अध्याय 8: सूक्तिस्तबकः (Bunch of Good Sayings) - प्रश्नोत्तर

यह अध्याय संस्कृत की कुछ महत्त्वपूर्ण सूक्तियों (अच्छे वचनों/कथनों) का संग्रह प्रस्तुत करता है, जो छात्रों को जीवन के विभिन्न पहलुओं पर नैतिक शिक्षा प्रदान करती हैं। ये सूक्तियाँ परिश्रम, प्रिय वचन, नदियों का महत्व, परोपकार, और गुणों के महत्व पर प्रकाश डालती हैं।

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर (Questions & Answers)

I. कुछ शब्दों या एक-दो वाक्यों में उत्तर दें।

  1. सर्वाणि कार्याणि केन सिध्यन्ति?

    सर्वाणि कार्याणि **उद्यमेन** सिध्यन्ति। (सभी कार्य परिश्रम से सिद्ध होते हैं।)

  2. प्रियवाक्यप्रदानेन के तुष्यन्ति?

    प्रियवाक्यप्रदानेन **सर्वे जन्तवः** तुष्यन्ति। (प्रिय वचन बोलने से सभी प्राणी प्रसन्न होते हैं।)

  3. काः स्वयं न खादन्ति फलानि?

    **वृक्षाः** स्वयं न खादन्ति फलानि। (वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते हैं।)

  4. गुणाः कुत्र भवन्ति?

    गुणाः **एकस्मिन् व्यक्तिविशेषे** भवन्ति। (गुण एक व्यक्ति विशेष में होते हैं।)

  5. किं पिबन्ति नद्यः स्वयम्?

    नद्यः **जलम्** स्वयम् न पिबन्ति। (नदियाँ स्वयं जल नहीं पीती हैं।)

II. प्रत्येक प्रश्न का एक लघु पैराग्राफ (लगभग 30 शब्द) में उत्तर दें।

  1. 'उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः' इस सूक्ति का क्या अर्थ है?

    इस सूक्ति का अर्थ है कि **कार्य केवल परिश्रम से ही सफल होते हैं, कोरी इच्छाओं या सोचने मात्र से नहीं**। जिस प्रकार सोते हुए शेर के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करता, उसी प्रकार बिना प्रयास के कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता। यह परिश्रम के महत्व पर बल देती है।

  2. प्रिय वचन बोलने का क्या लाभ होता है?

    प्रिय वचन बोलने से **सभी प्राणी संतुष्ट और प्रसन्न** होते हैं। इससे वाणी में मधुरता आती है और दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनते हैं। ऐसे वचन बोलने में कोई दरिद्रता नहीं होती, इसलिए हमेशा प्रिय बोलना चाहिए।

  3. नदियाँ और वृक्ष परोपकारी कैसे हैं?

    नदियाँ स्वयं अपना जल नहीं पीतीं और वृक्ष स्वयं अपने फल नहीं खाते। इसी प्रकार, मेघ (बादल) भी स्वयं फसल नहीं खाते। ये सभी **दूसरों के कल्याण के लिए ही जीते हैं**, यही उनका परोपकारी स्वभाव है। यह हमें परोपकार की प्रेरणा देती है।

III. प्रत्येक प्रश्न का दो या तीन पैराग्राफ (100–150 शब्द) में उत्तर दें।

  1. 'सूक्तिस्तबकः' अध्याय में निहित परिश्रम और परोपकार के महत्व को विस्तृत रूप से समझाएँ।

    'सूक्तिस्तबकः' अध्याय छात्रों को जीवन के दो मूलभूत सिद्धांतों - **परिश्रम (उद्योग)** और **परोपकार (दूसरों की भलाई)** का महत्व सिखाता है। पहली सूक्ति 'उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः, न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः' इस बात पर बल देती है कि केवल इच्छा करने से कार्य सिद्ध नहीं होते, बल्कि उनके लिए **कठिन परिश्रम और प्रयास** आवश्यक है। यह ठीक वैसे ही है जैसे एक सोए हुए शेर के मुँह में कोई हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता; उसे अपना भोजन प्राप्त करने के लिए उठकर शिकार करना ही पड़ता है। यह सूक्ति छात्रों को यह संदेश देती है कि सफलता प्राप्त करने के लिए उन्हें आलस्य छोड़कर सक्रिय रूप से अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ना होगा।

