अध्याय 5: औद्योगीकरण का युग (The Age of Industrialisation)
परिचय
कक्षा 10 इतिहास का यह अध्याय **'औद्योगीकरण का युग'** उस महत्वपूर्ण दौर का वर्णन करता है जब दुनिया ने औद्योगिक क्रांति का अनुभव किया। यह मशीनों के आगमन से पहले के औद्योगिक उत्पादन (प्रोटो-औद्योगीकरण), कारखानों के उदय, औद्योगिक विकास के विभिन्न चरणों, और भारत पर ब्रिटिश औद्योगीकरण के प्रभावों पर केंद्रित है। हम जानेंगे कि कैसे इन परिवर्तनों ने समाज, अर्थव्यवस्था और लोगों के जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया।
---1. मशीनों से पहले की दुनिया (Before the Industrial Revolution)
- आमतौर पर, हम औद्योगिक क्रांति को कारखानों के विकास और मशीनों के उपयोग से जोड़ते हैं। हालांकि, औद्योगिक क्रांति से पहले भी औद्योगिक उत्पादन मौजूद था।
- **प्रोटो-औद्योगीकरण (Proto-Industrialisation):** 17वीं और 18वीं शताब्दी में यूरोप में बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन, जो कारखानों के बिना होता था।
- इस प्रणाली में, व्यापारी शहरों से ग्रामीण इलाकों में जाते थे और किसानों व कारीगरों को पैसे देते थे ताकि वे उनके लिए उत्पादन कर सकें।
- उत्पादन ग्रामीण घरों में होता था, जिसमें परिवार के सभी सदस्य शामिल होते थे। यह प्रणाली शहरों में गिल्डों के नियंत्रण से मुक्त थी।
- इसने व्यापारियों को शहरी बाजारों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के लिए भी उत्पादन करने में सक्षम बनाया।
- यह एक विकेंद्रीकृत प्रणाली थी, जहां कामगार अपने घरों में काम करते थे।
2. कारखानों का आगमन (The Coming of the Factories)
- **इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति:** 1730 के दशक में इंग्लैंड में पहले कारखाने खुले, लेकिन 18वीं शताब्दी के अंत तक उनकी संख्या तेजी से बढ़ी।
- **कपास उद्योग:** यह औद्योगिक क्रांति का पहला प्रमुख क्षेत्र था।
- रिचर्ड आर्कराइट (Richard Arkwright) ने कपास मिल बनाई, जिसने कताई, बुनाई और धुलाई जैसी सभी प्रक्रियाओं को एक छत के नीचे लाया।
- मिलों ने उत्पादन प्रक्रिया को केंद्रीकृत किया और श्रमिकों पर अधिक नियंत्रण संभव बनाया।
3. औद्योगिक परिवर्तन की गति (The Pace of Industrial Change)
- **औद्योगिक विकास की विशेषताएँ:**
- **धीमी प्रक्रिया:** औद्योगिक क्रांति धीरे-धीरे हुई, अचानक नहीं। नए उद्योग पारंपरिक उद्योगों को विस्थापित नहीं कर पाए।
- **कपास और धातु उद्योग का प्रभुत्व:** प्रारंभिक चरण में कपास और धातु उद्योग ही मुख्य रूप से बढ़े। भाप इंजन के आविष्कार के बाद, कोयला और लौह उद्योग तेजी से विकसित हुए।
- **पारंपरिक उद्योगों का विस्थापन नहीं:** औद्योगिक उत्पादन ने पारंपरिक उद्योगों को पूरी तरह से विस्थापित नहीं किया। पारंपरिक उद्योग भी विकसित होते रहे।
- **तकनीकी परिवर्तन धीमी गति से:** नई तकनीकें महंगी थीं और मरम्मत के लिए जटिल। व्यापारी और उद्योगपति उन्हें अपनाने में झिझकते थे।
- **नए आविष्कारों का प्रभाव:** जेम्स वाट (James Watt) द्वारा भाप इंजन में सुधार (1781) और मैथ्यू बाउल्टन (Matthew Boulton) द्वारा इसका व्यावसायीकरण।
- **श्रमिकों की बहुतायत:** इंग्लैंड में श्रमिकों की कोई कमी नहीं थी। इसलिए, उद्योगपति मशीनों में भारी निवेश करने के बजाय अक्सर हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को पसंद करते थे।
- **मौसमी काम:** कई उद्योगों में काम मौसमी होता था, इसलिए उद्योगपति मशीनों पर पैसा खर्च करने के बजाय मौसमी श्रमिकों को काम पर रखते थे।
- **हाथ के श्रम की प्राथमिकता:**
- कुछ उत्पादों की मांग हाथ से बने उत्पादों की थी, क्योंकि वे व्यक्तिगत रूप से तैयार होते थे और बेहतर गुणवत्ता के होते थे।
- मशीन से बने सामान अक्सर मानक और बड़े पैमाने पर उत्पादित होते थे।
4. हाथ का श्रम और भाप की शक्ति (Hand Labour and Steam Power)
- **श्रमिकों की स्थिति:**
- शहरों में श्रमिकों की भारी भीड़ थी, जिससे बेरोजगारी और कम मजदूरी की समस्या थी।
