अध्याय 3: जल संसाधन (Water Resources)
परिचय
कक्षा 10 भूगोल का यह अध्याय **'जल संसाधन'** जल को एक महत्वपूर्ण और बहुमूल्य संसाधन के रूप में प्रस्तुत करता है। यह अध्याय जल की उपलब्धता, उसकी कमी के कारणों, और जल संरक्षण तथा प्रबंधन की आवश्यकता पर केंद्रित है। इसमें बहुउद्देशीय नदी परियोजनाओं के लाभ और हानियों पर भी चर्चा की गई है, साथ ही वर्षा जल संचयन जैसे पारंपरिक जल प्रबंधन प्रणालियों के महत्व को भी उजागर किया गया है।
---1. जल दुर्लभता (Water Scarcity)
- पृथ्वी की सतह का तीन-चौथाई हिस्सा पानी से ढका हुआ है, लेकिन इसमें से केवल एक छोटा सा हिस्सा ही ताजे पानी के रूप में उपलब्ध है जिसे हम उपयोग कर सकते हैं।
- विश्व के कुल जल का 96.5% महासागरों में खारे पानी के रूप में है, और केवल 2.5% ही मीठा पानी है।
- मीठे पानी का 70% अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड और पहाड़ी क्षेत्रों में बर्फ की चादरों और ग्लेशियरों के रूप में है, जहाँ यह अगम्य है।
- मीठे पानी का लगभग 30% भूजल (Groundwater) के रूप में है।
- भारत में कुल विश्व वर्षा का 4% प्राप्त होता है, और यह विश्व में जल उपलब्धता के मामले में 133वें स्थान पर है।
जल दुर्लभता के कारण (Causes of Water Scarcity)
- **जल प्रदूषण (Water Pollution):** उद्योगों और कृषि से निकलने वाले रसायन, कीटनाशक और अपशिष्ट जल को प्रदूषित करते हैं, जिससे पीने योग्य जल की उपलब्धता घटती है।
- **जनसंख्या वृद्धि (Population Growth):** बढ़ती जनसंख्या को अधिक पानी की आवश्यकता होती है, जिससे प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता कम होती है।
- **सिंचाई के लिए पानी की बढ़ती माँग (Increasing Demand for Water for Irrigation):** भारत में कृषि एक बड़ी मात्रा में पानी का उपयोग करती है, खासकर चावल जैसी पानी की सघन फसलें, जिससे भूजल का अत्यधिक दोहन होता है।
- **औद्योगिकीकरण (Industrialisation):** उद्योग बड़े पैमाने पर पानी का उपयोग करते हैं और अक्सर प्रदूषित जल को बिना उपचारित किए वापस छोड़ देते हैं।
- **शहरीकरण (Urbanisation):** शहरी क्षेत्रों में पानी की प्रति व्यक्ति खपत अधिक होती है, और पानी की आपूर्ति के लिए बड़े पैमाने पर भूजल का दोहन किया जाता है।
- **जल का अत्यधिक दोहन (Over-exploitation of Water):** कुछ क्षेत्रों में भूजल का इतना अधिक उपयोग किया जाता है कि भूजल स्तर लगातार गिर रहा है।
- **जलवायु परिवर्तन (Climate Change):** वर्षा के पैटर्न में बदलाव, सूखे और बाढ़ की आवृत्ति में वृद्धि जल उपलब्धता को प्रभावित करती है।
2. बहुउद्देशीय नदी परियोजनाएँ और एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (Multi-Purpose River Projects and Integrated Water Resource Management)
- आधुनिक भारत में, बांधों को 'विकास के मंदिर' के रूप में देखा जाता था, जैसा कि जवाहरलाल नेहरू ने कहा था।
- **बांध (Dams):** बहते पानी को रोकने, जलाशय बनाने या नदी के बहाव को नियंत्रित करने के लिए बनाई गई बाधाएँ।
बहुउद्देशीय परियोजनाओं के उद्देश्य (Objectives of Multi-Purpose Projects)
- बिजली उत्पादन (Hydropower generation)
- सिंचाई (Irrigation)
- जल आपूर्ति (घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए)
- बाढ़ नियंत्रण (Flood control)
- मछली पालन (Fish breeding)
- आंतरिक नौपरिवहन (Inland navigation)
- मनोरंजन (Recreation)
बहुउद्देशीय परियोजनाओं के लाभ (Benefits of Multi-Purpose Projects)
- कृषि उत्पादन में वृद्धि, जिससे खाद्य सुरक्षा में सुधार।
- औद्योगिक और घरेलू जरूरतों के लिए पानी की आपूर्ति।
- बाढ़ से सुरक्षा।
- हाइड्रोइलेक्ट्रिक ऊर्जा का उत्पादन, जो स्वच्छ ऊर्जा है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का सृजन।
बहुउद्देशीय परियोजनाओं की हानियाँ और आलोचनाएँ (Disadvantages and Criticisms of Multi-Purpose Projects)