    दूसरी ओर, यह अध्याय परोपकार के सिद्धांत को भी उजागर करता है। 'नद्यः स्वयं एव न अम्भः पिबन्ति, वृक्षाः स्वयं न खादन्ति फलानि, नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः, परोपकाराय सतां विभूतयः।' यह सूक्ति प्राकृतिक उदाहरणों के माध्यम से परोपकार का महत्व समझाती है। नदियाँ स्वयं अपना जल नहीं पीतीं, वृक्ष स्वयं अपने फल नहीं खाते, और बादल स्वयं उगने वाली फसल को नहीं खाते। ये सभी प्रकृति की रचनाएँ दूसरों के लाभ के लिए ही होती हैं। इसी प्रकार, सज्जन (सत्पुरुष) भी अपनी संपत्ति, ज्ञान, या क्षमताओं का उपयोग **दूसरों की भलाई** के लिए करते हैं। उनका जीवन परोपकार को समर्पित होता है। यह सूक्ति छात्रों को निःस्वार्थ सेवा, दूसरों की मदद करने और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझने के लिए प्रेरित करती है। ये दोनों सिद्धांत - परिश्रम से लक्ष्य प्राप्त करना और परोपकार से समाज का कल्याण करना - एक संतुलित और सार्थक जीवन के लिए आवश्यक हैं।

  2. 'प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः। तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।' इस सूक्ति का महत्व विस्तार से समझाएँ।

    यह सूक्ति, 'प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः। तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।' (प्रिय वचन बोलने से सभी प्राणी संतुष्ट होते हैं। इसलिए प्रिय ही बोलना चाहिए, बोलने में कैसी दरिद्रता?), **वाणी की शक्ति और प्रिय वचन के महत्व** पर गहरा प्रकाश डालती है। यह बताती है कि मधुर और सौम्य वाणी न केवल मनुष्यों को, बल्कि सभी जीवित प्राणियों को प्रसन्न कर सकती है। जब हम किसी से विनम्रता और प्रेम से बात करते हैं, तो वे प्रसन्न होते हैं, उनके मन में हमारे प्रति सकारात्मक भावना आती है, और इससे आपसी संबंध मजबूत होते हैं। कटु या कठोर वचन जहाँ दूसरों को दुख पहुँचाते हैं और दूरियाँ बढ़ाते हैं, वहीं प्रिय वचन संबंध स्थापित करते हैं और सद्भाव का वातावरण बनाते हैं।

    सूक्ति का दूसरा भाग, 'वचने का दरिद्रता' (बोलने में कैसी दरिद्रता?), एक शक्तिशाली प्रश्न है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि जब प्रिय वचन बोलने में हमें कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता, तो हम उसमें कंजूसी क्यों करें? प्रिय वचन बोलने के लिए न धन की आवश्यकता होती है और न किसी विशेष प्रयास की; यह केवल हमारी इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। इसके विपरीत, इसके लाभ असीमित हैं - यह दूसरों को प्रसन्न करता है, हमें सम्मान दिलाता है, और हमारे अपने मन को भी शांति प्रदान करता है। यह सूक्ति छात्रों को संवाद के महत्व को समझने, दूसरों के साथ हमेशा विनम्रता और आदर से बात करने तथा अपनी वाणी को सकारात्मकता के लिए उपयोग करने की शिक्षा देती है। यह हमें याद दिलाती है कि एक मीठा शब्द बोलने से कभी कोई गरीब नहीं होता, बल्कि वह सामाजिक संबंधों को समृद्ध करता है।

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