- काम की तलाश में ग्रामीण इलाकों से लोग शहरों में आते थे।
- नौकरी पाने के लिए अक्सर 'कनेक्शन' या पहचान की जरूरत होती थी।
- श्रमिकों का जीवन गरीबी और कठिनाई से भरा होता था।
- काम की अनियमितता के कारण कई श्रमिक सड़क पर आ जाते थे।
- **नई तकनीक की समस्याएं:**
- भाप इंजन जैसे आविष्कार नए थे, लेकिन बहुत धीमे थे और महंगे भी।
- उद्योगपतियों को मशीनों की दक्षता और उनके टूटने के बारे में संदेह था।
- मशीनें श्रमिकों को विस्थापित करती थीं, जिससे श्रमिकों का विरोध होता था (जैसे 'स्पिनिंग जेनी' का विरोध)।
5. उपनिवेशों में औद्योगीकरण (Industrialisation in the Colonies)
ब्रिटिश औद्योगीकरण का भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा।
(a) भारतीय कपड़ा उद्योग (The Indian Textile Industry)
- **भारत से कपड़ा निर्यात:** 18वीं शताब्दी तक, भारत महीन सूती वस्त्रों का सबसे बड़ा उत्पादक था। आर्मेनियाई और फारसी व्यापारी भारत से कपड़ा निर्यात करते थे।
- **यूरोपीय व्यापारिक कंपनियाँ:** फ्रांसीसी, डच और अंग्रेजी कंपनियों ने भी भारतीय व्यापार को नियंत्रित करने की कोशिश की।
- **ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व:**
- राजनीतिक शक्ति हासिल करने के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी ने एकाधिकार स्थापित किया।
- उन्होंने बुनकरों पर सीधा नियंत्रण स्थापित करने के लिए **गुमाश्ता (gomasthas)** नामक वेतनभोगी पर्यवेक्षकों को नियुक्त किया।
- ये गुमाश्ता बुनकरों को कर्ज देते थे और उनसे तैयार माल एकत्र करते थे।
- बुनकरों को अन्य खरीदारों से निपटने से मना किया गया था।
- इससे बुनकरों का शोषण बढ़ा और कई बुनकर अपने पैतृक व्यवसाय छोड़कर किसान बन गए या शहरों में चले गए।
(b) मैनचेस्टर आता है (Manchester Comes to India)
- **इंग्लैंड में कपास उद्योग का विकास:**
- 19वीं शताब्दी की शुरुआत में, इंग्लैंड में कपास उद्योग का विकास हुआ। ब्रिटिश उद्योगपति भारतीय वस्त्रों के आयात के खिलाफ सरकार पर दबाव डालने लगे।
- उन्हें चिंता थी कि भारत से आयात इंग्लैंड के स्थानीय उद्योगों को नुकसान पहुँचाएगा।
- ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटेन में कपास उत्पादों पर आयात शुल्क लगाया।
- **भारत में ब्रिटिश माल का वर्चस्व:**
- 1850 के दशक तक, भारतीय बाजारों में ब्रिटिश निर्मित सूती वस्त्रों का बोलबाला हो गया।
- भारतीय बुनकरों को दो समस्याओं का सामना करना पड़ा:
- कच्चे कपास की कमी (क्योंकि भारत से कच्चा कपास इंग्लैंड को निर्यात किया जाता था)।
- ब्रिटेन से आयातित मशीनी-निर्मित सस्ते कपड़ों से प्रतिस्पर्धा।
- इससे भारतीय बुनकर समुदाय का पतन हुआ।
6. फैक्ट्रियां आती हैं (Factories Come Up)
- **भारत में प्रारंभिक फैक्ट्रियाँ:**
- बॉम्बे में पहली कपास मिल 1854 में स्थापित हुई।
- कोलकाता में पहली जूट मिल 1855 में।
- उत्तरी भारत में एल्गिन मिल (कानपुर) 1860 के दशक में।
- अहमदाबाद में पहली कपास मिल 1861 में।
- **प्रारंभिक भारतीय उद्यमी (Early Indian Entrepreneurs):**
- **द्वारकानाथ टैगोर (Dwarakanath Tagore):** बंगाल से, चीन के साथ व्यापार किया, 1830-40 के दशक में 6 संयुक्त-स्टॉक कंपनियाँ स्थापित कीं।
- **जमशेदजी नुसरवानजी टाटा (Jamsetji Nusserwanji Tata):** चीन के साथ व्यापार और कच्चे कपास के शिपमेंट में विशेषज्ञता।
- **सेठ हुकुमचंद (Seth Hukumchand):** मारवाड़ी व्यापारी, जिन्होंने 1917 में कोलकाता में पहली भारतीय जूट मिल स्थापित की।
- **जी.डी. बिरला (G.D. Birla):** बिड़ला समूह के संस्थापक, जो मारवाड़ी व्यापारिक समूहों में से एक थे।
- इनमें से कई उद्यमी चीन के साथ व्यापार (जैसे अफीम व्यापार) के माध्यम से धन प्राप्त करते थे।
- उद्योगपतियों के रूप में, वे मुख्य रूप से कपड़ा, जूट और खनन जैसे क्षेत्रों में निवेश करते थे।
- **श्रमिकों की भर्ती:** कारखानों में काम की तलाश में ग्रामीण इलाकों से लोग आते थे। उद्योगपतियों ने श्रमिकों को काम पर रखने के लिए **जॉबर (jobbers)** को नियुक्त किया। जॉबर गांवों से लोगों को लाते थे, उन्हें नौकरी दिलवाते थे और उन्हें शहर में बसने में मदद करते थे।
