिन् संसारसागरे शरीरम् इदम् सर्वं धनं च वीचिवत् चञ्चलम्। एकः परोपकार एव अस्मिन् संसारे अनश्वरः, यो युगांतपर्यन्तं यशः प्रसूते। तदस्माभिः ईदृशः कल्पतरुः किमर्थं न रक्ष्यते? येन पूर्वैः पुरुषैः अर्थाः रक्षिताः।

वह पिता के पास आकर सुखपूर्वक बैठे पिता से बोला - "पिताजी! आप तो जानते हैं कि इस संसार सागर में यह शरीर और सारा धन लहरों के समान चंचल है। एकमात्र परोपकार ही इस संसार में अविनाशी है, जो युगों तक यश उत्पन्न करता है। तो हम ऐसे कल्पवृक्ष की रक्षा क्यों नहीं करते? जिससे पूर्वजों ने धन की रक्षा की।"

तदहं एतम् कल्पतरुं परोपकारार्थम् इच्छामि। त्वम् अमुम् आज्ञायाम् अनुज्ञापय।”

तो मैं इस कल्पवृक्ष को परोपकार के लिए चाहता हूँ। आप मुझे इसकी अनुमति दें।"

अथ पित्रा 'तथा' इति अनुज्ञातः सः जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य उवाच – “देव! त्वया अस्माकं पूर्वेषाम् अभीष्टाः कामाः पूरिताः। तन्मम एकं कामं पूरय – यथा पृथ्वीम् अदरिद्राम् पश्यामि तथा कुरु देव!”

तब पिता द्वारा 'हाँ' कहकर अनुमति दिए जाने पर वह जीमूतवाहन कल्पवृक्ष के पास जाकर बोला - "देव! आपने हमारे पूर्वजों की इच्छाएँ पूरी की हैं। तो मेरी एक इच्छा पूरी करो - जिससे मैं पृथ्वी को निर्धनता रहित देखूँ, वैसा करो देव!"

'एवम्' वादिनी जीमूतवाहने त्यक्तेन कल्पतरुणा 'तव मया यशो दत्तो' इति वाक्यं जल्पता सः कल्पतरुः दिव्यां दिशं समुत्पत्य भूमिम् अवर्षत्। तथैव सकलैः जीवैः तस्मिन् कल्पवृक्षे फलानि दत्त्वा जीमूतवाहनस्य यशो व्यापितम्।

'ऐसा हो' यह बोलने पर जीमूतवाहन द्वारा त्यागे गए कल्पवृक्ष ने 'तुम्हें मैंने यश दिया' यह वाक्य कहते हुए वह कल्पवृक्ष स्वर्ग की दिशा में उड़कर भूमि पर बरसा। वैसे ही सभी जीवों द्वारा उस कल्पवृक्ष में फल देकर जीमूतवाहन का यश फैल गया।

ततो जीमूतवाहनस्य सर्वजीवानुकम्पया सर्वत्र यशः प्रथितम्।

तब जीमूतवाहन की सभी जीवों पर दया के कारण सर्वत्र यश फैल गया।

शब्दार्थ (Word Meanings)

सारांश (Summary)

यह कहानी हमें **परोपकार की श्रेष्ठता** और **भौतिक सुखों की नश्वरता** का संदेश देती है। हिमालय पर्वत पर कंचनपुर नामक एक सुंदर नगर था, जहाँ विद्याधरों का स्वामी **जीमूतकेतु** रहता था। उसके घर के बगीचे में एक **कल्पवृक्ष** था, जो उसकी कुल परंपरा से प्राप्त हुआ था।

जीमूतकेतु ने उस कल्पवृक्ष की आराधना करके एक पुत्र **जीमूतवाहन** को प्राप्त किया। जीमूतवाहन अत्यंत दानवीर और सभी प्राणियों पर दया करने वाला था। उसके गुणों से प्रसन्न होकर और मंत्रियों की सलाह पर पिता ने उसे युवराज बना दिया।

एक दिन हितैषी मंत्रियों ने जीमूतवाहन से कहा कि उसके उद्यान में स्थित कल्पवृक्ष सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाला है और उसकी रक्षा करनी चाहिए। यह सुनकर जीमूतवाहन ने सोचा कि उसके पूर्वजों ने इस अमर वृक्ष से केवल धन जैसी तुच्छ वस्तुएँ ही मांगीं, जबकि यह परोपकार के लिए उपयोग किया जा सकता है।

उसने अपने पिता से कहा कि यह शरीर और धन सब कुछ लहरों की तरह नश्वर हैं, केवल **परोपकार ही अविनाशी धन है** जो युगों तक यश देता है। इसलिए वह इस कल्पवृक्ष को परोपकार के लिए उपयोग करना चाहता है ताकि कोई भी पृथ्वी पर गरीब न रहे। पिता ने उसकी बात मान ली।

जीमूतवाहन ने कल्पवृक्ष के पास जाकर कहा कि उसने पूर्वजों की इच्छाएँ पूरी की हैं, तो अब वह पृथ्वी को निर्धनता रहित देखना चाहता है। उसकी बात सुनकर कल्पवृक्ष ने 'ऐसा ही हो' कहा और स्वर्ग की ओर उड़कर पृथ्वी पर धन की वर्षा की, जिससे सभी प्राणी सुखी हो गए। इस प्रकार जीमूतवाहन का **परोपकार और दयालुता** का यश चारों ओर फैल गया। यह कहानी हमें सिखाती है कि **दूसरों की भलाई करना ही सबसे बड़ा पुण्य और सच्चा धन है।**

अभ्यास-प्रश्नाः (Exercise Questions)

I. एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दें)

  1. हिमवान् नाम कः अस्ति?

