Chapter 12: कैदी और कोकिला
(माखनलाल चतुर्वेदी)
पाठ का सार
'कैदी और कोकिला' माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित एक देशभक्तिपूर्ण कविता है। यह कविता उस समय की है जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था और कवि स्वयं भी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण कारागार में बंद थे। कविता में एक कैदी (स्वयं कवि) और एक कोयल के बीच संवाद है। कवि जेल के अंदर होने वाले अत्याचारों, अपनी पीड़ा और स्वतंत्रता सेनानियों की दयनीय दशा का मार्मिक वर्णन करते हैं, जबकि कोयल बाहर स्वतंत्र रूप से गा रही है।
कवि कोयल से पूछता है कि वह आधी रात में क्यों चीख रही है। क्या उसने कोई दुख देखा है? कवि जेल में मिली कठोर यातनाओं - जैसे अंधेरे कोठरी में बंद रहना, भरपेट भोजन न मिलना, चोरों और डाकुओं के साथ रहना, और कोल्हू के बैल की तरह काम करना - का जिक्र करता है। वह अपनी तुलना कोयल से करता है, जहाँ कोयल स्वतंत्र है और हर जगह उसका गीत गूँजता है, वहीं कवि की दुनिया दस फुट की कोठरी तक सीमित है और उसे रोने की भी अनुमति नहीं है। कवि कोयल के दुःख भरे स्वर में स्वतंत्रता की पुकार और क्रांति की चिंगारी महसूस करता है। वह कोयल से पूछता है कि क्या वह भी अंग्रेजों के अत्याचार से इतनी दुखी है कि वह अपना मधुर स्वर छोड़कर चीख रही है। अंत में, कवि कोयल से प्रेरणा लेता है और अपनी कलम को क्रांति का हथियार बनाने का संकल्प लेता है, ताकि वह अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष को जारी रख सके। यह कविता स्वतंत्रता की ललक, देशभक्ति और ब्रिटिश शासन के क्रूरतम रूप को अभिव्यक्त करती है।
कविता: कैदी और कोकिला
क्या गाती हो? क्यों रह-रह जाती हो?
कोकिल! बोलो तो!
क्या लाती हो? संदेसा किसका है?
कोकिल! बोलो तो!
भावार्थ: कवि जेल में बंद है और रात के समय एक कोयल के बोलने की आवाज़ सुनता है। वह कोयल से पूछता है कि तुम क्या गा रही हो? और क्यों गाते-गाते रुक जाती हो? हे कोयल! बताओ तो। क्या तुम किसी का संदेश लेकर आई हो? किसका संदेश है? हे कोयल! कुछ बताओ तो। कवि कोयल की आवाज़ में कुछ रहस्य और संदेश महसूस करता है।
ऊँची काली दीवारों के घेरे में,
डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में।
जीने को देते नहीं पेट भर खाना,
मरने भी देते नहीं तड़प रह जाना।
जीवन पर अब दिन-रात कड़ा पहरा है,
शासन है, या तम का प्रभाव गहरा है?
हिमकर निराश कर चला रात भी काली,
इस समय कालिमामयी क्यों आली?
भावार्थ: कवि अपनी जेल की स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे ऊँची काली दीवारों से घिरे हुए हैं, जहाँ डाकू, चोर और राहगीर (बटमारों) का डेरा है। उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता ताकि वे जीवित रह सकें, और मरने भी नहीं दिया जाता, बस तड़पते रहने दिया जाता है। उनके जीवन पर दिन-रात कड़ा पहरा है। कवि पूछता है कि क्या यह ब्रिटिश शासन है, या अंधकार का गहरा प्रभाव है? चाँद (हिमकर) भी निराश होकर चला गया है और यह रात भी काली है। ऐसे में हे सखी कोयल! तुम इतनी काली क्यों हो?
क्यों हूक पड़ी? वेदना बोझ वाली-सी?
कोकिल! बोलो तो!
क्या लुटा? मृदुल वैभव की रखवाली-सी?
कोकिल! बोलो तो!
