Chapter 9: साखियाँ एवं सबद

(कबीर)

पाठ का सार

'साखियाँ एवं सबद' संत कबीरदास द्वारा रचित हैं, जो हिंदी साहित्य के निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। यह अध्याय कबीर की शिक्षाओं और दर्शन को प्रस्तुत करता है, जिसमें उन्होंने धार्मिक आडंबरों, जातिगत भेदभाव और बाहरी दिखावों का खंडन किया है, और सच्चे ज्ञान, प्रेम तथा ईश्वर की सर्वव्यापकता पर जोर दिया है।

साखियाँ:

कबीर की साखियाँ (दोहे) गवाहियों के रूप में हैं, जो सत्य की साक्षी देती हैं। इनमें उन्होंने ज्ञान का महत्व, अहंकार का त्याग, ईश्वर की खोज, सांप्रदायिक सद्भाव और संसार की क्षणभंगुरता जैसे विषयों पर अपनी गहरी सोच व्यक्त की है। वे मानते थे कि ईश्वर न तो मंदिर में है, न मस्जिद में, न काबा में, न कैलाश में, बल्कि हर प्राणी की साँसों में है। ज्ञान की प्राप्ति बाहरी कर्मकांडों से नहीं, बल्कि आत्मज्ञान और सद्गुरु के मार्गदर्शन से होती है।

सबद:

कबीर के सबद (पद) आत्मा-परमात्मा के मिलन, योग साधना और ईश्वर के निराकार स्वरूप का वर्णन करते हैं। इनमें वे संसार की मोह-माया को छोड़कर ईश्वर भक्ति में लीन होने का आह्वान करते हैं। वे आत्मा को परमात्मा का ही अंश मानते हैं और मुक्ति के लिए योग, वैराग्य और आंतरिक शुद्धि पर बल देते हैं। सबद में कबीर ने तत्कालीन समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और धार्मिक पाखंडों पर भी तीखा प्रहार किया है। कुल मिलाकर, यह अध्याय कबीर के क्रांतिकारी विचारों, उनकी स्पष्टवादिता और उनके मानवतावादी दृष्टिकोण को दर्शाता है, जो आज भी प्रासंगिक हैं।

संत कबीरदास की एक प्रतीकात्मक तस्वीर, जिसमें वे सादे वस्त्रों में बैठे हैं और उनके पीछे एक आध्यात्मिक प्रकाश है।

कबीर की साखियाँ

1. मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहीं।

मुक्ताफल मुक्ता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहीं।।

भावार्थ: कवि कहता है कि मानसरोवर तालाब पूरी तरह पवित्र जल से भरा हुआ है, और उसमें हंस क्रीड़ा कर रहे हैं। वे हंस मोती चुग रहे हैं और अब वे उड़कर कहीं और जाना नहीं चाहते। यहाँ, 'मानसरोवर' मन रूपी सरोवर है जो भक्ति रूपी जल से भरा है, 'हंस' जीवात्मा है, और 'मोती' ईश्वर भक्ति या मुक्ति का आनंद है। जीवात्मा मन में राम नाम का ध्यान करके आनंदित है और इसे छोड़कर कहीं और जाना नहीं चाहती।

2. प्रेमी हूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिले न कोइ।

प्रेमी को प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि मैं सच्चे ईश्वर-प्रेमी को ढूंढता फिर रहा हूँ, लेकिन कोई ऐसा सच्चा प्रेमी मिल नहीं रहा है। जब एक सच्चा प्रेमी दूसरे सच्चे प्रेमी से मिलता है, तो सभी बुराइयाँ (विष) अच्छाइयों (अमृत) में बदल जाती हैं। यहाँ 'प्रेमी' का अर्थ ईश्वर-भक्त या सच्चा साधक है।

3. हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि।

स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि।।

भावार्थ: कवि कहते हैं कि ज्ञान रूपी हाथी पर सहज भाव रूपी कालीन बिछाकर चढ़ो। यह संसार कुत्ते के समान है, जो बिना बात के भौंकता रहता है, उसे भौंकने दो, उसकी परवाह मत करो। कबीर यहाँ ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं और आलोचनाओं को अनदेखा करने की सलाह देते हैं।

4. पाखा पखी के कारनैं, सब जग रहा भुलान।

निरपख होई कै हरि भजै, सोई संत सुजान।।

भावार्थ: लोग पक्ष-विपक्ष (अपने-पराए, धर्म-जाति के भेद) के चक्कर में पड़कर पूरा संसार ईश्वर को भूल गया है। जो व्यक्ति निष्पक्ष होकर ईश्वर का भजन करता है, वही सच्चा ज्ञानी और संत है। कबीर सांप्रदायिक भेदभाव का विरोध करते हैं और निष्पक्ष भक्ति पर जोर देते हैं।

