अध्याय 4: जाति, धर्म और लैंगिक मसले (Gender, Religion and Caste)

परिचय

कक्षा 10 नागरिक शास्त्र का चौथा अध्याय **'जाति, धर्म और लैंगिक मसले'** सामाजिक विभाजनों के उन रूपों पर केंद्रित है जो अक्सर राजनीति में अभिव्यक्त होते हैं। यह अध्याय लैंगिक असमानता, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा और भारत में जाति व्यवस्था के प्रभाव की पड़ताल करता है, साथ ही यह भी बताता है कि ये विभाजन लोकतंत्र में कैसे चुनौतियाँ और अवसर पैदा करते हैं।

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1. लैंगिक मसले (Gender and Politics)

लैंगिक विभाजन, सामाजिक विभाजन का एक रूप है जो पुरुष और महिला की जैविक संरचना के आधार पर नहीं, बल्कि समाज द्वारा उन्हें दी गई भूमिकाओं और अपेक्षाओं के आधार पर होता है। यह विभाजन हर जगह पाया जाता है लेकिन इसकी अभिव्यक्ति राजनीतिक रूप से अलग-अलग हो सकती है।

1.1. सार्वजनिक/निजी का विभाजन (Public/Private Division)

1.2. नारीवादी आंदोलन (Feminist Movements)

1.3. राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व (Women's Political Representation)

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2. धर्म और राजनीति (Religion and Politics)

धर्म एक सामाजिक विभाजन का एक और महत्वपूर्ण स्रोत हो सकता है, खासकर जब यह राजनीति में व्यक्त होता है।

2.1. सांप्रदायिकता (Communalism)

2.2. सांप्रदायिकता के रूप (Forms of Communalism)

2.3. धर्मनिरपेक्ष राज्य (Secular State)

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3. जाति और राजनीति (Caste and Politics)

जाति व्यवस्था भारत में सामाजिक विभाजन का सबसे अनोखा और शक्तिशाली रूप है।

3.1. जाति व्यवस्था की प्रकृति (Nature of Caste System)

3.2. जाति और आर्थिक स्थिति (Caste and Economic Status)

3.3. राजनीति में जाति (Caste in Politics)

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4. राजनीति और सामाजिक विभाजन (Politics and Social Divisions)

लोकतंत्र में सामाजिक विभाजन अक्सर राजनीति में अभिव्यक्त होते हैं। यह स्वाभाविक है और हमेशा हानिकारक नहीं होता।

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर

अभ्यास के प्रश्न

  1. लैंगिक विभाजन क्या है? भारतीय राजनीति में इसकी अभिव्यक्ति कैसे होती है?

    **लैंगिक विभाजन (Gender Division):** लैंगिक विभाजन से तात्पर्य समाज में पुरुषों और महिलाओं के बीच भूमिकाओं, अपेक्षाओं और अधिकारों के आधार पर असमानता से है। यह पुरुषों और महिलाओं की जैविक संरचना के कारण नहीं, बल्कि समाज द्वारा उन्हें सौंपी गई सामाजिक भूमिकाओं और जिम्मेदारियों के कारण उत्पन्न होता है। यह विभाजन हर समाज में किसी न किसी रूप में पाया जाता है।