भावार्थ: कवि फिर कोयल से पूछता है कि तुम्हें क्यों ऐसी गहरी, दर्दभरी चीख निकल रही है? क्या यह किसी भारी वेदना का बोझ है? हे कोयल! बताओ तो। क्या तुम्हारा कुछ लुट गया है? तुम तो मधुरता और वैभव की रखवाली करने वाली जैसी हो (क्योंकि कोयल का स्वर मधुर होता है), क्या तुम्हारा वह मधुर वैभव छिन गया है? हे कोयल! बताओ तो।
क्या हुई बाबली? अर्धरात्रि को चीखी?
कोकिल! बोलो तो!
किस दावानल की ज्वालाएँ हैं दीखीं?
कोकिल! बोलो तो!
भावार्थ: कवि पूछता है कि क्या तुम पागल हो गई हो (बाबली)? जो आधी रात को चीख रही हो? हे कोयल! बताओ तो। क्या तुम्हें जंगल की आग (दावानल) की कोई लपटें दिखाई दी हैं? हे कोयल! बताओ तो। कवि कोयल की आधी रात की चीख में किसी गंभीर संकट का संकेत मिलता है।
क्या देख न सकती जंजीरों का गहना?
हथकड़ियाँ क्यों? यह ब्रिटिश राज का गहना!
कोल्हू का चर्रक चूँ? जीवन की तान!
गिट्टी पर अंगुलियों ने लिखे गान!
हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ,
खाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कुँआ।
दिन में करुणा क्यों जगे रुलानेवाली,
इसलिए रात में गज़ब ढा रही आली?
भावार्थ: कवि कोयल से पूछता है कि क्या तुम मेरी इन जंजीरों को नहीं देख सकती, जिन्हें मैंने आभूषण मान लिया है? ये हथकड़ियाँ नहीं, बल्कि ब्रिटिश राज द्वारा दिए गए सम्मान के गहने हैं (यहाँ व्यंग्य है)। कोल्हू के बैल की तरह काम करते हुए जो 'चर्रक चूँ' की आवाज़ आती है, वही अब मेरे जीवन का संगीत बन गई है। पत्थरों को तोड़ते हुए मेरी उँगलियों ने देशभक्ति के गीत लिख दिए हैं। मैं अपने पेट पर जूआ लगाकर (यानी कोल्हू खींचकर) ब्रिटिश शासन की अकड़ का कुआँ खाली कर रहा हूँ (यानी उनकी अकड़ को तोड़ रहा हूँ)। दिन में शायद तुम इतनी करुणा (दया) जगाने वाली आवाज़ नहीं निकाल सकती थी, इसीलिए हे सखी! तुम रात में इतना गज़ब ढा रही हो (इतना दर्द भरा गीत गा रही हो)?
इस शांत समय में, अंधकार को बेध रो रही क्यों हो?
कोकिल! बोलो तो!
चुपचाप, मधुर विद्रोह-बीज बो रही क्यों हो?
कोकिल! बोलो तो!
भावार्थ: कवि पूछता है कि इस शांत रात के समय, जब चारों ओर अँधेरा है, तुम इस अंधकार को चीरते हुए क्यों रो रही हो? हे कोयल! बताओ तो। क्या तुम चुपचाप अपने मधुर स्वर से लोगों के मन में विद्रोह के बीज बो रही हो? हे कोयल! बताओ तो। कवि कोयल के स्वर में स्वतंत्रता संग्राम के लिए क्रांति की प्रेरणा महसूस करता है।
काली तू, रजनी भी काली,
शासन की करनी भी काली।
काली लहर कल्पना काली,
मेरी काल-कोठरी काली।
टोपी काली, कमली काली,
मेरी लौह-श्रृंखला काली।
पहरे की हुंकृति की ब्याली,
तिस पर है गाली, ऐ आली!
भावार्थ: कवि कहता है कि तुम (कोयल) भी काली हो, रात भी काली है। ब्रिटिश शासन के कार्य भी काले (अन्यायपूर्ण) हैं। स्वतंत्रता की भावना की लहरें भी काली (भविष्य अनिश्चित) हैं, मेरी काल-कोठरी भी काली है। मेरी टोपी भी काली है, कंबल भी काला है। मेरी लोहे की जंजीरें भी काली हैं। पहरेदार की हुंकार (आवाज़) भी भयानक नागिन के समान काली है। और उस पर भी, हे सखी! मुझे गालियाँ (अपमान) मिलती हैं। कवि चारों ओर फैले निराशा और अन्याय के अंधकार का वर्णन करता है।
इस काले संकट सागर पर, मरने को मदमाती!