5. हिंदू मूआ राम कहि, मुसलमान खुदाई।

कहै कबीर सो जीवता, जे दुहुँ के निकटि न जाई।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि हिंदू 'राम-राम' कहते हुए मर गया और मुसलमान 'खुदा-खुदा' कहते हुए। लेकिन कबीर कहते हैं कि वास्तव में वही व्यक्ति जीवित रहता है जो इन दोनों (राम और खुदा के भेद) के निकट नहीं जाता, अर्थात जो सांप्रदायिक भेदों से ऊपर उठकर ईश्वर को देखता है।

6. काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम।

मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि जब व्यक्ति सांप्रदायिक भेदों से ऊपर उठ जाता है, तो उसके लिए काबा (मुसलमानों का पवित्र स्थान) ही काशी (हिंदुओं का पवित्र स्थान) बन जाता है और राम ही रहीम हो जाता है। जिस प्रकार मोटा आटा पीसकर मैदा बन जाता है और उसे खाया जा सकता है, उसी प्रकार भेद मिटने पर कबीर शांति से भोजन (आनंद) करते हैं। यह दोहा सांप्रदायिक एकता का प्रतीक है।

7. ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होइ।

सुबरन कलस सुरा भरा, साधु निंद्या सोइ।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म लेने से कोई व्यक्ति ऊँचा नहीं हो जाता, यदि उसके कर्म (करनी) ऊँचे न हों। जिस प्रकार सोने के कलश में शराब भरी हो, तो भी साधु उसकी निंदा ही करते हैं। यानी व्यक्ति की पहचान उसके कर्मों से होती है, न कि उसके जन्म या कुल से।

कबीर के सबद

मोको कहाँ ढूँढ़ै बंदे, मैं तो तेरे पास में।

ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।।

ना मैं कोने क्रिया-करम में, नाहीं जोग बैराग में।

खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।।

कहै कबीर सुनौ भई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में।।

भावार्थ: इन पंक्तियों में ईश्वर स्वयं मनुष्य को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे मनुष्य! तुम मुझे कहाँ ढूँढ़ते हो? मैं तो तुम्हारे पास ही हूँ। मैं न तो किसी मंदिर में हूँ, न मस्जिद में, न काबा में और न कैलाश में। मैं न किसी विशेष क्रिया-कर्म में हूँ, न योग साधना में और न वैराग्य में। यदि कोई सच्चा खोजने वाला हो, तो मैं उसे पल भर की तलाश में ही मिल जाऊँगा। कबीर कहते हैं, हे साधुजन! सुनो, ईश्वर तो सभी प्राणियों की साँसों की साँस में, यानी हर जगह और हर जीव के भीतर विद्यमान है। यह पद ईश्वर की सर्वव्यापकता और आंतरिक खोज पर जोर देता है।

प्रश्न-अभ्यास

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए:

  1. 'मानसरोवर सुभर जल...' साखी में कबीर ने किस प्रकार के भक्ति मार्ग का संकेत दिया है?

    'मानसरोवर सुभर जल...' साखी में कबीर ने आंतरिक भक्ति मार्ग का संकेत दिया है। यहाँ मानसरोवर मन रूपी पवित्र तालाब है जो ईश्वर भक्ति रूपी जल से भरा है। हंस जीवात्मा है जो भक्ति के आनंद में लीन है और उसे छोड़कर कहीं और जाना नहीं चाहती। यह दर्शाता है कि सच्चा आनंद और मोक्ष बाहरी तीर्थयात्राओं या कर्मकांडों में नहीं, बल्कि मन की पवित्रता और एकाग्र भक्ति में है।

  2. कबीर ने 'प्रेमी' किसे कहा है और उसकी क्या विशेषता बताई है?

    कबीर ने 'प्रेमी' सच्चे ईश्वर-भक्त को कहा है। उनकी विशेषता यह है कि जब दो सच्चे ईश्वर-प्रेमी एक-दूसरे से मिलते हैं, तो उनके मन की सारी बुराइयाँ (विष) समाप्त हो जाती हैं और उनके स्थान पर अच्छाइयाँ (अमृत) भर जाती हैं। यह दर्शाता है कि सच्ची भक्ति मन को शुद्ध करती है और प्रेम तथा सद्भाव को बढ़ावा देती है।

  3. 'हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ...' दोहे में कबीर ने संसार को 'स्वान रूप' क्यों कहा है?

