अध्याय 9: सूक्तयः (सुक्तियाँ)
परिचय
प्रस्तुत पाठ 'सूक्तयः' संस्कृत के विभिन्न ग्रंथों से संकलित की गई सुंदर उक्तियों (सूक्तियों) का संग्रह है। ये सूक्तियाँ गागर में सागर भरने का काम करती हैं, अर्थात् कम शब्दों में गहरे और महत्वपूर्ण जीवन मूल्यों को व्यक्त करती हैं। ये हमें सद्गुणों को अपनाने, बुराइयों से बचने और एक सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं। इस पाठ में जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे त्याग, परिश्रम, सच्चाई, और ज्ञान का महत्व दर्शाया गया है।
सूक्तियाँ भारतीय संस्कृति और दर्शन का अभिन्न अंग हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान का संचार करती रही हैं।
---सूक्तयः (Sayings)
1. पितुरार्पितं गुरुणा दत्तमप्ययं,
संसारे हि सर्वं सुखम् चरिते विद्यमानम्।।
**अर्थ:** पिता के द्वारा अर्पित किया गया (धैर्य), गुरु के द्वारा दिया गया ज्ञान, इस संसार में सभी सुख चरित्र में ही विद्यमान हैं। (यह सूक्ति व्यवहार और चरित्र के महत्व पर बल देती है।)
2. सतां हि सङ्गतिः श्रेयो
येषां न दोषो मनसि प्रविष्टः।।
**अर्थ:** सज्जनों की संगति निश्चय ही श्रेष्ठ होती है, जिनके मन में कोई दोष प्रवेश नहीं करता। (सत्संगति के महत्व पर जोर दिया गया है।)
3. सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्
न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयाद्
एष धर्मः सनातनः।।
**अर्थ:** सच बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए। अप्रिय लगने वाला सच नहीं बोलना चाहिए। और प्रिय लगने वाला झूठ भी नहीं बोलना चाहिए। यही सनातन धर्म है। (वाणी के संयम और विवेकपूर्ण उपयोग का उपदेश।)
4. दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं
धैर्यमुचितज्ञता।
अभ्यासेन न लभ्यन्ते
चत्वारः सहजा गुणाः।।
**अर्थ:** दानशीलता, मधुर वाणी, धैर्य और उचित समय को जानने की क्षमता - ये चार गुण अभ्यास से प्राप्त नहीं होते, अपितु स्वाभाविक होते हैं। (कुछ गुणों के स्वाभाविक होने पर प्रकाश डाला गया है।)
5. सन्तोषात् परमो लाभः
सत्संग्यात् परं सुखम्।
विचारात् परमो धर्मः
शास्त्रात् परं तपः।।
**अर्थ:** संतोष से बढ़कर कोई लाभ नहीं, सत्संगति से बढ़कर कोई सुख नहीं। विचार (ज्ञान) से बढ़कर कोई धर्म नहीं, और शास्त्र (का अध्ययन) से बढ़कर कोई तपस्या नहीं। (संतोष, सत्संग, ज्ञान और शास्त्र के महत्व को बताया गया है।)
6. सुखार्थिनः कुतो विद्या
कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी त्यजेद् विद्यां
विद्यार्थी त्यजेत् सुखम्।।
**अर्थ:** सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ, और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ। सुख चाहने वाला विद्या का त्याग करे, और विद्या चाहने वाला सुख का त्याग करे। (विद्या प्राप्ति के लिए त्याग और समर्पण की आवश्यकता पर बल।)
7. गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।
सुस्वादुतोयाः प्रवहन्ति नद्यः
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः।।
**अर्थ:** गुण गुणवानों में ही गुण होते हैं। वे निर्गुण (गुणहीन व्यक्ति) को प्राप्त करके दोष बन जाते हैं। जैसे स्वादिष्ट जल वाली नदियाँ बहती हैं, लेकिन समुद्र में मिलकर पीने योग्य नहीं रहतीं। (संगति का गुणों पर प्रभाव बताया गया है।)
8. लोभश्चेत् अविनाशी स्यात्
का चिंता सर्व एव गुणैः?