- **नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में बाधा:** बांध नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित करते हैं, जिससे तलछट का बहाव कम हो जाता है और जलाशय के तल में तलछट जमा हो जाती है।
- **वनस्पति और वन्यजीव पर प्रभाव:** वनस्पति और कृषि भूमि के जलमग्न होने से जैव विविधता को नुकसान होता है।
- **स्थानीय समुदायों का विस्थापन:** बांध निर्माण से बड़ी संख्या में स्थानीय लोगों (आदिवासियों, किसानों) को विस्थापित होना पड़ता है, जिन्हें अक्सर पर्याप्त मुआवजा या पुनर्वास नहीं मिलता।
- **अंतर-राज्यीय जल विवाद (Inter-State Water Disputes):** नदी परियोजनाओं के जल बँटवारे को लेकर राज्यों के बीच अक्सर विवाद होते हैं (जैसे कावेरी जल विवाद)।
- **तलछट जमाव:** तलछट के जमाव से जलाशय का जीवनकाल कम होता है, और बाढ़ नियंत्रण की क्षमता घटती है।
- **भूकंपीय गतिविधियाँ:** बड़े बांधों के कारण कुछ क्षेत्रों में भूकंपीय गतिविधियों में वृद्धि हो सकती है।
- **जल-जनित बीमारियाँ और कीट:** रुके हुए पानी से जल-जनित बीमारियों और कीटों का प्रसार हो सकता है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन और टेहरी बांध आंदोलन जैसे आंदोलनों ने इन परियोजनाओं के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों पर सवाल उठाए हैं।
---3. वर्षा जल संचयन (Rainwater Harvesting)
- वर्षा जल संचयन एक लागत प्रभावी और पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ तरीका है जिससे पानी की कमी को दूर किया जा सकता है।
- यह सतह पर गिरने वाले वर्षा जल को एकत्र करने और भूजल को रिचार्ज करने का एक तरीका है।
प्राचीन भारत में जल प्रबंधन की पारंपरिक विधियाँ (Traditional Water Harvesting Methods in Ancient India)
- **छत वर्षा जल संचयन (Rooftop Rainwater Harvesting):** विशेषकर शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में।
- **राजस्थान में:** घरों की छतों से वर्षा जल को भूमिगत टैंकों (टांका) में एकत्र किया जाता था।
- टांके पीने के पानी का एक विश्वसनीय स्रोत थे, खासकर शुष्क मौसम में।
- कुछ घरों में टांके कमरों का हिस्सा होते थे, जिससे कमरे ठंडे रहते थे।
- पाली (Pali) जैसी जगहों पर वर्षा जल को 'पालर पानी' कहा जाता था, जिसे शुद्ध माना जाता था।
- **राजस्थान में:** घरों की छतों से वर्षा जल को भूमिगत टैंकों (टांका) में एकत्र किया जाता था।
- **गुल्म या छत जल संचयन (Guls or Kuls):** पश्चिमी हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों में, पश्चिमी हिमालय में सिंचाई के लिए 'गुल्म' या 'कुल्स' (नदियाँ) नामक नहरों का उपयोग किया जाता था।
- **बाढ़ जल चैनल (Inundation Channels):** बंगाल में बाढ़ के मैदानों में लोगों ने बाढ़ के पानी को खेतों में सिंचाई के लिए मोड़ने के लिए 'बाढ़ जल चैनल' विकसित किए।
- **खादीन और जौहड़ (Khadins and Johads):** राजस्थान के जैसलमेर में 'खादीन' प्रणाली का उपयोग किया जाता था, जिसमें कृषि क्षेत्रों के चारों ओर एक तटबंध बनाया जाता था, और वर्षा जल को एकत्र करके मिट्टी की नमी को बनाए रखा जाता था। 'जौहड़' (Johads) राजस्थान में छोटे तालाब होते थे।
- **बाँस ड्रिप सिंचाई प्रणाली (Bamboo Drip Irrigation System):** मेघालय में 200 साल पुरानी यह प्रणाली नदियों और झरनों के पानी को बाँस के पाइपों का उपयोग करके लगभग 18-20 लीटर प्रति मिनट की दर से पौधों तक पहुँचाती है।
- पानी को बाँस के पाइपों के माध्यम से लंबी दूरी तक ले जाया जाता है और फिर पौधों की जड़ों तक बूँद-बूँद करके पहुँचाया जाता है।
वर्षा जल संचयन का महत्व (Importance of Rainwater Harvesting)
- भूजल स्तर को बढ़ाता है।
- जल की उपलब्धता को बढ़ाता है, खासकर शुष्क क्षेत्रों में।
- शहरी बाढ़ को कम करता है।
- पानी की गुणवत्ता में सुधार करता है।
- सरकार पर पानी की आपूर्ति का बोझ कम करता है।
पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)
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निम्नलिखित में से कौन सा वक्तव्य बहुउद्देशीय नदी परियोजनाओं के पक्ष में दिया गया तर्क नहीं है?