कोकिल! बोलो तो!
अपने चमकीले गीतों को क्योंकर हो तैराती?
कोकिल! बोलो तो!
भावार्थ: कवि कोयल से पूछता है कि इस काले संकट के सागर पर, जहाँ केवल मृत्यु का राज है, तुम मरने को क्यों उतावली हो रही हो? हे कोयल! बताओ तो। ऐसे निराशा भरे वातावरण में तुम अपने आशा और स्वतंत्रता के चमकीले गीतों को कैसे तैर रही हो (यानी कैसे गा पा रही हो)? हे कोयल! बताओ तो। कवि कोयल के मधुर गीत में भी संकट की स्थिति में एक अदम्य साहस और आशा की किरण देखता है।
तुझे मिली हरियाली डाली, मुझे नसीब कोठरी काली।
तेरा नभ भर में संचार, मेरा दस फुट का संसार।
तेरे गीत कहावें वाह, रोना भी है मुझे गुनाह।
देख विषमता तेरी-मेरी, बजा रही तिस पर रणभेरी!
भावार्थ: कवि कोयल और अपनी स्थिति की तुलना करते हुए कहता है कि तुम्हें हरे-भरे पेड़ों की डालियाँ मिली हैं (तुम स्वतंत्र हो), और मुझे काली कोठरी नसीब हुई है (मैं कैद हूँ)। तुम पूरे आकाश में स्वतंत्र घूमती हो, और मेरी दुनिया केवल दस फुट की कोठरी तक सीमित है। तुम्हारे गीत सुनकर लोग 'वाह-वाह' करते हैं, जबकि मुझे तो रोने की भी अनुमति नहीं है, रोना भी गुनाह है। हमारी और तुम्हारी स्थिति में यह विषमता (अंतर) देखो, और इस पर भी तुम युद्ध का बिगुल (रणभेरी) बजा रही हो (यानी क्रांति का आह्वान कर रही हो)!
इस हुंकृति पर, अपनी कृति से और कहो क्या कर दूँ?
कोकिल! बोलो तो!
मोहन के व्रत पर, प्राणों का आसव किसमें भर दूँ?
कोकिल! बोलो तो!
भावार्थ: कवि कोयल से कहता है कि तुम्हारी इस हुंकार (आह्वान) पर, मैं अपनी रचनाओं (कविता) से और क्या कर सकता हूँ? हे कोयल! बताओ तो। महात्मा गांधी (मोहन) के स्वतंत्रता प्राप्त करने के संकल्प (व्रत) को पूरा करने के लिए मैं अपने प्राणों का रस (सर्वस्व) किसमें भर दूँ (यानी किस प्रकार अपने जीवन का उत्सर्ग करूँ)? हे कोयल! बताओ तो। कवि कोयल से प्रेरणा लेकर स्वतंत्रता संग्राम में अपना सब कुछ न्योछावर करने का संकल्प लेता है।
प्रश्न-अभ्यास
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए:
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कवि कोयल से आधी रात में बोलने का क्या कारण पूछता है?
कवि कोयल से आधी रात में बोलने का कारण पूछता है कि वह इस असमय में क्यों चीख रही है। वह अनुमान लगाता है कि शायद उसने कोई कष्ट देखा है, या कोई विशेष संदेश लाई है। कवि कोयल की आवाज़ में किसी गहरी पीड़ा या विद्रोह की भावना महसूस करता है और जानना चाहता है कि इस शांत, अँधेरी रात में उसे क्यों इस तरह विलाप करना पड़ रहा है।
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कवि ने अपनी और कोयल की स्थिति में क्या विषमता बताई है?