दुर्जनश्चेत् स्वगुणैः समम्
सज्जनोऽपि स्वदोषैः समम्।।
**अर्थ:** यदि लोभ अविनाशी (नष्ट न होने वाला) हो, तो सभी गुणों की क्या चिंता? (अर्थात, लोभ सबसे बड़ा दुर्गुण है, जो अन्य सभी गुणों को ढक देता है।) यदि दुर्जन अपने गुणों के समान है, तो सज्जन भी अपने दोषों के समान है। (इस श्लोक का भाव थोड़ा जटिल है और विभिन्न व्याख्याएं हो सकती हैं। सामान्यतः यह लोभ के त्याग और व्यक्ति के स्वाभाविक गुणों पर बल देता है।)
**पाठ्यपुस्तक में प्रचलित अर्थ के अनुसार इसका तात्पर्य हो सकता है:** यदि लोभ अविनाशी (मिटने वाला) न हो तो गुणों की क्या चिंता? (अर्थात, लोभ ही सबसे बड़ा दोष है।) यदि दुर्जन (अपने) दुर्गुणों के कारण (बुरा) है, तो सज्जन भी (अपने) गुणों के कारण (अच्छा) है।
शब्दार्थ (Word Meanings)
- पितुरार्पितं (piturārpitaṃ): पिता द्वारा अर्पित किया गया (धैर्य, संस्कार)
- गुरुणा (guruṇā): गुरु द्वारा
- दत्तम् (dattam): दिया गया
- अप्ययं (apyayaṃ): नाश रहित, या 'अपि अयम्' (भी यह)
- संसारे (saṃsāre): संसार में
- हि (hi): निश्चय ही
- सर्वं (sarvaṃ): सब
- सुखम् (sukham): सुख
- चरिते (carite): चरित्र में
- विद्यमानम् (vidyamānam): विद्यमान, उपस्थित
- सतां (satāṃ): सज्जनों की
- सङ्गतिः (saṅgatiḥ): संगति, साथ
- श्रेयो (śreyo): श्रेष्ठ, कल्याणकारी
- येषां (yeṣāṃ): जिनके
- न दोषो (na doṣo): कोई दोष नहीं
- मनसि (manasi): मन में
- प्रविष्टः (praviṣṭaḥ): प्रवेश किया हुआ
- सत्यं (satyaṃ): सच
- ब्रूयात् (brūyāt): बोलना चाहिए
- प्रियं (priyaṃ): प्रिय, मधुर
- न ब्रूयात् (na brūyāt): नहीं बोलना चाहिए
- अप्रियम् (apriyam): अप्रिय, कड़वा
- च (ca): और
- नानृतं (nānṛtaṃ): झूठ नहीं ('न अनृतं')
- एष (eṣa): यह
- धर्मः (dharmaḥ): धर्म
- सनातनः (sanātanaḥ): सनातन, शाश्वत
- दातृत्वं (dātṛtvaṃ): दानशीलता
- प्रियवक्तृत्वं (priyavaktṛtvaṃ): मधुर बोलने का गुण
- धैर्यमुचितज्ञता (dhairyamucitajñatā): धैर्य और उचित समय जानने की क्षमता
- अभ्यासेन (abhyāsena): अभ्यास से
- न लभ्यन्ते (na labhyante): प्राप्त नहीं होते
- चत्वारः (catvāraḥ): चार
- सहजा (sahajā): स्वाभाविक, जन्मजात
- गुणाः (guṇāḥ): गुण
- सन्तोषात् (santoṣāt): संतोष से
- परमो (paramo): परम, सबसे बड़ा
- लाभः (lābhaḥ): लाभ
- सत्संग्यात् (satsaṅgyāt): सत्संगति से
- परं (paraṃ): श्रेष्ठ, बढ़कर
- सुखम् (sukham): सुख
- विचारात् (vicārāt): विचार से, ज्ञान से
- धर्मः (dharmaḥ): धर्म
- शास्त्रात् (śāstrāt): शास्त्र से, शास्त्रों के अध्ययन से
- तपः (tapaḥ): तपस्या
- सुखार्थिनः (sukhārthinaḥ): सुख चाहने वाले को
- कुतो (kuto): कहाँ
- विद्यार्थिनः (vidyārthinaḥ): विद्या चाहने वाले को
- त्यजेद् (tyajed): त्याग देना चाहिए
- गुणा (guṇā): गुण
