Chapter 10: वाख
(ललद्यद)
पाठ का सार
'वाख' कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय संत-कवियत्री ललद्यद की काव्य-शैली है, जिसे हिंदी में 'वाणी' या 'वचन' कहा जाता है। यह अध्याय ललद्यद के चार वाखों को प्रस्तुत करता है, जिनमें उन्होंने ईश्वर प्राप्ति के लिए बाहरी आडंबरों का विरोध किया है और सहज भक्ति तथा आत्मज्ञान को महत्व दिया है। ललद्यद ने भक्ति को जीवन के केंद्र में रखते हुए जाति और धर्म के भेदों से ऊपर उठकर समानता और प्रेम का संदेश दिया है।
इन वाखों में ललद्यद ने जीवन की नश्वरता, ईश्वर प्राप्ति के लिए हठयोग के निरर्थक प्रयास, मन की शुद्धि और समभाव की आवश्यकता पर बल दिया है। वे कहती हैं कि मनुष्य को बाहरी भोग-विलास और त्याग दोनों में संतुलन बनाना चाहिए, क्योंकि अति किसी भी चीज की अच्छी नहीं होती। सच्चा ज्ञानी वही है जो आत्मा को पहचानता है, क्योंकि शिव (ईश्वर) तो कण-कण में व्याप्त हैं। इन वाखों के माध्यम से ललद्यद ने सीधे-सादे शब्दों में गहन दार्शनिक और आध्यात्मिक विचारों को व्यक्त किया है, जो आज भी समाज के लिए प्रासंगिक हैं।
ललद्यद के वाख
1. रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह घेरे।।
भावार्थ: कवयित्री कहती हैं कि मैं अपनी जीवन-रूपी नाव को कच्चे धागे (नाज़ुक शरीर/साँसों) रूपी रस्सी से खींच रही हूँ। पता नहीं ईश्वर मेरी पुकार कब सुनेंगे और मुझे इस भवसागर (संसार रूपी सागर) से पार लगाएंगे। जिस प्रकार कच्चे घड़े (सकोरे) से पानी लगातार टपकता रहता है, उसी प्रकार मेरा जीवन भी कम होता जा रहा है और ईश्वर को पाने के मेरे प्रयास व्यर्थ हो रहे हैं। मेरे हृदय में बार-बार एक टीस उठती है कि मैं अपने प्रभु के घर (मोक्ष) को कब प्राप्त करूँगी।
2. खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं, न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी, खुलेगी साँकल बंद द्वार की।।
भावार्थ: कवयित्री कहती हैं कि संसार के भोग-पदार्थों को केवल खाते रहने (अधिक भोग करने) से तुझे कुछ प्राप्त नहीं होगा (अर्थात मोक्ष नहीं मिलेगा)। और यदि तू बिल्कुल भी नहीं खाएगा (हठयोग से शरीर को कष्ट देगा या वैरागी बन जाएगा), तो तेरे मन में अहंकार आ जाएगा। इसलिए, मध्यम मार्ग अपना, इंद्रियों का समन कर (न अधिक भोग और न ही पूर्ण त्याग)। जब तू समभावी (समतावादी) बनेगा, तभी तेरे हृदय के बंद द्वार की साँकल खुलेगी और तुझे ईश्वर का ज्ञान प्राप्त होगा।
3. आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह।
जेब टटोली कौड़ी न पाई। मांझी को दूँ क्या उतराई।।
भावार्थ: कवयित्री कहती हैं कि मैं इस संसार में सीधे मार्ग (जन्म) से आई थी, लेकिन जीवन में सीधे मार्ग (ईश्वर भक्ति या सही मार्ग) पर चल नहीं पाई। मैं सुषुम्ना नाड़ी रूपी पुल पर खड़ी होकर जीवन भर हठयोग करती रही और इसी में मेरा पूरा दिन (जीवन) बीत गया। जब मैंने अपनी जेब टटोली तो मुझे एक कौड़ी भी नहीं मिली (अर्थात मैंने जीवन में कोई पुण्य या सत्कर्म नहीं किया)। अब मैं इस भवसागर को पार कराने वाले माझी (ईश्वर/गुरु) को उतराई (पारिश्रमिक) के रूप में क्या दूँ? यह पद पश्चाताप और आत्म-मूल्यांकन को दर्शाता है।
4. थल-थल में बसता है शिव ही, भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमाँ।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान, वही है साहिब से पहचान।।
भावार्थ: कवयित्री कहती हैं कि ईश्वर (शिव) तो कण-कण में निवास करते हैं, वह हर जगह व्याप्त हैं। इसलिए हे मनुष्य! तुम हिंदू और मुसलमान के बीच कोई भेद मत करो। यदि तुम सच्चे ज्ञानी हो, तो पहले स्वयं को पहचानो (आत्मज्ञान प्राप्त करो)। जिसने स्वयं को पहचान लिया, वही ईश्वर (साहिब) को भी पहचान लेता है। यह वाख सांप्रदायिक सद्भाव, ईश्वर की सर्वव्यापकता और आत्मज्ञान के महत्व पर बल देता है।
प्रश्न-अभ्यास
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए:
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ललद्यद ने 'रस्सी कच्चे धागे की' किसके लिए प्रयोग किया है और क्यों?