कवि ने अपनी और कोयल की स्थिति में कई विषमताएँ बताई हैं:
- निवास: कोयल को हरे-भरे पेड़ की डाली मिली है, जबकि कवि दस फुट की काली कोठरी में बंद है।
- संचार: कोयल पूरे आकाश में उड़ सकती है, जबकि कवि का संसार केवल उसकी कोठरी तक सीमित है।
- स्वर: कोयल के गीत सुनकर लोग वाह-वाह करते हैं, जबकि कवि को रोना भी गुनाह है।
- जीवन: कोयल स्वतंत्र है, जबकि कवि पर दिन-रात कड़ा पहरा है और उसे ब्रिटिश शासन की यातनाएँ सहनी पड़ रही हैं।
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कवि ने किन-किन चीजों को 'काला' बताया है और यह क्या दर्शाता है?
कवि ने कई चीजों को 'काला' बताया है: कोयल, रात, ब्रिटिश शासन की करनी, काली लहर (संभावनाएँ), उसकी काल-कोठरी, टोपी, कंबल, लोहे की हथकड़ियाँ/जंजीरें और पहरेदार की हुंकार। यह 'काला' रंग ब्रिटिश शासन के अन्याय, अत्याचार, शोषण, अंधकार, निराशा और कवि की मानसिक तथा शारीरिक पीड़ा को दर्शाता है। यह संपूर्ण वातावरण की निराशाजनक और भयावह स्थिति का प्रतीक है।
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कवि ने अपनी हथकड़ियों को 'गहना' क्यों कहा है?
कवि ने अपनी हथकड़ियों को 'गहना' व्यंग्यपूर्वक कहा है। वे इन हथकड़ियों को अपने स्वतंत्रता संग्राम के लिए मिली सज़ा का प्रतीक मानते हैं, जो उनके लिए अपमान नहीं, बल्कि गौरव का विषय है। वे इन्हें ब्रिटिश राज द्वारा स्वतंत्रता सेनानी होने के नाते दिया गया 'सम्मान' मानते हैं। यह उनकी देशभक्ति और दृढ़ संकल्प को दर्शाता है कि वे इन यातनाओं से भी विचलित नहीं हुए हैं।
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कविता में 'मोहन के व्रत' से क्या आशय है? कवि इस व्रत के लिए क्या करने को तैयार है?
कविता में 'मोहन के व्रत' से आशय महात्मा गांधी के स्वतंत्रता प्राप्त करने के संकल्प या भारत को आज़ाद कराने के अहिंसक आंदोलन से है। कवि कोयल की हुंकार (आह्वान) पर अपनी रचनाओं (कविता) से योगदान देने और मोहनदास करमचंद गांधी के इस महान व्रत को सफल बनाने के लिए अपने प्राणों का आसव (सर्वस्व) न्योछावर करने को तैयार है। वह अपनी कलम को भी क्रांति का माध्यम बनाना चाहता है।
II. आशय स्पष्ट कीजिए:
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"हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ, खाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कुँआ।"
इस पंक्ति का आशय यह है कि कवि जेल में कोल्हू के बैल की तरह पेट पर जूआ लगाकर भारी काम कर रहा है (अर्थात बहुत मेहनत कर रहा है)। इस कठोर परिश्रम के माध्यम से वह ब्रिटिश शासन की अकड़ और अहंकार को चुनौती दे रहा है और उसे खाली कर रहा है (अर्थात् उनके अभिमान को तोड़ रहा है)। कवि शारीरिक कष्ट सहकर भी मानसिक रूप से हार मानने को तैयार नहीं है, बल्कि वह अपनी देशभक्ति और अदम्य साहस से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला रहा है।
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"चुपचाप, मधुर विद्रोह-बीज बो रही क्यों हो?"
इस पंक्ति का आशय यह है कि कवि कोयल के मधुर और शांत स्वर में भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह की भावना और क्रांति की प्रेरणा महसूस करता है। कवि को लगता है कि कोयल आधी रात में गाकर अप्रत्यक्ष रूप से भारतीयों के दिलों में आज़ादी के लिए संघर्ष करने का बीज बो रही है। यह उसकी मधुर आवाज ही है, जो लोगों को गुलामी के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित कर रही है, भले ही वह सीधे तौर पर कोई नारा न लगा रही हो।
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