- गुणज्ञेषु (guṇajñeṣu): गुणवानों में
- भवन्ति (bhavanti): होते हैं
- ते (te): वे
- निर्गुणं (nirguṇaṃ): गुणहीन व्यक्ति को
- प्राप्य (prāpya): प्राप्त करके
- दोषाः (doṣāḥ): दोष
- सुस्वादुतोयाः (susvādutoyāḥ): स्वादिष्ट जल वाली
- प्रवहन्ति (pravahanti): बहती हैं
- नद्यः (nadyaḥ): नदियाँ
- समुद्रमासाद्य (samudramāsādya): समुद्र में मिलकर
- भवन्त्यपेयाः (bhavantyapeyāḥ): पीने योग्य नहीं रहतीं
- लोभश्चेत् (lobhaścet): यदि लोभ
- अविनाशी (avināśī): अविनाशी, जो नष्ट न हो
- स्यात् (syāt): हो
- का चिंता (kā cintā): क्या चिंता
- सर्व एव (sarva eva): सभी ही
- गुणैः (guṇaiḥ): गुणों से
- दुर्जनश्चेत् (durjanaścet): यदि दुर्जन
- स्वगुणैः (svaguṇaiḥ): अपने गुणों से (या दुर्गुणों से)
- समम् (samam): समान
- सज्जनोऽपि (sajjano'pi): सज्जन भी
- स्वदोषैः (svadoṣaiḥ): अपने दोषों से
अभ्यास प्रश्न (Exercise Questions)
1. एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दें):
-
सर्वं सुखं कुत्र विद्यमानम्?
चरिते
-
केषां सङ्गतिः श्रेयः?
सताम्
-
किं ब्रूयात् प्रियं न चानृतम्?
सत्यम्
-
सन्तोषात् परं किम्?
लाभः
-
सुखार्थी कां त्यजेत्?
विद्याम्
-
नद्यः समुद्रमासाद्य कीदृशीः भवन्ति?
अपेयाः
-
का चिंता सर्व एव गुणैः?
लोभश्चेत् अविनाशी स्यात्
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूर्ण वाक्य में उत्तर दें):
-
सतां संगतिः कथं श्रेयो भवति?
सतां संगतिः श्रेयो भवति यतो हि येषां मनसि दोषो न प्रविष्टः।
-
किं न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्?
अप्रियं सत्यं न ब्रूयात्।
-
चत्वारः सहजा गुणाः के सन्ति?
दातृत्वं, प्रियवक्तृत्वं, धैर्यमुचितज्ञता च एते चत्वारः सहजा गुणाः सन्ति।
-
सन्तोषात् परम् किं, सत्संग्यात् परं किम्, विचारात् परं किम्, शास्त्रात् परं किम्?
सन्तोषात् परमो लाभः, सत्संग्यात् परं सुखम्, विचारात् परमो धर्मः, शास्त्रात् परं तपः।
-
गुणः कदा दोषः भवति?
गुणाः निर्गुणं प्राप्य दोषाः भवन्ति।
-
विद्यार्थी किं त्यजेत्?
विद्यार्थी सुखं त्यजेत्।
3. श्लोकानुसारं रिक्तस्थानानि पूरयत (श्लोकों के अनुसार रिक्त स्थानों की पूर्ति करें):
- संसारे हि सर्वं सुखम् चरिते ____।
विद्यमानम्
- सतां हि ____ श्रेयो।
सङ्गतिः
- प्रियं च नानृतं ब्रूयाद् एष धर्मः ____।।
सनातनः
- अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः ____ गुणाः।।
सहजा
- सुखार्थिनः कुतो विद्या ____ विद्यार्थिनः सुखम्।
कुतो
- सुस्वादुतोयाः प्रवहन्ति ____ समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः।।
नद्यः
- दुर्जनश्चेत् स्वगुणैः समम् ____ स्वदोषैः समम्।।
सज्जनोऽपि
(ब्राउज़र के प्रिंट-टू-पीडीएफ़ फ़ंक्शन का उपयोग करता है। प्रकटन भिन्न हो सकता है।)