ललद्यद ने 'रस्सी कच्चे धागे की' अपने शरीर या साँसों के लिए प्रयोग किया है। उनका मानना है कि यह शरीर नश्वर और क्षणभंगुर है, और साँसें कभी भी टूट सकती हैं। यह रस्सी कमजोर है और कभी भी टूट सकती है, ठीक वैसे ही जैसे एक कमजोर धागा नाव को पार नहीं लगा सकता। इसलिए, इस कमजोर सहारे के बल पर वे भवसागर पार करने की अपनी इच्छा को अधूरा महसूस करती हैं।
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कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए गए प्रयास 'व्यर्थ' क्यों हो रहे हैं?
कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए गए प्रयास 'व्यर्थ' इसलिए हो रहे हैं क्योंकि उन्होंने ईश्वर प्राप्ति के लिए सही मार्ग नहीं अपनाया। वे हठयोग जैसी कठिन साधना में लगी रहीं, जिससे उन्हें आत्मज्ञान या ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई। जिस प्रकार कच्चे घड़े से पानी लगातार टपकता रहता है और उसे रोका नहीं जा सकता, उसी प्रकार उनका जीवन भी बीतता जा रहा है और उनके प्रयास सफल नहीं हो पा रहे हैं।
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ललद्यद ने 'सम खा तभी होगा समभावी' से क्या आशय स्पष्ट किया है?
ललद्यद ने 'सम खा तभी होगा समभावी' से यह आशय स्पष्ट किया है कि मनुष्य को न तो अत्यधिक भोग-विलास में लिप्त होना चाहिए और न ही पूरी तरह से त्याग या वैराग्य अपनाना चाहिए। उन्हें जीवन में संतुलन बनाए रखना चाहिए, इंद्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए। जब व्यक्ति भोग और त्याग के बीच संतुलन स्थापित कर लेता है, तभी वह समभावी (समतावादी) बन पाता है और उसके मन के द्वार खुलते हैं, जिससे उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
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कवयित्री ने ईश्वर प्राप्ति के लिए कौन सा मार्ग सुझाया है?
कवयित्री ने ईश्वर प्राप्ति के लिए बाहरी आडंबरों, तीर्थयात्राओं, और हठयोग जैसे कठिन साधनों का त्याग कर आंतरिक शुद्धि, आत्मज्ञान और समभाव का मार्ग सुझाया है। उनका मानना है कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त है और उसे खोजने के लिए स्वयं को पहचानना (आत्मज्ञान) आवश्यक है। जब व्यक्ति आंतरिक रूप से शुद्ध होता है और सभी जीवों के प्रति समभाव रखता है, तभी उसे ईश्वर की सच्ची पहचान होती है।
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अंतिम वाख में कवयित्री ने हिंदू-मुसलमान को भेद न करने की बात क्यों कही है?
अंतिम वाख में कवयित्री ने हिंदू-मुसलमान को भेद न करने की बात इसलिए कही है क्योंकि वे मानती हैं कि ईश्वर (शिव) हर जगह, हर प्राणी में निवास करते हैं। ईश्वर कोई अलग-अलग सत्ता नहीं है जो हिंदू या मुसलमान के लिए अलग हो। यह विभाजन मनुष्यों द्वारा किया गया है। सच्चा ज्ञानी वही है जो इन भेदों से ऊपर उठकर ईश्वर की सर्वव्यापकता को समझता है और सभी मनुष्य एक समान देखता है।
II. आशय स्पष्ट कीजिए:
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"जेब टटोली कौड़ी न पाई। मांझी को दूँ क्या उतराई।।"
इस पंक्ति का आशय यह है कि कवयित्री ने जीवन भर सांसारिक मोह-माया और हठयोग में अपना समय व्यतीत कर दिया। जब जीवन के अंतिम पड़ाव पर उन्होंने अपने कर्मों का हिसाब लगाया (जेब टटोली), तो उन्हें एक भी पुण्य रूपी 'कौड़ी' (धन) नहीं मिला। अब उन्हें चिंता है कि इस भवसागर को पार कराने वाले ईश्वर रूपी मांझी (नाविक) को वे अपनी जीवन यात्रा का पारिश्रमिक (उतराई) क्या दें, क्योंकि उन्होंने कोई सत्कर्म नहीं किया। यह पंक्ति पश्चाताप और जीवन में सही कर्मों के महत्व को दर्शाती है।
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