(क) ये जल-विद्युत पैदा करती हैं।
(ख) ये उन क्षेत्रों में जल लाती हैं जहाँ जल की कमी होती है।
(ग) ये जल बहाव को नियंत्रित करके बाढ़ को नियंत्रित करती हैं।
(घ) इनसे बड़े पैमाने पर विस्थापन होता है और आजीविका छिन जाती है।(घ) इनसे बड़े पैमाने पर विस्थापन होता है और आजीविका छिन जाती है।
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निम्नलिखित में से किस नदी पर सरदार सरोवर बांध बनाया गया है?
(क) गंगा नदी
(ख) नर्मदा नदी
(ग) कृष्णा नदी
(घ) सतलुज-व्यास(ख) नर्मदा नदी
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दें (Answer the following questions in about 30 words)
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जल दुर्लभता क्या है और इसके मुख्य कारण क्या हैं?
जल दुर्लभता का अर्थ है पानी की कमी या अपर्याप्त उपलब्धता। इसके मुख्य कारण हैं बढ़ती जनसंख्या, सिंचाई के लिए पानी की बढ़ती माँग, औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और जल प्रदूषण।
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बहुउद्देशीय परियोजनाओं से होने वाले लाभ और हानियों की तुलना करें।
बहुउद्देशीय परियोजनाओं से लाभ (जैसे बिजली उत्पादन, सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण) होते हैं, लेकिन हानियाँ भी हैं, जैसे नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में बाधा, स्थानीय समुदायों का विस्थापन, जैव विविधता को नुकसान और अंतर-राज्यीय जल विवाद।
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 120 शब्दों में दें (Answer the following questions in about 120 words)
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राजस्थान के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन किस प्रकार किया जाता है? व्याख्या करें।
राजस्थान के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में पानी की कमी एक गंभीर समस्या रही है, इसलिए यहाँ वर्षा जल संचयन की कई पारंपरिक प्रणालियाँ विकसित की गई हैं।
- **टांका (Tanka):** यह छत वर्षा जल संचयन का एक महत्वपूर्ण तरीका है। घरों की छतों से गिरने वाले वर्षा जल को पाइपों के माध्यम से भूमिगत टैंकों (टांका) में एकत्र किया जाता था। ये टांके अक्सर घर के आँगन या मुख्य भवन के नीचे बनाए जाते थे और इन्हें सीमेंट या ईंटों से प्लास्टर किया जाता था।
- **जल भंडारण:** पहला वर्षा जल जिसे 'पालर पानी' कहा जाता था, उसे टांके में संग्रहीत किया जाता था। यह पानी पीने के लिए सबसे शुद्ध और विश्वसनीय स्रोत माना जाता था, खासकर गर्मियों के महीनों में जब अन्य जल स्रोत सूख जाते थे।
- **तापमान नियंत्रण:** कुछ घरों में टांके कमरों का हिस्सा होते थे, जिससे कमरे भी ठंडे रहते थे, जो गर्म रेगिस्तानी जलवायु में एक अतिरिक्त लाभ था।
- **खादीन (Khadin):** जैसलमेर में खादीन एक और पारंपरिक जल संचयन विधि है। इसमें कृषि क्षेत्रों के चारों ओर एक लंबा मिट्टी का तटबंध बनाया जाता था। जब बारिश होती थी, तो पानी इस निचले खादीन क्षेत्र में भर जाता था। पानी के सूखने के बाद, इस नम भूमि पर फसलें उगाई जाती थीं। इससे मिट्टी की नमी बनी रहती थी और कम पानी में भी खेती संभव हो पाती थी।
- **जौहड़ (Johads):** राजस्थान के कई हिस्सों में छोटे-छोटे तालाब या 'जौहड़' बनाए जाते थे, जो वर्षा जल को एकत्र करते थे और भूजल स्तर को रिचार्ज करने में मदद करते थे।
ये प्रणालियाँ न केवल पानी की कमी को पूरा करती थीं, बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल थीं और समुदायों द्वारा सदियों से सफलतापूर्वक उपयोग की जा रही थीं। -
परंपरागत वर्षा जल संचयन की प्रणालियों पर चर्चा करें। आधुनिक बहुउद्देशीय परियोजनाओं की तुलना में ये कैसे श्रेष्ठ हैं?