7. औद्योगिक विकास की विशिष्टताएँ (The Peculiarities of Industrial Growth)
- **यूरोपीय एजेंसियों का प्रभुत्व:** यूरोपीय व्यापारिक एजेंसियाँ भारत में औद्योगिक उत्पादन पर हावी थीं। वे चाय और कॉफी बागान, खनन और शिपिंग में निवेश करती थीं।
- **भारतीयों का प्रतिबंध:** यूरोपीय एजेंसियाँ भारतीय उद्यमियों को नियंत्रित बाजारों में निवेश करने से रोकती थीं।
- **प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव:**
- प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) ने भारतीय उद्योगों के विकास के लिए एक नई स्थिति बनाई।
- ब्रिटिश मिलें युद्ध की जरूरतों को पूरा करने में व्यस्त हो गईं।
- भारतीय कारखानों को सेना की वर्दी, टेंट, चमड़े के जूते आदि का उत्पादन करने के लिए कहा गया।
- इससे भारतीय उद्योगों को भारी बढ़ावा मिला।
- नए कारखाने स्थापित हुए और पुराने कारखाने कई बदलावों के साथ चलने लगे।
- **युद्ध के बाद की स्थिति:**
- युद्ध के बाद, ब्रिटिश मैनचेस्टर भारतीय बाजार पर अपना कब्जा फिर से हासिल नहीं कर सका।
- भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन मजबूत हो गया और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की मांग तेज हो गई।
- महात्मा गांधी के **स्वदेशी आंदोलन** ने विदेशी कपड़ों के बहिष्कार पर जोर दिया, जिससे भारतीय मिलों को फायदा हुआ।
- **छोटे पैमाने के उद्योग:**
- 20वीं शताब्दी में भी, अधिकांश औद्योगिक उत्पादन छोटे पैमाने की इकाइयों और घरेलू इकाइयों में होता रहा।
- ये छोटे कारखाने बड़ी मिलों की तुलना में कम लागत पर अधिक श्रमिकों को रोजगार देते थे।
- सूती वस्त्र क्षेत्र में बुनाई का काम ज्यादातर हाथ से होता रहा।
- कुछ मशीनों के साथ हथकरघा बुनकरों ने अपने उत्पादन में सुधार किया।
8. वस्तुओं के लिए बाजार (Market for Goods)
- जैसे-जैसे नए उत्पाद बनते गए, उन्हें बेचने और उपभोक्ताओं को आकर्षित करने की आवश्यकता थी।
- **विज्ञापनों का महत्व:**
- विज्ञापन नए उत्पादों को लोकप्रिय बनाने का एक महत्वपूर्ण तरीका बन गए।
- वे उत्पादों को वांछनीय और आवश्यक बनाने में मदद करते थे।
- उदाहरण: लिप्टन चाय का विज्ञापन, जिसमें भारतीय सम्राट की तस्वीर थी।
- **लेबलिंग और ब्रांडिंग:**
- उत्पादों पर 'मेड इन मैनचेस्टर' जैसे लेबल लगे होते थे, जिससे उनकी गुणवत्ता का संकेत मिलता था।
- लेबल पर देवी-देवताओं, महत्वपूर्ण हस्तियों या जानवरों की छवियाँ होती थीं जो भारतीय उपभोक्ताओं को आकर्षित करती थीं।
- **कैलेंडर और भित्ति चित्र:**
- कैलेंडर और भित्ति चित्र अक्सर उत्पादों का विज्ञापन करते थे और उन्हें घरों और सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शित करते थे।
- इन सभी तरीकों का उद्देश्य उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा देना और उत्पादों के लिए एक व्यापक बाजार बनाना था।
पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर
संक्षेप में लिखें (Write in brief)
-
निम्नलिखित की व्याख्या करें:
(क) ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी पर हमले क्यों किए?ब्रिटेन की महिला कामगारों ने **स्पिनिंग जेनी (Spinning Jenny)** पर हमले इसलिए किए क्योंकि उन्हें डर था कि यह नई मशीन उनकी नौकरियों को छीन लेगी और उनके जीवन को और अधिक कठिन बना देगी। उस समय, हाथ से कताई का काम ज्यादातर महिलाओं द्वारा किया जाता था।- **बेरोजगारी का डर:** स्पिनिंग जेनी एक ऐसी मशीन थी जो एक ही समय में कई तकलियों को चलाकर कताई की प्रक्रिया को तेज करती थी। इससे एक अकेला व्यक्ति कई श्रमिकों के बराबर काम कर सकता था। महिलाओं को आशंका थी कि यह मशीन उनकी मैनुअल कताई की नौकरियों को छीन लेगी, जिससे वे बेरोजगार हो जाएंगी।
- **कम मजदूरी:** यदि मशीनें उनकी जगह ले लेतीं, तो उनकी मजदूरी और भी कम हो जाती, क्योंकि उपलब्ध कामगारों की संख्या बढ़ जाती और वे अपने जीवन-यापन के लिए संघर्ष करतीं।
