अध्याय 6: सुभाषितानि (सुंदर वचन)
परिचय
प्रस्तुत पाठ 'सुभाषितानि' अनेक नीतिग्रन्थों से संकलित किए गए दस श्लोकों का संग्रह है। इसमें परिश्रम का महत्व, क्रोध का हानिकारक प्रभाव, सज्जनों की मित्रता की विशेषता, सद्गुणों की आवश्यकता और प्रेरणादायक विचारों को सरल तथा रुचिकर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ये श्लोक छात्रों को जीवन में अच्छे मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं।
सुभाषितानि संस्कृत साहित्य की अनमोल धरोहर हैं, जो हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ज्ञान और मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
---श्लोकाः (Verses)
1. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
**अर्थ:** आलस्य ही मनुष्यों के शरीर में स्थित सबसे बड़ा शत्रु है। परिश्रम के समान कोई मित्र नहीं है, जिसे करके मनुष्य दुखी नहीं होता।
2. गुणो बन्धुस्ततो दूरे, विद्या मित्रं गृहेष्वपि।
व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च।।
**अर्थ:** गुण (सद्गुण) परदेश में मित्र होता है, विद्या घर में मित्र होती है। रोगी का मित्र औषधि है, और मरे हुए का मित्र धर्म होता है।
3. यथा हि एकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्।
एवं पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति।।
**अर्थ:** जैसे एक पहिए से रथ नहीं चल सकता, वैसे ही पुरुषार्थ (परिश्रम) के बिना भाग्य सफल नहीं होता।
4. क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणां,
देहस्थितो देहविनाशनाय।
यथा स्थितः काष्ठगतो हि वह्निः,
स एव वह्निर्दहते शरीरम्।।
**अर्थ:** मनुष्यों के शरीर में स्थित क्रोध ही शरीर को नष्ट करने वाला पहला शत्रु है। जैसे लकड़ी में स्थित आग (लकड़ी को ही) जला देती है, वैसे ही शरीर में स्थित क्रोध शरीर को जला देता है।
5. मृगा मृगैः सङ्गम् अनुव्रजन्ति,
गावश्च गोभिस्तुराङ्गास्तुरङ्गैः।
मूर्खाश्च मूर्खैः सुधियः सुधीभिः,
समानशीलव्यसनेषु सख्यम्।।
**अर्थ:** हिरण हिरणों के साथ चलते हैं, गायें गायों के साथ और घोड़े घोड़ों के साथ। मूर्ख मूर्खों के साथ और विद्वान विद्वानों के साथ। क्योंकि समान स्वभाव और व्यसन (आदतों) वालों में ही मित्रता होती है।
6. सेव्यो हि महावृक्षः फलच्छायासमन्वितः।
यदि दैवात् फलं नास्ति, छाया केन निवार्यते।।
**अर्थ:** बड़े वृक्ष की सेवा करनी चाहिए, जो फल और छाया से युक्त हो। यदि दुर्भाग्य से फल नहीं भी हों, तो भी उसकी छाया को कौन रोक सकता है? (अर्थात्, महान पुरुषों की संगति हमेशा लाभ देती है।)
7. अचिन्तितोऽपि सुखेषु दैवयोगेन गतः।
विपत्तिष्वपि नो नृणां, देहं नाप्यति संभ्रमो।।
**अर्थ:** बिना सोचे-समझे भी व्यक्ति भाग्य से सुख प्राप्त कर लेता है। परंतु विपत्ति में भी मनुष्यों का धैर्य (संभ्रम) नष्ट नहीं होता। (यह श्लोक थोड़ा भिन्न प्रतीत होता है, शायद कुछ पाठभेद हो सकता है। सामान्यतः यह धैर्य के महत्व पर होता है।)
8. विचित्रः खलु संसारे, न किंचिन्निरर्थकम्।
अश्वश्चेत् धावने वीरः, भारस्य वहने खरः।।
**अर्थ:** इस विचित्र संसार में कुछ भी निरर्थक नहीं है। यदि घोड़ा दौड़ने में वीर है, तो गधा भार ढोने में सक्षम है। (अर्थात्, हर किसी की अपनी विशेषता होती है।)
9. यः पश्यति दुरं ग्रामं, यो न पश्यति संनिधौ।
समः सर्वो हि जन्तूनां, तुल्यं तुल्यस्य दुर्लभम्।।