    **भारतीय राजनीति में इसकी अभिव्यक्ति:**

    1. **राजनीतिक प्रतिनिधित्व में कमी:** भारत में महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व पुरुषों की तुलना में बहुत कम है। लोकसभा में महिला सांसदों का प्रतिशत लगभग 15% से भी कम है, और राज्य विधानसभाओं में यह और भी कम है। यह इस बात का संकेत है कि राजनीति को अभी भी एक पुरुष प्रधान क्षेत्र माना जाता है।
    2. **सार्वजनिक/निजी का विभाजन:** समाज में काम का विभाजन अभी भी महिलाओं को निजी या घरेलू क्षेत्र तक सीमित रखता है, जबकि पुरुषों को सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय रहने की अपेक्षा की जाती है। यह धारणा महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को भी प्रभावित करती है।
    3. **नारीवादी आंदोलन और मांगें:** भारत में भी नारीवादी आंदोलनों ने महिलाओं के समान अधिकारों, विशेषकर राजनीतिक भागीदारी के लिए आवाज उठाई है। इन आंदोलनों ने लैंगिक समानता और महिलाओं के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग की है।
    4. **स्थानीय निकायों में आरक्षण:** लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए, भारत में स्थानीय स्वशासन निकायों (पंचायतों और नगर पालिकाओं) में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों का संवैधानिक रूप से आरक्षण किया गया है। इसने स्थानीय स्तर पर महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि की है, जिससे लगभग 10 लाख से अधिक महिलाएँ निर्वाचित हुई हैं।
    5. **संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की मांग:** महिलाओं के लिए संसद और राज्य विधानसभाओं में भी एक तिहाई सीटों के आरक्षण के लिए एक विधेयक (महिला आरक्षण विधेयक) कई दशकों से लंबित है, जो लैंगिक समानता की दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम होगा।
    6. **राजनीतिक दलों का दृष्टिकोण:** अधिकांश राजनीतिक दल अभी भी महिलाओं को पर्याप्त टिकट देने में हिचकिचाते हैं, यह मानते हुए कि वे चुनाव जीतने में सक्षम नहीं होंगी, जो एक पितृसत्तात्मक मानसिकता को दर्शाता है।
    संक्षेप में, लैंगिक विभाजन भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमा चुका है और यह राजनीति में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व, उनकी राजनीतिक भूमिकाओं पर रूढ़िवादी विचारों और उनके लिए समान अवसरों की निरंतर मांग के रूप में अभिव्यक्त होता है।

  2. सांप्रदायिकता क्या है? यह लोकतंत्र के लिए कैसे खतरा है?

    **सांप्रदायिकता (Communalism):** सांप्रदायिकता एक ऐसी विचारधारा या स्थिति है जिसमें एक विशेष धर्म के अनुयायी अपने धार्मिक हितों को अन्य धर्मों के हितों से श्रेष्ठ या प्राथमिक मानते हैं। यह इस विश्वास पर आधारित है कि एक धर्म के लोग एक समुदाय बनाते हैं और उनके मौलिक हित समान होते हैं, जबकि दूसरे धर्म के लोगों के हित अलग या विरोधी होते हैं। यह अक्सर एक धार्मिक समूह को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देता है।

    **यह लोकतंत्र के लिए खतरा कैसे है:**

    1. **राष्ट्र की एकता को खतरा:** सांप्रदायिकता देश को धार्मिक आधार पर विभाजित करती है। यह विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच अविश्वास और शत्रुता पैदा करती है, जिससे राष्ट्रीय एकता और अखंडता को खतरा होता है। यह राष्ट्रीय पहचान से ऊपर धार्मिक पहचान को प्राथमिकता देती है।
    2. **हिंसा और दंगे:** सांप्रदायिकता अक्सर सांप्रदायिक हिंसा, दंगे और नरसंहार को जन्म देती है, जैसा कि भारत में कई बार देखा गया है। ये हिंसक घटनाएँ न केवल जान-माल का नुकसान करती हैं, बल्कि समाज में स्थायी कटुता और विभाजन पैदा करती हैं।
    3. **लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास:** लोकतंत्र समानता, न्याय और समावेशिता के सिद्धांतों पर आधारित है। सांप्रदायिकता इन मूल्यों का खंडन करती है क्योंकि यह एक धर्म को दूसरे से श्रेष्ठ मानती है और भेदभाव को बढ़ावा देती है। यह बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा दे सकती है, जहाँ बहुमत के धार्मिक समूह के हितों को अल्पसंख्यकों पर थोपा जाता है।
    4. **वोट बैंक की राजनीति:** राजनीतिक दल अक्सर सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काकर वोट बटोरने की कोशिश करते हैं। वे धार्मिक आधार पर लोगों को गोलबंद करते हैं, जिससे राजनीतिक प्रक्रिया का ध्रुवीकरण होता है और वास्तविक विकास के मुद्दों से ध्यान हट जाता है।
    5. **धर्मनिरपेक्षता पर हमला:** सांप्रदायिकता धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के ठीक विपरीत है, जो भारत के संविधान का एक मूल स्तंभ है। यह राज्य और धर्म को अलग करने की अवधारणा को चुनौती देती है और एक धर्म-आधारित राज्य की स्थापना की दिशा में धकेल सकती है।
    6. **न्याय और समानता में बाधा:** सांप्रदायिकता समाज के कुछ वर्गों, विशेषकर अल्पसंख्यकों और निचली जातियों के लिए अन्याय और असमानता पैदा करती है, क्योंकि उनके अधिकारों और हितों को नजरअंदाज किया जा सकता है।
    अतः, सांप्रदायिकता लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरा है क्योंकि यह सामाजिक सौहार्द को नष्ट करती है, हिंसा को बढ़ावा देती है, लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करती है और अंततः राष्ट्र को खंडित कर सकती है।

  3. धर्मनिरपेक्ष राज्य से क्या अभिप्राय है? भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता के क्या प्रावधान हैं?