- **खराब जीवन स्थितियाँ:** उस समय के श्रमिक पहले से ही खराब जीवन स्थितियों, कम मजदूरी और अनिश्चित रोजगार से जूझ रहे थे। स्पिनिंग जेनी जैसी मशीनों का आगमन उनके लिए इन समस्याओं को और भी बदतर बनाने वाला था।
- **प्रतिक्रिया का इतिहास:** तकनीकी नवाचारों के कारण रोजगार के नुकसान का डर नया नहीं था। लुडिज्म आंदोलन (Luddism movement) जैसे पहले के आंदोलन भी मशीनों के खिलाफ थे, क्योंकि उन्हें श्रमिकों के लिए खतरा माना जाता था।
संक्षेप में, स्पिनिंग जेनी पर हमले महिलाओं द्वारा अपने रोजगार और आजीविका को बचाने के लिए एक हताश प्रयास थे, जिन्हें वे इस नई मशीन से खतरे में मानती थीं। -
निम्नलिखित की व्याख्या करें:
(ख) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे।सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागरों ने गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाना शुरू कर दिया था, जिसे **प्रोटो-औद्योगीकरण (Proto-Industrialisation)** के रूप में जाना जाता है। इसके कई कारण थे:- **शहरी गिल्डों का नियंत्रण:** शहरों में, शहरी दस्तकारी और व्यापार गिल्डों (guilds) द्वारा नियंत्रित होते थे। ये गिल्ड शिल्पकारों के संघ थे जो कारीगरों को प्रशिक्षित करते थे, उत्पादकों पर नियंत्रण रखते थे, प्रतिस्पर्धा और कीमतों को नियंत्रित करते थे, और नए लोगों को बाजार में प्रवेश करने से रोकते थे। इससे सौदागरों के लिए शहरों में उत्पादन बढ़ाना मुश्किल हो गया।
- **ग्रामीण इलाकों में श्रम की उपलब्धता:** ग्रामीण इलाकों में, किसान और कारीगर खेतों में काम के अलावा अन्य आय स्रोतों की तलाश में थे। कृषि कार्य में कई अवधि ऐसी होती थी जब वे खाली होते थे। सौदागरों ने इन ग्रामीण परिवारों को आसानी से कपड़े बनाने या अन्य हस्तशिल्प कार्य करने के लिए राजी कर लिया, क्योंकि इससे उन्हें अतिरिक्त आय मिलती थी।
- **कम उत्पादन लागत:** ग्रामीण क्षेत्रों में श्रमिकों को शहरों की तुलना में कम मजदूरी पर काम करने के लिए तैयार किया जा सकता था, जिससे सौदागरों के लिए उत्पादन लागत कम हो जाती थी।
- **उत्पादन पर अधिक लचीलापन:** ग्रामीण प्रणाली में सौदागरों के पास अपने उत्पादन को गिल्ड प्रतिबंधों के बिना विस्तारित करने का अधिक लचीलापन था। वे सीधे परिवारों के साथ काम कर सकते थे और अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुसार उत्पादन करवा सकते थे।
- **अंतर्राष्ट्रीय बाजारों की मांग:** वैश्विक व्यापार के विस्तार के साथ, वस्तुओं की मांग बढ़ रही थी। शहरी गिल्ड इस बढ़ती मांग को पूरा करने में असमर्थ थे। ग्रामीण उत्पादन प्रणाली ने इस मांग को पूरा करने में मदद की।
इस प्रकार, ग्रामीण इलाकों में काम करवाने से सौदागरों को शहरों के प्रतिबंधों से बचने, श्रम लागत को कम करने और बढ़ती वैश्विक मांग को पूरा करने में मदद मिली, जिससे प्रोटो-औद्योगीकरण का विकास हुआ। -
निम्नलिखित की व्याख्या करें:
(ग) सूरत बंदरगाह अठारहवीं सदी के अंत तक हासिये पर पहुँच गया था।सूरत बंदरगाह अठारहवीं शताब्दी के अंत तक हासिये पर पहुँच गया था, यानी इसका महत्व बहुत कम हो गया था, इसके कई प्रमुख कारण थे:- **यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों का उदय:** सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों (जैसे ब्रिटिश, डच और फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनियाँ) की बढ़ती शक्ति और उनके व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण ने सूरत के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये कंपनियाँ धीरे-धीरे भारत के साथ अपने व्यापार को नियंत्रित करने लगी थीं।
- **अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व:**
- अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंबई (मुंबई) में अपने अड्डे स्थापित कर लिए थे। बंबई का बंदरगाह कंपनी के व्यापार के लिए एक प्रमुख केंद्र बन गया था।