**अर्थ:** जो दूर के गाँव को देखता है और जो पास के गाँव को नहीं देखता, सभी प्राणियों के लिए समान ही है। (यह श्लोक भी थोड़ा भिन्न प्रतीत होता है, संभवतः पाठभेद या समझने में त्रुटि है। एक अधिक सामान्य श्लोक जो समानता पर है वह है: "तुल्ययोगः समानशीलेषु, न हीनमध्येषु तिष्ठति।")
**पाठ्यपुस्तक में प्रचलित अर्थ के अनुसार इसका तात्पर्य हो सकता है:** जो दूर की बात देखता है और जो पास की नहीं देखता, ऐसे सभी प्राणियों में समान गुण दुर्लभ है।
10. विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्।
विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता।
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः।।
**अर्थ:** विद्या मनुष्य का अतिरिक्त (सर्वश्रेष्ठ) रूप है, छिपा हुआ गुप्त धन है। विद्या भोगों को देने वाली, यश और सुख को देने वाली है। विद्या गुरुओं की भी गुरु है। विद्या विदेश जाने पर मित्र है, विद्या सबसे बड़ी देवता है। राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं। विद्याविहीन मनुष्य पशु के समान है।
शब्दार्थ (Word Meanings)
- आलस्यं (ālasyaṃ): आलस्य, सुस्ती
- हि (hi): निश्चय ही, क्योंकि
- मनुष्याणां (manuṣyāṇāṃ): मनुष्यों का
- शरीरस्थो (śarīrastho): शरीर में स्थित
- महान् (mahān): महान, बड़ा
- रिपुः (ripuḥ): शत्रु
- नास्त्युद्यमसमो (nāstyudyamasamo): उद्यम (परिश्रम) के समान नहीं है
- बन्धुः (bandhuḥ): मित्र
- कृत्वा (kṛtvā): करके
- यं (yaṃ): जिसको
- नावसीदति (nāvasīdati): दुखी नहीं होता
- गुणो (guṇo): गुण (सद्गुण)
- बन्धुस्ततो (bandhustato): मित्र वहाँ से
- दूरे (dūre): दूर (परदेश में)
- विद्या (vidyā): विद्या, ज्ञान
- मित्रं (mitraṃ): मित्र
- गृहेष्वपि (gṛheṣvapi): घर में भी
- व्याधितस्यौषधं (vyādhitasyauṣadhaṃ): रोगी का औषधि
- धर्मो (dharmo): धर्म
- मृतस्य (mṛtasya): मरे हुए का
- यथा हि (yathā hi): जैसे ही
- एकेन (ekena): एक से
- चक्रेण (cakreṇa): पहिए से
- रथस्य (rathasya): रथ का
- गतिर्भवेत् (gatirbhavet): गति होती है
- एवं (evaṃ): इसी प्रकार
- पुरुषकारेण (puruṣakāreṇa): पुरुषार्थ से, परिश्रम से
- विना (vinā): बिना
- दैवं (daivaṃ): भाग्य
- न सिध्यति (na sidhyati): सफल नहीं होता
- क्रोधो (krodho): क्रोध
- शत्रुः (śatruḥ): शत्रु
- प्रथमो (prathamo): पहला
- नराणां (narāṇāṃ): मनुष्यों का
- देहस्थितो (dehasthito): शरीर में स्थित
- देहविनाशनाय (dehavināśanāya): शरीर के विनाश के लिए
- यथा (yathā): जैसे
- स्थितः (sthitaḥ): स्थित
- काष्ठगतो (kāṣṭhagato): लकड़ी में स्थित
- वह्निः (vahniḥ): अग्नि, आग
- दहते (dahate): जलाता है
- शरीरम् (śarīram): शरीर को
- मृगा (mṛgā): हिरण
- मृगैः (mṛgaiḥ): हिरणों के साथ
- सङ्गम् (saṅgam): संगति, साथ
- अनुव्रजन्ति (anuvrajanti): अनुसरण करते हैं, चलते हैं
- गावश्च (gāvaśca): और गायें
- गोभिस्तुराङ्गास्तुरङ्गैः (gobhisturāṅgāsturaṅgaiḥ): गायों से, घोड़े घोड़ों से
- मूर्खाश्च (mūrkhāśca): और मूर्ख
- मूर्खैः (mūrkḥaiḥ): मूर्खों के साथ
- सुधियः (sudhiyaḥ): विद्वान, बुद्धिमान
- सुधीभिः (sudhībhiḥ): विद्वानों के साथ
- समानशीलव्यसनेषु (samānaśīlavyasaneṣu): समान स्वभाव और आदतों वालों में
- सख्यम् (sakhyam): मित्रता
- सेव्यो हि (sevyo hi): सेवा करनी चाहिए निश्चय ही
- महावृक्षः (mahāvṛkṣaḥ): बड़ा वृक्ष
- फलच्छायासमन्वितः (phalacchāyā samanvitaḥ): फल और छाया से युक्त
- यदि दैवात् (yadi daivāt): यदि दुर्भाग्य से
- फलं (phalaṃ): फल
- नास्ति (nāsti): नहीं है
- छाया (chāyā): छाया
- केन (kena): किसके द्वारा
- निवार्यते (nivāryate): रोका जाता है
- अचिन्तितोऽपि (acintito'pi): बिना सोचे भी
- सुखेषु (sukheṣu): सुखों में
- दैवयोगेन (daivayogena): भाग्य के योग से