    **धर्मनिरपेक्ष राज्य (Secular State):** धर्मनिरपेक्ष राज्य वह होता है जहाँ राज्य का अपना कोई आधिकारिक धर्म नहीं होता और वह सभी धर्मों के प्रति तटस्थता और समानता का व्यवहार करता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य नागरिकों के धार्मिक विश्वास या गैर-विश्वास के आधार पर उनके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करता।

    **भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता के प्रावधान:** भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता को अपने मूल सिद्धांतों में से एक मानता है। 42वें संवैधानिक संशोधन (1976) द्वारा प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द जोड़ा गया, लेकिन धर्मनिरपेक्षता की भावना मूल संविधान में ही निहित थी।

    भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं:

    1. **कोई आधिकारिक धर्म नहीं:** भारत का कोई राष्ट्रीय या आधिकारिक धर्म नहीं है। राज्य किसी विशेष धर्म को बढ़ावा नहीं देता है। यह अन्य देशों (जैसे पाकिस्तान, श्रीलंका, इंग्लैंड) के विपरीत है जिनका अपना आधिकारिक धर्म है।
    2. **धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार:** संविधान सभी नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है (अनुच्छेद 25)। इसका अर्थ है कि व्यक्ति अपनी पसंद का धर्म चुनने और उसका पालन करने के लिए स्वतंत्र है।
    3. **धर्म के आधार पर भेदभाव का निषेध:** संविधान धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को प्रतिबंधित करता है (अनुच्छेद 15)। राज्य रोजगार के मामलों में भी धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता (अनुच्छेद 16)।
    4. **धार्मिक मामलों में राज्य का हस्तक्षेप:** संविधान राज्य को धार्मिक मामलों में कुछ हद तक हस्तक्षेप करने की अनुमति देता है, लेकिन केवल समानता, न्याय और सामाजिक सुधार सुनिश्चित करने के उद्देश्य से। उदाहरण के लिए, इसने 'अस्पृश्यता' (अनुच्छेद 17) को समाप्त कर दिया और सभी जातियों के हिंदुओं के लिए मंदिरों को खोल दिया। यह बहुविवाह जैसी कुछ धार्मिक प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाने में भी सक्षम है।
    5. **शैक्षिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा का निषेध:** राज्य द्वारा संचालित या राज्य सहायता प्राप्त किसी भी शैक्षणिक संस्थान में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी (अनुच्छेद 28)।
    6. **धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार:** संविधान धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति और शिक्षा को संरक्षित करने का अधिकार देता है। वे अपने स्वयं के शैक्षिक संस्थान स्थापित और प्रबंधित कर सकते हैं (अनुच्छेद 29 और 30)।
    7. **धार्मिक स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध:** धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार असीमित नहीं है। राज्य सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के हित में धार्मिक प्रथाओं पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है।
    ये प्रावधान सुनिश्चित करते हैं कि भारतीय राज्य सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान रखता है और किसी विशेष धर्म का पक्ष नहीं लेता है। यह भारत की विविधता को समायोजित करने और सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए आवश्यक है।

  4. जाति भारतीय राजनीति में कैसे भूमिका निभाती है? इसके सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा करें।

    जाति व्यवस्था भारत में सामाजिक विभाजन का एक अनूठा और गहरा रूप है, और यह भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

