अध्याय 6: नगर, व्यापारी और शिल्पीजन (Towns, Traders, and Craftspersons)

परिचय

मध्यकालीन भारत में नगरों, व्यापार और शिल्प का विकास एक महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक प्रक्रिया थी। ये नगर विभिन्न प्रकार के थे - कुछ प्रशासनिक केंद्र थे, कुछ मंदिर नगर थे और कुछ वाणिज्यिक केंद्र। इस अध्याय में, हम मध्यकालीन भारत के इन नगरों की विविधता, वहाँ के व्यापारियों और कारीगरों के जीवन और उनके योगदान के बारे में जानेंगे।

6.1 मध्यकालीन नगरों के प्रकार

मध्यकाल में नगरों को उनके कार्यों के आधार पर कई श्रेणियों में विभाजित किया गया था:

6.2 व्यापारियों और व्यापारिक समूहों का उदय

मध्यकाल में व्यापारिक समूहों का उदय हुआ, जो दूर-दराज के क्षेत्रों में व्यापार करते थे। ये व्यापारी समूह अक्सर एक साथ यात्रा करते थे और अपने हितों की रक्षा के लिए संघ (Gilds) बनाते थे।

6.3 शिल्पीजन और उनका महत्व

मध्यकालीन नगरों में विभिन्न प्रकार के शिल्पीजन और कारीगर रहते थे। उन्होंने नगरों की समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

6.4 हंपी: एक शाही और व्यापारिक केंद्र

हंपी (Hampi) विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी। यह एक सुनियोजित और समृद्ध नगर था।

हंपी के खंडहर

6.5 सूरत: एक व्यापारिक द्वार

सूरत (Surat) मुगल काल में पश्चिमी भारत का एक महत्वपूर्ण बंदरगाह और व्यापारिक केंद्र था।

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर (Questions & Answers)

I. कुछ शब्दों या एक-दो वाक्यों में उत्तर दें।

  1. प्रशासनिक केंद्र क्या होते थे?

    ये नगर राजाओं की राजधानी होते थे और यहाँ से राज्यों का प्रशासन चलाया जाता था।

  2. मंदिर नगर क्या होते थे?

    ये नगर प्रमुख मंदिरों के चारों ओर विकसित हुए और धार्मिक तथा आर्थिक गतिविधियों के केंद्र थे।

  3. हंपी किस साम्राज्य की राजधानी थी?

    हंपी विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी।

  4. सूरत को 'मक्का का प्रस्थान द्वार' क्यों कहा जाता था?

    सूरत से कई हज यात्री मक्का के लिए प्रस्थान करते थे।

II. प्रत्येक प्रश्न का एक लघु पैराग्राफ (लगभग 30 शब्द) में उत्तर दें।

  1. मध्यकालीन नगरों के प्रकारों का वर्णन करें।

    मध्यकालीन नगर मुख्य रूप से तीन प्रकार के थे: प्रशासनिक केंद्र (जैसे दिल्ली), मंदिर नगर (जैसे मदुरै), और वाणिज्यिक केंद्र (जैसे सूरत)। प्रत्येक का अपना विशिष्ट कार्य और महत्व था।

  2. व्यापारी समूह कैसे संगठित होते थे?

    व्यापारी अपने हितों की रक्षा और व्यापार को सुगम बनाने के लिए संघ (Gilds) बनाते थे। ये संघ एक साथ यात्रा करते थे और व्यापारिक नियमों को नियंत्रित करते थे।

  3. शिल्पकार मध्यकालीन नगरों में कैसे योगदान देते थे?

    शिल्पकार कपड़ों की बुनाई, धातु के काम और मूर्तिकला जैसे कार्यों में लगे थे। वे अपने संघों के माध्यम से संगठित होते थे और नगरों की आर्थिक समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।

III. प्रत्येक प्रश्न का दो या तीन पैराग्राफ (100–150 शब्द) में उत्तर दें।

  • मंदिर नगरों का विकास कैसे हुआ? उनका सामाजिक और आर्थिक जीवन कैसा था?

    मंदिर नगरों का विकास एक महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक प्रक्रिया थी। मंदिर अक्सर शासकों द्वारा बनवाए जाते थे और ये न केवल धार्मिक गतिविधियों के केंद्र थे, बल्कि व्यापार और आर्थिक गतिविधियों के भी केंद्र थे। शासक और अमीर लोग मंदिरों को भूमि और धन दान करते थे। इस दान का उपयोग पुजारियों, कारीगरों, संगीतकारों और नृत्यकों को रखने के लिए किया जाता था, जो मंदिर और उसके आसपास रहते थे। इससे मंदिर नगर धीरे-धीरे आर्थिक केंद्रों में बदल गए।

    मंदिरों में तीर्थयात्री बड़ी संख्या में आते थे, जिससे व्यापारियों और दुकानदारों को भी फायदा होता था। मंदिर के अधिकारी और पुजारी भी व्यापार और बैंकिंग का काम करते थे, जिससे नगर का आर्थिक जीवन और अधिक समृद्ध होता था। कारीगर और शिल्पीजन मंदिर के लिए मूर्तियाँ और अन्य वस्तुएँ बनाते थे, जिससे उनके शिल्प को भी बढ़ावा मिलता था। इस प्रकार, मंदिर नगर धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के एक महत्वपूर्ण संगम बन गए थे।

  • मध्यकालीन नगरों में शिल्पकारों का जीवन कैसा था और उनके संघों का क्या महत्व था?

    मध्यकालीन नगरों में शिल्पकारों का जीवन बहुत महत्वपूर्ण था। वे विभिन्न प्रकार के शिल्पों, जैसे कपड़ों की बुनाई, धातु के बर्तनों का निर्माण, सोने-चाँदी के आभूषण बनाना, और पत्थरों को तराशना, में लगे थे। इन शिल्पकारों का कौशल और कलात्मकता नगरों की पहचान थी। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत के सालिया या कैकोलार जैसे बुनकर समुदाय कपड़े बुनने में इतने कुशल थे कि उनके कपड़े दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे।

    शिल्पकारों ने अपने-अपने **संघों (गिल्ड्स)** का गठन किया था। इन संघों का उद्देश्य अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करना था। ये संघ कच्चे माल की खरीद, निर्मित वस्तुओं की गुणवत्ता को नियंत्रित करने और उत्पादन की प्रक्रिया को व्यवस्थित करने के लिए नियम बनाते थे। ये संघ अपने सदस्यों को प्रशिक्षण भी देते थे, जिससे आने वाली पीढ़ियों में भी शिल्प कौशल का हस्तांतरण होता था। इस प्रकार, ये संघ न केवल कारीगरों के जीवन को सुरक्षित करते थे, बल्कि नगरों की अर्थव्यवस्था और संस्कृति को भी समृद्ध बनाते थे।

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