- कंपनी ने धीरे-धीरे भारत के समुद्री व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया, जिससे अन्य पारंपरिक भारतीय बंदरगाहों का महत्व कम हो गया।
- **नए व्यापारिक केंद्रों का विकास:** बंबई और कलकत्ता (कोलकाता) जैसे नए बंदरगाहों का विकास, जिन पर ब्रिटिश नियंत्रण था, ने सूरत जैसे पुराने व्यापारिक केंद्रों से व्यापार को दूर कर दिया।
- **भारतीय व्यापारियों का पतन:**
- यूरोपीय कंपनियों के बढ़ते नियंत्रण के कारण, भारतीय व्यापारी, जो सूरत के माध्यम से व्यापार करते थे, धीरे-धीरे शक्तिहीन हो गए।
- उन्हें अब ब्रिटिश व्यापार नेटवर्क के भीतर काम करना पड़ता था, जो उनके अपने नियमों और शर्तों पर आधारित था।
- **बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली का कमजोर होना:** सूरत से जुड़े बैंकिंग नेटवर्क (जैसे हुंडी) धीरे-धीरे ध्वस्त हो गए, क्योंकि व्यापार ब्रिटिश नियंत्रण वाले नए केंद्रों की ओर स्थानांतरित हो गया। इससे भारतीय व्यापारियों को वित्तपोषण प्राप्त करना मुश्किल हो गया।
संक्षेप में, सूरत बंदरगाह का पतन मुख्य रूप से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की बढ़ती व्यापारिक और राजनीतिक शक्ति, नए ब्रिटिश-नियंत्रित बंदरगाहों के विकास और पारंपरिक भारतीय व्यापारिक नेटवर्क के कमजोर होने का परिणाम था। -
निम्नलिखित की व्याख्या करें:
(घ) ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया।ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने, आपूर्ति एकत्र करने और कपड़ों की गुणवत्ता की जाँच करने के लिए **गुमाश्तों (Gomasthas)** को नियुक्त किया। कंपनी द्वारा ऐसा करने के कई कारण थे:- **व्यापार एकाधिकार का दावा:** 1760 के दशक के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में राजनीतिक शक्ति हासिल कर ली थी। वे अपने व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करना चाहते थे और सुनिश्चित करना चाहते थे कि उन्हें नियमित रूप से कपड़े की आपूर्ति मिलती रहे।
- **बुनकरों पर सीधा नियंत्रण:** कंपनी ने बिचौलियों को खत्म करने की कोशिश की, जो पहले बुनकरों और व्यापारियों के बीच काम करते थे। इन बिचौलियों के माध्यम से आपूर्ति सुनिश्चित करना मुश्किल था और वे अन्य खरीदारों से भी डील कर सकते थे। गुमाश्तों की नियुक्ति से कंपनी बुनकरों पर सीधा नियंत्रण रख सकती थी।
- **गुणवत्ता नियंत्रण:** गुमाश्ता यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार थे कि बुनकरों द्वारा तैयार किए गए कपड़े अपेक्षित गुणवत्ता के हों। वे नियमित रूप से काम का निरीक्षण करते थे।
- **बुनकरों को अग्रिम ऋण:** कंपनी गुमाश्तों के माध्यम से बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए अग्रिम ऋण देती थी। जो बुनकर ऋण लेते थे, उन्हें अपना उत्पाद सीधे कंपनी को ही देना पड़ता था और वे किसी और को नहीं बेच सकते थे। इससे बुनकर कंपनी पर निर्भर हो गए।
- **प्रतिस्पर्धा समाप्त करना:** कंपनी उन अन्य खरीदारों (जैसे फ्रांसीसी, डच, पुर्तगाली) को खत्म करना चाहती थी जो भारतीय कपड़े के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। गुमाश्तों ने बुनकरों को अन्य खरीदारों से निपटने से प्रभावी ढंग से रोक दिया।
- **निर्धारित आपूर्ति सुनिश्चित करना:** युद्ध और अन्य यूरोपीय प्रतिद्वंद्विता के कारण कंपनी को ब्रिटेन में अपने उद्योगों के लिए लगातार और विश्वसनीय आपूर्ति सुनिश्चित करनी थी। गुमाश्ता इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक थे।
हालांकि, गुमाश्तों के आने से बुनकरों के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। वे अक्सर कंपनी के हितों को साधने के लिए दमनकारी तरीके अपनाते थे, जैसे कि बुनकरों को दंडित करना यदि वे समय पर या आवश्यक गुणवत्ता का उत्पादन नहीं करते थे, जिससे बुनकरों और गुमाश्तों के बीच अक्सर संघर्ष होते थे।
चर्चा करें (Discuss)
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ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए क्या किया?
ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कई रणनीतियाँ अपनाईं, खासकर जब उन्होंने भारत में राजनीतिक शक्ति हासिल कर ली थी:
- **मौजूदा व्यापारियों और दलालों का उन्मूलन:** कंपनी ने कपड़ा व्यापार में मौजूदा भारतीय व्यापारियों और दलालों को खत्म करने की कोशिश की। ये बिचौलिए बुनकरों से प्रतिस्पर्धा करते थे और कंपनी के लिए आपूर्ति सुरक्षित करना मुश्किल बनाते थे।
- **गुमाश्तों की नियुक्ति:** कंपनी ने **गुमाश्तों (Gomasthas)** नामक वेतनभोगी पर्यवेक्षकों को नियुक्त किया। ये भारतीय गुमाश्ता बुनकरों पर निगरानी रखने, आपूर्ति एकत्र करने और कपड़ों की गुणवत्ता की जाँच करने के लिए जिम्मेदार थे।
- **अग्रिम ऋण प्रणाली (दादनी प्रथा):**
- बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए कंपनी से अग्रिम ऋण (लोन) दिया जाता था।
- जो बुनकर ऋण लेते थे, उन्हें अपना उत्पाद सीधे गुमाश्तों को ही सौंपना होता था और वे किसी अन्य व्यापारी को नहीं बेच सकते थे। इससे बुनकरों को कंपनी के साथ बांध दिया गया।
- **बुनकरों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण:** इस प्रणाली ने बुनकरों को कंपनी पर पूरी तरह से निर्भर बना दिया। उन्हें अन्य खरीदारों (जैसे फ्रांसीसी, डच, पुर्तगाली व्यापारी) से निपटने की अनुमति नहीं थी। इससे कंपनी को आपूर्ति पर एकाधिकार और गुणवत्ता पर नियंत्रण मिला।
- **बुनकरों का शोषण और दंड:** कंपनी के गुमाश्ता अक्सर बुनकरों को समय पर उत्पादन न करने या अपेक्षित गुणवत्ता प्रदान न करने पर दंडित करते थे। कई बुनकरों को अपने गांवों से भागना पड़ा या उन्हें अपना पारंपरिक पेशा छोड़कर अन्य काम करने पड़े।
- **नए व्यापारिक केंद्रों का विकास:** कंपनी ने बंबई और कलकत्ता जैसे नए बंदरगाहों को विकसित किया, जहाँ से वे अपने माल को आसानी से इंग्लैंड भेज सकते थे, और पुराने व्यापारिक केंद्रों जैसे सूरत और हुगली को कमजोर किया।
इन रणनीतियों का उद्देश्य भारतीय कपड़ा आपूर्ति श्रृंखला पर कंपनी का पूर्ण नियंत्रण स्थापित करना था, ताकि वे अपनी औद्योगिक जरूरतों और व्यापारिक लाभ के लिए नियमित और उच्च गुणवत्ता वाले कपड़े प्राप्त कर सकें। -
उन्नीसवीं सदी में भारतीय उद्यमियों के सामने आने वाली समस्याएँ क्या थीं?
उन्नीसवीं सदी में भारतीय उद्यमियों को कई गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा, जिन्होंने उनके औद्योगिक विकास को बाधित किया:
- **ब्रिटिश आर्थिक नीतियों का प्रभुत्व:**
- ब्रिटेन की औपनिवेशिक सरकार की नीतियां मुख्य रूप से ब्रिटिश उद्योगों के हितों की सेवा के लिए बनाई गई थीं, न कि भारतीय उद्योगों के लिए।
- भारत से कच्चे माल का निर्यात किया जाता था और तैयार माल (जैसे मैनचेस्टर से कपड़ा) भारत में भारी मात्रा में आयात किया जाता था, जिससे भारतीय उद्योगों के लिए प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो गया।
- **नियंत्रित बाज़ार तक पहुँच का अभाव:**
- यूरोपीय व्यापारिक एजेंसियों, जैसे ब्रिटिश नियंत्रण वाली एजेंसियाँ, औद्योगिक क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर हावी थीं। वे भारतीयों को कुछ क्षेत्रों (जैसे बागान, खनन) में प्रवेश करने से रोकती थीं।
- भारतीय उद्यमियों को अक्सर केवल उन क्षेत्रों में निवेश करने की अनुमति होती थी जो ब्रिटिश नियंत्रण वाले उद्योगों के साथ सीधे प्रतिस्पर्धा नहीं करते थे, जैसे सूती धागे का उत्पादन (जो ब्रिटेन को निर्यात किया जाता था)।
- **वित्तपोषण की समस्या:**
- बैंक और वित्तीय संस्थान अक्सर ब्रिटिश उद्यमियों को अधिक आसानी से ऋण प्रदान करते थे, जबकि भारतीय उद्यमियों के लिए पूंजी जुटाना अधिक कठिन होता था।
- उनकी अधिकांश पूंजी उनके पारिवारिक व्यापार नेटवर्क (जैसे चीन के साथ अफीम व्यापार) से आती थी।
- **रेलवे के विकास का नकारात्मक प्रभाव:** भारत में रेलवे का विकास मुख्य रूप से ब्रिटिश निर्मित माल को देश के आंतरिक हिस्सों तक ले जाने के लिए किया गया था, न कि भारतीय उद्योगों के उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए।
- **तकनीकी पिछड़ापन:** भारतीय उद्योगपतियों को अक्सर आधुनिक मशीनरी और तकनीकी जानकारी तक पहुँचने में कठिनाई होती थी, जो कि ब्रिटिश उद्योगों के पास आसानी से उपलब्ध थी।
- **टैरिफ नीति (शुल्क नीति):** ब्रिटिश सरकार की शुल्क नीति भारतीय उद्योगों के लिए सुरक्षात्मक नहीं थी। आयातित माल पर कम शुल्क या कोई शुल्क नहीं लगाया जाता था, जिससे वे भारतीय उत्पादों की तुलना में सस्ते हो जाते थे।
- **बाजार में प्रतिस्पर्धा:** प्रथम विश्व युद्ध से पहले, भारतीय बाजार पर ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं का दबदबा था, जिससे भारतीय उद्योगों के लिए अपनी जगह बनाना मुश्किल था।
संक्षेप में, भारतीय उद्यमियों को ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों, वित्तीय बाधाओं, नियंत्रित बाजारों और कड़ी विदेशी प्रतिस्पर्धा के कारण भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसने भारत में उनके औद्योगिक विकास को धीमा कर दिया। - **ब्रिटिश आर्थिक नीतियों का प्रभुत्व:**
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पहले विश्व युद्ध के दौरान भारत में औद्योगिक विकास क्यों हुआ?