- गतः (gataḥ): गया, प्राप्त हुआ
- विपत्तिष्वपि (vipattiṣvapi): विपत्तियों में भी
- नो नृणां (no nṛṇāṃ): मनुष्यों का नहीं
- देहं (dehaṃ): शरीर
- नाप्यति (nāpyati): प्राप्त नहीं होता
- संभ्रमो (saṃbhramo): भ्रम, धैर्य का नाश
- विचित्रः (vicitraḥ): विचित्र, अद्भुत
- खलु (khalu): निश्चय ही
- संसारे (saṃsāre): संसार में
- न किंचिन्निरर्थकम् (na kiṃcinnirarthakam): कुछ भी निरर्थक नहीं है
- अश्वश्चेत् (aśvaścet): यदि घोड़ा
- धावने (dhāvane): दौड़ने में
- वीरः (vīraḥ): वीर
- भारस्य (bhārasya): भार का
- वहने (vahane): ढोने में
- खरः (kharaḥ): गधा
- यः (yaḥ): जो
- पश्यति (paśyati): देखता है
- दुरं (duraṃ): दूर
- ग्रामं (grāmaṃ): गाँव को
- यो न पश्यति (yo na paśyati): जो नहीं देखता
- संनिधौ (saṃnidhau): पास में
- समः (samaḥ): समान
- सर्वो हि (sarvo hi): सभी निश्चय ही
- जन्तूनां (jantūnāṃ): प्राणियों का
- तुल्यं (tulyaṃ): समान
- तुल्यस्य (tulyasya): समान का
- दुर्लभम् (durlabham): दुर्लभ
- विद्या नाम (vidyā nāma): विद्या नाम की
- नरस्य (narasya): मनुष्य का
- रूपमधिकं (rūpamadhikaṃ): अधिक रूप (श्रेष्ठ रूप)
- प्रच्छन्नगुप्तं (pracchannaguptaṃ): छिपा हुआ गुप्त
- धनम् (dhanam): धन
- भोगकरी (bhogakarī): भोगों को देने वाली
- यशःसुखकरी (yaśaḥsukhakarī): यश और सुख को देने वाली
- गुरूणां (gurūṇāṃ): गुरुओं की
- गुरुः (guruḥ): गुरु
- बन्धुजनो (bandhujano): मित्र
- विदेशगमने (videśagamane): विदेश जाने पर
- परा (parā): सबसे बड़ी
- देवता (devatā): देवता
- राजसु (rājasu): राजाओं में
- पूज्यते (pūjyate): पूजी जाती है
- न हि धनं (na hi dhanaṃ): धन नहीं
- विद्याविहीनः (vidyāvihīnaḥ): विद्या से रहित
- पशुः (paśuḥ): पशु
अभ्यास प्रश्न (Exercise Questions)
1. एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दें):
-
मनुष्याणां महान् रिपुः कः?
आलस्यम्
-
गृहम् मित्रं का?
विद्या
-
कस्य गतिः एकेन चक्रेण न भवेत्?
रथस्य
-
शरीरस्थः प्रथमः शत्रुः कः?
क्रोधः
-
समानशीलव्यसनेषु किं भवति?
सख्यम्
-
किं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्?
विद्या
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूर्ण वाक्य में उत्तर दें):
-
मनुष्यः कं कृत्वा न अवसीदति?
मनुष्यः उद्यमं कृत्वा न अवसीदति।
-
व्याधितस्य मित्रं किम्?
व्याधितस्य मित्रं औषधम्।
-
पुरुषकारेण विना किं न सिध्यति?
पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति।
-
क्रोधः कथं देहं दहते?
क्रोधः यथा काष्ठगतो वह्निः देहं दहते।
-
महावृक्षः कीदृशः सेव्यः?
महावृक्षः फलच्छायासमन्वितः सेव्यः।
-
विदेशगमने का बन्धुजनः भवति?
विदेशगमने विद्या बन्धुजनः भवति।
-
संसारे किं निरर्थकम् न अस्ति?
संसारे किंचिदपि निरर्थकम् न अस्ति।
-
पशुः कः उच्यते?
विद्याविहीनः नरः पशुः उच्यते।
3. श्लोकानुसारं रिक्तस्थानानि पूरयत (श्लोकों के अनुसार रिक्त स्थानों की पूर्ति करें):
- आलस्यं हि मनुष्याणां ____ महान् रिपुः।
शरीरस्थो
- ____ बन्धुस्ततो दूरे, विद्या मित्रं गृहेष्वपि।
गुणो
- एवं पुरुषकारेण विना ____ न सिध्यति।
दैवं
- यथा स्थितः काष्ठगतो हि ____, स एव वह्निर्दहते शरीरम्।।
वह्निः
- ____ मूर्खैः सुधियः सुधीभिः।
मूर्खाश्च
- यदि दैवात् फलं नास्ति, ____ केन निवार्यते।।
छाया
- अश्वश्चेत् धावने वीरः, ____ वहने खरः।।
भारस्य
- विद्या राजसु पूज्यते न हि ____ विद्याविहीनः पशुः।।
धनं
(ब्राउज़र के प्रिंट-टू-पीडीएफ फ़ंक्शन का उपयोग करता है। प्रकटन भिन्न हो सकता है।)