    नगेन्द्रः (पर्वतों का राजा)

  2. जीमूतकेतुः कस्य पुत्रः आसीत्?

    हिमवतः (हिमालय का)

  3. जीमूतवाहनः कीदृशः आसीत्?

    महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च (महान दानवीर और सभी जीवों पर दया करने वाला)

  4. संसारे अनश्वरः कः अस्ति?

    परोपकारः (परोपकार)

  5. कः परोपकारार्थम् कल्पतरुम् इच्छति?

    जीमूतवाहनः (जीमूतवाहन)

II. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूरे वाक्य में उत्तर दें)

  1. कञ्चनपुरं नाम नगरं कुत्र विभाति?

    कञ्चनपुरं नाम नगरं हिमवतः सानोः उपरि विभाति। (कंचनपुर नामक नगर हिमालय के शिखर पर सुशोभित है।)

  2. जीमूतवाहनः केन गुणैः प्रसन्नः सञ्जातः?

    जीमूतवाहनः महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च गुणैः प्रसन्नः सञ्जातः। (जीमूतवाहन महान दानवीर और सभी जीवों पर दया करने वाले गुणों से प्रसन्न हुआ।)

  3. हितैषिणः मन्त्रिणः जीमूतवाहनं किम् ऊचुः?

    हितैषिणः मन्त्रिणः जीमूतवाहनम् ऊचुः यत् 'युवराज! योऽयं सर्वकामदः कल्पतरुः तव उद्याने तिष्ठति, सः तव सदा पूज्यः। अस्मिन् सति अनुकूलिते सति, शक्रोऽपि न अस्मान् बाधितुं शक्नुयात्।' (हितैषी मंत्रियों ने जीमूतवाहन से कहा कि 'युवराज! यह जो सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष तुम्हारे उद्यान में स्थित है, वह तुम्हारे लिए सदा पूजनीय है। इसके अनुकूल होने पर, इंद्र भी हमें बाधित नहीं कर सकता।')

  4. जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य किम् अवदत्?

    जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य अवदत् – “देव! त्वया अस्माकं पूर्वेषाम् अभीष्टाः कामाः पूरिताः। तन्मम एकं कामं पूरय – यथा पृथ्वीम् अदरिद्राम् पश्यामि तथा कुरु देव!” (जीमूतवाहन कल्पवृक्ष के पास जाकर बोला - "देव! आपने हमारे पूर्वजों की इच्छाएँ पूरी की हैं। तो मेरी एक इच्छा पूरी करो - जिससे मैं पृथ्वी को निर्धनता रहित देखूँ, वैसा करो देव!")

  5. पृथ्वी पर धन की वर्षा से क्या हुआ?

    पृथ्वी पर धन की वर्षा से सर्वेषां जीवानां दारिद्र्यं समाप्तं अभवत्, जीमूतवाहनस्य च सर्वत्र यशः प्रथितम्। (पृथ्वी पर धन की वर्षा से सभी जीवों की दरिद्रता समाप्त हो गई और जीमूतवाहन का यश सर्वत्र फैल गया।)

III. स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत (मोटे अक्षरों के आधार पर प्रश्न निर्माण करें)

  1. तस्य गृहोद्याने **कल्पतरुः** आसीत्।

    तस्य गृहोद्याने **कः** आसीत्?

  2. सः **जीमूतवाहनः** महान् दानवीरः आसीत्।

    सः **कः** महान् दानवीरः आसीत्?

  3. अस्मिन् सति अनुकूलिते सति, **शक्रोऽपि** न अस्मान् बाधितुं शक्नुयात्।

    अस्मिन् सति अनुकूलिते सति, **कः** न अस्मान् बाधितुं शक्नुयात्?

  4. जीमूतवाहनः **पितुरन्तिकम्** आगत्य अवदत्।

    जीमूतवाहनः **कस्य** अन्तिकम् आगत्य अवदत्?

  5. **परोपकारः** एव अस्मिन् संसारे अनश्वरः अस्ति।

    **कः** एव अस्मिन् संसारे अनश्वरः अस्ति?

IV. प्रकृति-प्रत्यय-विभागं कुरुत (प्रकृति और प्रत्यय का विभाजन करें)

  1. आगत्य = **आ + गम् + ल्यप्**
  2. अभिषिक्तवान् = **अभि + सिच् + क्तवतु**
  3. श्रुत्वा = **श्रु + क्त्वा**
  4. विलोक्य = **वि + लोक् + ल्यप्**
  5. दत्त्वा = **दा + क्त्वा**
  6. उत्पत्य = **उत् + पत् + ल्यप्**
  7. पूज्यः = **पूज् + यत्**
  8. प्राप्य = **प्र + आप् + ल्यप्**

V. समानार्थकपदानि योजयत (समानार्थक पदों को जोड़ें)

पदम् समानार्थकम्
पर्वतःनगेंद्रः, नगः
भूपतिःराजा
इंद्रःशक्रः
धनम्अर्थः, वित्तम्
इच्छितम्अभीष्टम्, कामः
वृक्षःतरुः, पादपः
निकटेसमीपे, अन्तिके
कल्याणेहिताय, शुभम्


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