पहले विश्व युद्ध (1914-1918) ने भारत में औद्योगिक विकास के लिए एक अप्रत्याशित और महत्वपूर्ण अवसर प्रदान किया। इसके कई प्रमुख कारण थे:
- **ब्रिटिश मिलों का युद्ध उत्पादन में व्यस्त होना:**
- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, ब्रिटेन की मिलें और कारखाने युद्ध के उत्पादन में व्यस्त हो गए। उन्हें सेना के लिए कपड़े, जूते, हथियार और अन्य आवश्यक वस्तुएँ बनाने पर ध्यान केंद्रित करना पड़ा।
- इससे ब्रिटिश मैनचेस्टर के लिए भारत को कपड़े और अन्य सामानों का निर्यात करना मुश्किल हो गया।
- **भारत में युद्धकालीन मांग:**
- युद्ध के लिए भारतीय सेना और आपूर्ति की आवश्यकता बढ़ी। भारतीय कारखानों को सेना की वर्दी, टेंट, चमड़े के जूते, बोरियाँ, और अन्य सामान बनाने के आदेश मिले।
- इससे भारतीय उद्योगों को भारी मांग मिली और उनका उत्पादन तेजी से बढ़ा।
- **नए कारखानों की स्थापना और मौजूदा कारखानों का विस्तार:** युद्ध की मांग को पूरा करने के लिए, भारत में नए कारखाने स्थापित किए गए, और मौजूदा कारखानों को कई शिफ्टों में चलाया जाने लगा। नए श्रमिकों को काम पर रखा गया।
- **ब्रिटिश आयात में गिरावट:** चूँकि ब्रिटिश मिलें युद्ध में व्यस्त थीं और शिपिंग लाइनों को भी युद्ध के उद्देश्यों के लिए मोड़ दिया गया था, ब्रिटेन से भारत में आयात में भारी गिरावट आई। इसने भारतीय उद्योगों को घरेलू बाजार में प्रतिस्पर्धा करने का अवसर दिया।
- **सरकार का समर्थन:** युद्ध की जरूरतों को पूरा करने के लिए, ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहित किया और उन्हें कुछ समर्थन भी प्रदान किया, क्योंकि वे युद्ध प्रयासों के लिए आवश्यक थे।
परिणामस्वरूप, युद्ध के वर्षों में भारतीय उद्योगों में जबरदस्त वृद्धि हुई। युद्ध समाप्त होने के बाद भी, मैनचेस्टर भारत के बाजार पर अपनी पहले की पकड़ फिर से हासिल नहीं कर सका, क्योंकि भारतीय उद्योगों ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी और भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन ने स्वदेशी उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा दिया। इस प्रकार, पहला विश्व युद्ध भारतीय औद्योगीकरण के लिए एक वरदान साबित हुआ। - **ब्रिटिश मिलों का युद्ध उत्पादन में व्यस्त होना:**
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ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय बुनकरों पर किस प्रकार नियंत्रण स्थापित किया?
ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय बुनकरों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के लिए कई रणनीतियाँ अपनाईं, खासकर 1760 के दशक के बाद जब उन्होंने बंगाल में राजनीतिक शक्ति हासिल कर ली थी। इन रणनीतियों का उद्देश्य बिचौलियों को खत्म करना, आपूर्ति सुरक्षित करना और प्रतिस्पर्धा को रोकना था:
- **गुमाश्तों की नियुक्ति:**
- कंपनी ने **गुमाश्तों (Gomasthas)** नामक वेतनभोगी पर्यवेक्षकों को नियुक्त किया। ये गुमाश्ता भारतीय थे, और उनका मुख्य कार्य बुनकरों पर निगरानी रखना, कपड़ों की गुणवत्ता की जाँच करना और कंपनी को तैयार माल एकत्र करके देना था।
- ये गुमाश्ता अक्सर बाहरी होते थे और बुनकरों के गांवों से उनका कोई सामाजिक संबंध नहीं होता था, जिससे वे दमनकारी व्यवहार करने में स्वतंत्र महसूस करते थे।
- **अग्रिम ऋण प्रणाली (दादनी प्रथा):**
- कंपनी ने बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए अग्रिम ऋण (लोन) देना शुरू किया।
- जो बुनकर यह ऋण लेते थे, उन्हें अपना तैयार कपड़ा केवल कंपनी को ही बेचना होता था। उन्हें किसी अन्य खरीदार से अपने उत्पाद बेचने की अनुमति नहीं थी।
- इससे बुनकर पूरी तरह से कंपनी पर निर्भर हो गए और उनका शोषण बढ़ गया।