**परंपरागत वर्षा जल संचयन प्रणालियाँ:** भारत में, विशेषकर शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में, सदियों से वर्षा जल संचयन की कई प्रभावी पारंपरिक प्रणालियाँ प्रचलित रही हैं। इनमें शामिल हैं:
- **छत वर्षा जल संचयन (जैसे राजस्थान में 'टांका'):** घरों की छतों से पानी एकत्र कर भूमिगत टैंकों में जमा करना।
- **बाढ़ जल चैनल (जैसे बंगाल के मैदानों में):** बाढ़ के पानी को मोड़कर सिंचाई के लिए उपयोग करना।
- **गुल्म/कुल्स (पश्चिमी हिमालय में):** पहाड़ी झरनों से पानी को खेतों तक पहुँचाने के लिए छोटी नहरें।
- **खादीन/जौहड़ (राजस्थान):** कृषि भूमि या छोटे तालाबों में वर्षा जल को एकत्र कर मिट्टी की नमी बनाए रखना या भूजल रिचार्ज करना।
- **बाँस ड्रिप सिंचाई प्रणाली (मेघालय):** बाँस के पाइपों का उपयोग करके पौधों तक पानी पहुँचाना।
**आधुनिक बहुउद्देशीय परियोजनाओं की तुलना में श्रेष्ठता:** पारंपरिक प्रणालियाँ कई मायनों में आधुनिक बहुउद्देशीय परियोजनाओं से श्रेष्ठ मानी जाती हैं:- **पर्यावरण के अनुकूल:**
- **कम पर्यावरणीय प्रभाव:** पारंपरिक प्रणालियाँ स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र में कम हस्तक्षेप करती हैं। वे नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को नहीं रोकतीं, जिससे तलछट का बहाव और नदी का पारिस्थितिकी तंत्र बरकरार रहता है।
- **जैव विविधता का संरक्षण:** इनमें बड़े पैमाने पर वनस्पति या वन्यजीवों का विनाश नहीं होता और न ही बड़े क्षेत्रों में जलमग्नता होती है।
- **सामाजिक-आर्थिक लाभ:**
- **कम विस्थापन:** पारंपरिक प्रणालियों में बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन नहीं होता, जैसा कि बड़े बांधों के निर्माण में होता है। स्थानीय समुदाय अपनी आजीविका और सामाजिक संरचना को बनाए रख पाते हैं।
- **सामुदायिक भागीदारी:** ये प्रणालियाँ अक्सर स्थानीय समुदायों द्वारा ही विकसित और प्रबंधित की जाती हैं, जिससे उनमें स्वामित्व की भावना और सहभागिता बढ़ती है।
- **लागत प्रभावी और कम रखरखाव:** ये निर्माण में सस्ती होती हैं और इनके रखरखाव में भी कम खर्च आता है, जो स्थानीय लोगों के लिए वहनीय होता है।
- **जल विवादों का अभाव:** चूंकि ये स्थानीय स्तर पर कार्य करती हैं, इसलिए अंतर-राज्यीय जल विवादों की संभावना नहीं होती।
- **लचीलापन और अनुकूलनशीलता:**
- ये प्रणालियाँ स्थानीय भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियों के लिए अत्यधिक अनुकूल होती हैं।
- सूखे जैसी स्थिति में भी ये कुछ हद तक पानी की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकती हैं, क्योंकि ये भूजल रिचार्ज पर जोर देती हैं।
- **विकेन्द्रीकृत समाधान:** ये जल प्रबंधन के लिए एक विकेन्द्रीकृत दृष्टिकोण प्रदान करती हैं, जिससे जल सुरक्षा में आत्मनिर्भरता बढ़ती है और किसी एक बड़े बुनियादी ढाँचे पर निर्भरता कम होती है।
हालांकि, आधुनिक परियोजनाओं के अपने लाभ हैं (जैसे बड़े पैमाने पर ऊर्जा और सिंचाई), लेकिन पारंपरिक प्रणालियाँ टिकाऊ, समावेशी और पर्यावरणीय रूप से कम हानिकारक जल प्रबंधन समाधान प्रदान करती हैं, जो विशेषकर स्थानीय जरूरतों के लिए अधिक उपयुक्त हैं।
(ब्राउज़र के प्रिंट-टू-पीडीएफ फ़ंक्शन का उपयोग करता है। प्रकटन भिन्न हो सकता है।)