    **भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका:**

    1. **चुनावों में उम्मीदवारों का चयन:** राजनीतिक दल अक्सर चुनावों में उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हैं। वे अक्सर ऐसे व्यक्ति को टिकट देते हैं जो उस निर्वाचन क्षेत्र में अपनी जाति के मतदाताओं का समर्थन जुटा सके।
    2. **जातिगत लामबंदी (Mobilisation):** राजनीतिक दल चुनावों के दौरान समर्थन जुटाने के लिए जातिगत भावनाओं को भड़काते हैं। वे मतदाताओं से अपील करते हैं कि वे अपनी जाति के उम्मीदवार या उस दल को वोट दें जो उनकी जाति का प्रतिनिधित्व करता है।
    3. **जाति समूहों का प्रतिनिधित्व:** कई राजनीतिक दल विशेष रूप से कुछ जाति समूहों (जैसे दलितों, अन्य पिछड़ा वर्गों - OBCs) के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए बनाए गए हैं या उनसे जुड़े हैं। ये दल इन समूहों के मुद्दों को उठाते हैं और उनके अधिकारों की मांग करते हैं।
    4. **मतदान पैटर्न:** हालांकि लोग कई कारकों (आर्थिक स्थिति, शिक्षा, राजनीतिक विचारधारा) के आधार पर वोट देते हैं, जाति अभी भी एक महत्वपूर्ण कारक बनी हुई है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में।
    5. **मंत्रिमंडलों का गठन:** सरकार गठन के बाद, विभिन्न जातियों को प्रतिनिधित्व देने के लिए मंत्रिमंडलों में भी जातिगत संतुलन का ध्यान रखा जाता है।

    **जाति की राजनीति के सकारात्मक प्रभाव:**
    1. **दलितों और OBCs का सशक्तिकरण:** जातिगत राजनीति ने दलितों और अन्य पिछड़ा वर्गों (OBCs) जैसे वंचित और निचली जातियों के लिए बेहतर प्रतिनिधित्व और शक्ति का मार्ग प्रशस्त किया है। इन समूहों ने अपनी राजनीतिक आवाज उठाई है और सत्ता में भागीदारी के माध्यम से अपने अधिकारों और हितों की मांग की है।
    2. **समानता को बढ़ावा:** जाति-आधारित राजनीति ने सरकारों को सामाजिक समानता और न्याय के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मजबूर किया है। इसने आरक्षण जैसी नीतियों को बढ़ावा दिया है, जिसका उद्देश्य ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना और दलितों व OBCs को मुख्यधारा में लाना है।
    3. **लोकतंत्र का विस्तार:** जातिगत लामबंदी ने बड़े पैमाने पर लोगों को राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल किया है, जो अन्यथा हाशिये पर रह सकते थे। इसने राजनीतिक भागीदारी का लोकतंत्रीकरण किया है।
    4. **सामाजिक जागरूकता:** इसने जाति-आधारित भेदभाव और असमानता के बारे में समाज में जागरूकता बढ़ाई है, जिससे सामाजिक सुधारों के लिए दबाव बनता है।

    **जाति की राजनीति के नकारात्मक प्रभाव:**
    1. **जातिगत विभाजन को मजबूत करना:** जाति-आधारित राजनीति जातिगत पहचान को मजबूत करती है और समाज को विभाजित करती है, जिससे सामाजिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकता कमजोर होती है। यह 'हम' बनाम 'वे' की भावना को बढ़ावा देती है।
    2. **विकास के मुद्दों से भटकाव:** जब राजनीति जाति पर केंद्रित हो जाती है, तो यह शासन के वास्तविक मुद्दों जैसे गरीबी, विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य से ध्यान हटा देती है। दल केवल जातिगत लाभ के लिए काम करते हैं न कि व्यापक जनहित के लिए।
    3. **हिंसा और संघर्ष:** जातिगत प्रतिद्वंद्विता कभी-कभी हिंसा और सामाजिक संघर्ष का कारण बन सकती है, खासकर चुनावों के दौरान या जब विभिन्न जाति समूह सत्ता के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं।
    4. **योग्यता और मेरिट की अनदेखी:** जाति पर अत्यधिक जोर देने से योग्यता और दक्षता की अनदेखी हो सकती है, क्योंकि उम्मीदवारों का चयन उनकी जाति के आधार पर किया जाता है न कि उनकी क्षमताओं के आधार पर।
    5. **अल्पसंख्यक जातियों की उपेक्षा:** कुछ बड़ी जातियों के प्रभुत्व के कारण छोटी या अल्पसंख्यक जातियों के हितों की अक्सर उपेक्षा होती है।
    निष्कर्ष में, जबकि जातिगत राजनीति ने वंचित समूहों को सशक्त करने में मदद की है, इसके नकारात्मक प्रभाव भी हैं जो सामाजिक एकता और सुशासन के लिए चुनौतियाँ पैदा करते हैं। एक परिपक्व लोकतंत्र में, समाज को जाति के विभाजन से ऊपर उठकर साझा हितों और राष्ट्रीय विकास पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

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