    कबीर ने 'हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ...' दोहे में संसार को 'स्वान रूप' (कुत्ते के समान) इसलिए कहा है क्योंकि जिस प्रकार कुत्ता बिना कारण भौंकता रहता है, उसी प्रकार संसार के लोग भी ज्ञान मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति की अज्ञानतावश या ईर्ष्यावश आलोचना करते रहते हैं। कबीर कहते हैं कि ऐसे लोगों की परवाह किए बिना अपने ज्ञान मार्ग पर आगे बढ़ते रहना चाहिए, क्योंकि उनकी बातें निरर्थक होती हैं।

  4. कबीर के अनुसार सच्चा संत और ज्ञानी कौन है?

    कबीर के अनुसार सच्चा संत और ज्ञानी वही है जो 'निरपख' होकर हरि का भजन करता है, अर्थात् जो पक्ष-विपक्ष, धर्म, जाति या संप्रदाय के भेदों से ऊपर उठकर निष्पक्ष भाव से ईश्वर का भजन करता है। वह बाहरी आडंबरों और दिखावों में विश्वास नहीं रखता, बल्कि आंतरिक शुद्धता और समानता के भाव से ईश्वर को पूजता है।

  5. कबीर ने 'राम' और 'रहीम' को एक ही क्यों बताया है?

    कबीर ने 'राम' और 'रहीम' को एक ही बताया है क्योंकि वे धार्मिक संकीर्णता और सांप्रदायिक भेदभाव के घोर विरोधी थे। वे मानते थे कि ईश्वर एक है और उसे किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है, चाहे वह राम हो या रहीम। ये नाम तो मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए दिए हैं, जबकि ईश्वर का मूल स्वरूप निराकार और अविभाज्य है। जब व्यक्ति संप्रदायों के भेदों से ऊपर उठ जाता है, तो उसे काबा ही काशी और राम ही रहीम प्रतीत होता है।

  6. अंतिम साखी 'ऊँचे कुल का जनमिया...' का क्या संदेश है?

    अंतिम साखी 'ऊँचे कुल का जनमिया...' का संदेश यह है कि मनुष्य की पहचान उसके जन्म या कुल से नहीं, बल्कि उसके कर्मों से होती है। यदि कोई व्यक्ति ऊँचे कुल में जन्म लेकर भी निम्न या बुरे कर्म करता है, तो वह निंदनीय है। इसे समझाने के लिए कबीर ने सोने के कलश में शराब भरे होने का उदाहरण दिया है - सोना भले ही मूल्यवान हो, लेकिन उसमें शराब जैसी निंदनीय वस्तु भरी होने के कारण साधु उसकी भी निंदा ही करते हैं। अतः, व्यक्ति की श्रेष्ठता उसके आचरण और नैतिक मूल्यों में निहित है।

  7. 'मोको कहाँ ढूँढ़ै बंदे...' पद में ईश्वर कहाँ निवास करने की बात कहते हैं?

    'मोको कहाँ ढूँढ़ै बंदे...' पद में ईश्वर स्वयं कहते हैं कि वे किसी मंदिर, मस्जिद, काबा, कैलाश, क्रिया-कर्म, योग या वैराग्य में नहीं हैं, बल्कि वे हर प्राणी की 'स्वाँसों की स्वाँस में' यानी हर जीव के भीतर ही निवास करते हैं। वे कहते हैं कि यदि कोई सच्चा खोजने वाला हो तो वे उसे पल भर की तलाश में ही मिल जाएँगे। यह पद ईश्वर की सर्वव्यापकता और आंतरिक उपस्थिति पर बल देता है।

II. आशय स्पष्ट कीजिए:

  1. "खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।।"

    इस पंक्ति का आशय यह है कि ईश्वर को ढूंढने के लिए बाहरी आडंबरों या लंबी तीर्थयात्राओं की आवश्यकता नहीं है। यदि मनुष्य के मन में ईश्वर को पाने की सच्ची लगन और निष्ठा हो, और वह उसे अपने भीतर खोजना शुरू कर दे, तो ईश्वर उसे तुरंत, पल भर की तलाश में ही मिल जाएँगे। यह पंक्ति ईश्वर की सुलभता और आंतरिक खोज के महत्व पर जोर देती है।

(यह आपके ब्राउज़र के प्रिंट-टू-PDF फ़ंक्शन का उपयोग करता है। दिखावट भिन्न हो सकती है।)