- **अन्य खरीदारों को बाहर करना:** कंपनी ने अन्य भारतीय व्यापारियों और यहां तक कि अन्य यूरोपीय कंपनियों (जैसे फ्रांसीसी, डच) को भी भारतीय कपड़ा व्यापार से बाहर करने की कोशिश की। गुमाश्तों ने सुनिश्चित किया कि बुनकर अन्य खरीदारों से बात न करें या उन्हें माल न बेचें।
- **बुनकरों का अलगाव और शोषण:**
- बुनकरों को अक्सर अपने गाँवों में Company द्वारा आवंटित घरों में काम करने के लिए मजबूर किया जाता था और उन्हें अन्य ग्राहकों से संपर्क करने की अनुमति नहीं थी।
- कम कीमतें, ऋण का बोझ, और गुमाश्तों का कठोर व्यवहार बुनकरों के लिए बहुत मुश्किल था। यदि वे शर्तों का पालन नहीं करते थे, तो उन्हें दंडित किया जाता था, यहां तक कि उनके हाथ के अंगूठे भी काट दिए जाते थे ताकि वे दोबारा बुनाई न कर सकें।
- **राजनीतिक दबाव:** अपनी राजनीतिक शक्ति का उपयोग करते हुए, कंपनी ने स्थानीय शासकों और जमींदारों पर दबाव डाला ताकि वे बुनकरों को कंपनी के साथ सहयोग करने के लिए मजबूर करें।
इन कठोर नियंत्रण उपायों के कारण कई बुनकरों को अपने पैतृक गाँव छोड़ने पड़े, अपना पेशा छोड़ना पड़ा, या कंपनी के शोषण का शिकार होना पड़ा। इसने भारतीय कपड़ा उद्योग को बुरी तरह प्रभावित किया। - **गुमाश्तों की नियुक्ति:**
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नए अविष्कारों से पारंपरिक कारीगरों और मजदूरों को किस तरह के नुकसान हुए?
नए अविष्कारों और मशीनों के आगमन से पारंपरिक कारीगरों और मजदूरों को कई गंभीर नुकसान हुए:
- **बेरोजगारी और रोजगार का नुकसान:**
- मशीनें कम समय में और कम श्रमिकों के साथ अधिक उत्पादन कर सकती थीं। उदाहरण के लिए, स्पिनिंग जेनी ने एक ही समय में कई धागे काते, जिससे कई कताई करने वालों की नौकरी चली गई।
- इससे उन हजारों कारीगरों और मजदूरों को अपनी आजीविका खोनी पड़ी जो सदियों से हाथ से काम करते आ रहे थे।
- **कम मजदूरी और जीवन स्तर में गिरावट:**
- जैसे-जैसे मशीनें अधिक काम करने लगीं और बेरोजगारी बढ़ी, श्रमिकों पर काम के लिए प्रतिस्पर्धा करने का दबाव बढ़ गया।
- इससे उनकी मजदूरी में भारी गिरावट आई, क्योंकि उद्योगपतियों को कम मजदूरी पर श्रमिक आसानी से मिल जाते थे। जीवन स्तर में गिरावट आई और गरीबी बढ़ गई।
- **कौशल का अवमूल्यन (Devaluation of Skills):**
- पारंपरिक कारीगरों के पास विशेष कौशल और वर्षों का अनुभव होता था। मशीनों के आगमन से इन कौशलों का महत्व कम हो गया, क्योंकि मशीनें अक्सर कम कुशल श्रमिकों द्वारा भी चलाई जा सकती थीं।
- इससे कारीगरों को अपने पारंपरिक पेशे में सम्मान और आय दोनों का नुकसान हुआ।
- **काम की परिस्थितियों में गिरावट:**
- जब कारीगरों को कारखानों में काम करना पड़ा, तो उन्हें कठोर और अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। काम के घंटे लंबे होते थे, मजदूरी कम होती थी, और कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं थी।
- घर से काम करने की स्वतंत्रता समाप्त हो गई।
- **सामाजिक अशांति और विरोध:**
- नौकरी गंवाने के डर से श्रमिकों में गुस्सा और हताशा बढ़ी।
- इसके परिणामस्वरूप मशीनों के खिलाफ आंदोलन हुए, जैसे कि ब्रिटेन में लुडिज्म आंदोलन, जहाँ श्रमिकों ने स्पिनिंग जेनी और अन्य मशीनों को तोड़ दिया।
- भारत में भी, बुनकरों को ईस्ट इंडिया कंपनी के गुमाश्तों द्वारा शोषण का सामना करना पड़ा, जिससे विरोध और पलायन हुआ।
- **बाजार में प्रतिस्पर्धा का नुकसान:** हाथ से बने उत्पाद मशीनों से बने सस्ते और बड़े पैमाने पर उत्पादित सामानों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते थे, जिससे पारंपरिक कारीगरों के लिए अपने उत्पादों को बेचना मुश्किल हो गया।
कुल मिलाकर, नए आविष्कारों ने पारंपरिक कारीगरों और मजदूरों के जीवन को गहराई से बाधित किया, जिससे उन्हें आर्थिक असुरक्षा, सामाजिक उथल-पुथल और जीवन की गुणवत्ता में गिरावट का सामना करना पड़ा। - **बेरोजगारी और रोजगार का नुकसान:**
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