Chapter 3: उपभोक्तावाद की संस्कृति
(श्यामाचरण दुबे)
पाठ का सार
'उपभोक्तावाद की संस्कृति' निबंध प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे द्वारा लिखा गया है। इस पाठ में लेखक ने भारत में बढ़ती हुई उपभोक्तावादी प्रवृत्ति और उसके समाज पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों का विश्लेषण किया है। लेखक बताते हैं कि कैसे आज का समाज उपभोग को ही सुख मान बैठा है और चारों ओर एक ऐसी जीवन-शैली का विकास हो रहा है, जो अधिकाधिक वस्तुओं के उपभोग पर केंद्रित है।
लेखक विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से समझाते हैं कि कैसे विज्ञापन और प्रचार हमें अनावश्यक वस्तुओं को खरीदने के लिए प्रेरित करते हैं। साबुन, टूथपेस्ट, कपड़े, जूते, घड़ियाँ, कारें और यहाँ तक कि मृत्यु उपरांत अंतिम संस्कार और कब्र के लिए भी विज्ञापन दिए जा रहे हैं। यह सब एक ऐसी उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है, जहाँ लोग अपनी बुनियादी जरूरतों से हटकर प्रदर्शन और दिखावे के लिए वस्तुओं का संग्रह कर रहे हैं। इस संस्कृति के कारण सामाजिक रिश्ते कमज़ोर पड़ रहे हैं, असमानता बढ़ रही है, और मानवीय मूल्य घट रहे हैं। लेखक चेतावनी देते हैं कि यह उपभोक्तावाद हमें गुलामी की ओर ले जा रहा है, जहाँ हम अपने ही बनाए जाल में फँसते जा रहे हैं। वे गांधीजी के विचारों का हवाला देते हुए कहते हैं कि हमें अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित करना चाहिए और सादगीपूर्ण जीवन जीना चाहिए, न कि पश्चिमी जीवन-शैली का अंधानुकरण करना चाहिए।
प्रश्न-अभ्यास
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए:
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लेखक के अनुसार उपभोक्तावादी संस्कृति क्या है?
लेखक के अनुसार उपभोक्तावादी संस्कृति वह है जहाँ जीवन का मुख्य उद्देश्य अधिकाधिक वस्तुओं का उपभोग करना और सुख प्राप्त करना हो जाता है। यह संस्कृति दिखावे और प्रदर्शन पर केंद्रित होती है, जहाँ लोग अपनी आवश्यकताओं से अधिक सुविधाओं और विलासिता की वस्तुओं को खरीदने में लगे रहते हैं, जिससे उनकी पहचान और सामाजिक स्थिति तय होती है।
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उपभोक्तावाद की संस्कृति हमारे समाज के लिए किस प्रकार खतरा है?
उपभोक्तावाद की संस्कृति हमारे समाज के लिए कई प्रकार से खतरा है:
- यह सामाजिक असमानता को बढ़ाती है।
- लोगों को अनावश्यक वस्तुओं की ओर धकेलती है, जिससे मानसिक अशांति और तनाव बढ़ता है।
- पारिवारिक और सामाजिक संबंधों को कमज़ोर करती है, क्योंकि लोग भौतिकता में अधिक लिप्त हो जाते हैं।
- नैतिक मूल्यों का पतन होता है और मनुष्य के भीतर स्वार्थ की भावना बढ़ती है।
- यह पर्यावरण पर भी नकारात्मक प्रभाव डालती है, क्योंकि अधिक उत्पादन और उपभोग से संसाधनों का अधिक दोहन होता है।
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लेखक ने गांधीजी के विचारों का उल्लेख क्यों किया है?
लेखक ने गांधीजी के विचारों का उल्लेख इसलिए किया है क्योंकि गांधीजी सादगी, आत्म-निर्भरता और कम उपभोग के समर्थक थे। वे मानते थे कि हमें अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखना चाहिए और भारतीय संस्कृति के मूल मूल्यों का पालन करना चाहिए। लेखक गांधीजी के माध्यम से उपभोक्तावादी संस्कृति के खतरे को और मजबूती से समझाना चाहते हैं और इसके विपरीत एक स्वस्थ व टिकाऊ जीवन-शैली की ओर इशारा करना चाहते हैं।
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लेखक ने भारतीय समाज पर उपभोक्तावादी संस्कृति के कौन-कौन से प्रभाव बताए हैं?
लेखक ने भारतीय समाज पर उपभोक्तावादी संस्कृति के निम्नलिखित प्रभाव बताए हैं:
- प्रदर्शन की प्रवृत्ति बढ़ी है, लोग अपनी पहचान वस्तुओं से बनाने लगे हैं।
- सामंती संस्कृति के तत्व उभर कर आए हैं, जहाँ धनवानों का दबदबा बढ़ा है।
- सामाजिक दूरियाँ बढ़ी हैं और रिश्तों में गर्माहट कम हुई है।
- शांति और संतोष की भावना कम हुई है, क्योंकि लोग हमेशा और अधिक पाने की दौड़ में लगे रहते हैं।
- मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है।
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आज उपभोक्ता संस्कृति के कारण जीवन शैली में क्या बदलाव आए हैं?
आज उपभोक्ता संस्कृति के कारण जीवन शैली में बहुत बदलाव आए हैं:
- लोगों का ध्यान अब उत्पादन से अधिक उपभोग पर केंद्रित हो गया है।
- विज्ञापन और प्रचार जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं।
- लोगों की आवश्यकताएँ असीमित हो गई हैं और वे विलासिता को सुख मान रहे हैं।
- व्यक्तिवादी सोच बढ़ी है, और सामाजिक सरोकार कम हुए हैं।
- भौतिक सुख-सुविधाओं को ही सफलता का मापदंड माना जाने लगा है।
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