अध्याय 9: राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

कवि: तुलसीदास

कवि परिचय

**गोस्वामी तुलसीदास** (जन्म: 1532, राजापुर, बाँदा, उत्तर प्रदेश; मृत्यु: 1623, वाराणसी) हिंदी साहित्य के **भक्तिकाल की सगुण काव्यधारा की रामभक्ति शाखा** के प्रमुख कवि थे। उन्हें भारतीय संस्कृति और समाज में एक महान लोकनायक और संत कवि के रूप में अत्यंत सम्मान प्राप्त है। उनकी कालजयी रचना **'रामचरितमानस'** (अवधी भाषा में रचित) हिंदू धर्म का एक अत्यंत पवित्र ग्रंथ है, जिसमें भगवान राम के जीवन और आदर्शों का विस्तृत वर्णन है। 'रामचरितमानस' के अतिरिक्त 'विनय पत्रिका', 'कवितावली', 'गीतावली', 'दोहावली', 'कृष्ण गीतावली' आदि उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' उनके 'रामचरितमानस' के बालकाण्ड का एक अंश है, जिसमें वीर रस और हास्य रस का अद्भुत समन्वय है।

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कविता का सार: 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद'

**'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद'** गोस्वामी तुलसीदास के महाकाव्य **'रामचरितमानस' के बालकाण्ड** से लिया गया एक अंश है। यह प्रसंग **सीता स्वयंवर** के दौरान घटित होता है, जब भगवान राम शिव धनुष तोड़ देते हैं। शिव धनुष के भंग होने की ध्वनि सुनकर भगवान शिव के परम भक्त और क्रोधी स्वभाव के **परशुराम** अत्यंत क्रोधित होकर वहाँ आते हैं और धनुष तोड़ने वाले को अपना शत्रु बताते हुए उसे दंडित करने की धमकी देते हैं।

                **पहला छंद:**
                नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
                आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
                सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई॥
                सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥

                **दूसरा छंद (लक्ष्मण का व्यंग्य):**
                लखन कहा हँसि हमरे जाना। सुनिहु देव सब धनुष समाना॥
                का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥
                छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥

                **तीसरा छंद (परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण का प्रत्युत्तर):**
                बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेसु सुभाव न मोरा॥
                बालकु बोलि बधौं नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
                मैं बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥
                भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
                सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
                मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीस किसोर।
                गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥
                लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
                अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
                नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
                बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥
                सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
                बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रताप॥

                **चौथा छंद (राम का हस्तक्षेप और परशुराम का शांत होना):**
                लखन उत्तर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
                बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥
                (जब लक्ष्मण के उत्तर अग्नि में आहुति का काम करने लगे और परशुराम का क्रोधरूपी अग्नि बढ़ती गई, तब राम ने जल के समान शांत वचन कहे।)
            

जब परशुराम अत्यंत क्रोध में पूछते हैं कि शिव धनुष तोड़ने वाला कौन है, तो **श्री राम** अत्यंत विनम्रता से उत्तर देते हैं कि धनुष तोड़ने वाला उनका ही कोई दास होगा, और वे आज्ञा पूछने के लिए प्रस्तुत हैं। इस पर परशुराम और क्रोधित हो जाते हैं और कहते हैं कि सेवक तो वह होता है जो सेवा का कार्य करे, जिसने धनुष तोड़ा है उसने तो शत्रुता की है। वे कहते हैं कि जिसने शिव धनुष तोड़ा है, वह उनके सहस्रबाहु शत्रु के समान है, और वह सभा छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएंगे।

परशुराम के क्रोध को देखकर **लक्ष्मण** अपनी व्यंग्यात्मक प्रकृति के अनुसार मुस्कुराते हुए कहते हैं कि उनके लिए तो बचपन में ऐसे कई धनुष तोड़े गए, तब किसी ने क्रोध नहीं किया। इस पुराने धनुष के टूटने से क्या लाभ या हानि हुई? वे कहते हैं कि राम ने तो इसे केवल छू लिया था और यह टूट गया, इसमें राम का कोई दोष नहीं है। हे मुनि! आप बिना किसी कारण के क्यों क्रोध कर रहे हैं?

लक्ष्मण के इन व्यंग्यपूर्ण वचनों से परशुराम का क्रोध और भड़क उठता है। वे अपने फरसे की ओर देखकर लक्ष्मण को दुष्ट कहते हैं और कहते हैं कि वे उन्हें बालक समझकर नहीं मार रहे हैं। वे स्वयं को **बाल ब्रह्मचारी, अत्यंत क्रोधी और क्षत्रिय कुल के शत्रु** बताते हैं। वे अपनी भुजाओं के बल से अनेक बार पृथ्वी को राजाओं से विहीन कर चुके हैं और उस भूमि को ब्राह्मणों को दान कर चुके हैं। वे लक्ष्मण को चेतावनी देते हैं कि वे अपने माता-पिता को चिंता में न डालें क्योंकि उनका फरसा इतना भयंकर है कि यह गर्भ में पल रहे बच्चों को भी नष्ट कर देता है।

लक्ष्मण फिर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि हे मुनि! आपके यश का वर्णन आपसे अच्छा कोई नहीं कर सकता। आपने अपने ही मुख से अपनी करनी अनेक बार और अनेक प्रकार से बखान की है। यदि फिर भी संतोष नहीं हुआ हो, तो और कुछ कह डालिए, अपने क्रोध को रोककर असह्य दुःख सहन न कीजिए। वे परशुराम को **वीरव्रती, धैर्यवान और शांत** बताते हुए कहते हैं कि गाली देते हुए (कटु वचन कहते हुए) आप शोभा नहीं पाते। लक्ष्मण आगे कहते हैं कि शूरवीर तो युद्ध में अपनी करनी दिखाते हैं, स्वयं को बताते नहीं। शत्रु को सामने पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींगें हाँकते हैं।

लक्ष्मण के ऐसे उत्तर परशुराम के क्रोध रूपी अग्नि में आहुति का काम कर रहे थे। जब क्रोधरूपी अग्नि को बढ़ता हुआ देखकर **श्री राम** शांत और शीतल जल के समान वचन कहते हैं। यहाँ पर राम शांत, धैर्यवान और मर्यादावादी स्वभाव के रूप में प्रस्तुत होते हैं, जबकि लक्ष्मण वाचाल, निडर और व्यंग्यप्रिय स्वभाव के हैं। परशुराम क्रोधी, अहंकारी और क्षत्रिय-विरोधी ब्राह्मण के रूप में चित्रित हैं। यह संवाद वीर रस, रौद्र रस और हास्य रस का अद्भुत संगम है।

राम-लक्ष्मण और परशुराम के बीच संवाद का चित्रण, परशुराम क्रोध में फरसा उठाए हुए, लक्ष्मण मुस्कुराते हुए और राम शांत मुद्रा में।

मुख्य बिंदु

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर

I. विचार करें और उत्तर दें (पृष्ठ XX - काल्पनिक)

  1. परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की क्या प्रतिक्रियाएँ हुईं? उन्हें अपने शब्दों में लिखिए।

    परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की प्रतिक्रियाएँ बिल्कुल विपरीत थीं:

    • **राम की प्रतिक्रिया:** श्री राम ने अत्यंत **विनम्रता, धैर्य और शांत स्वभाव** का परिचय दिया। उन्होंने परशुराम के क्रोध को शांत करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि शिव धनुष तोड़ने वाला उनका ही कोई दास होगा, और वे आज्ञा पूछने के लिए प्रस्तुत हैं। उनकी भाषा संयमित और मर्यादापूर्ण थी, जो उनके शांत व्यक्तित्व को दर्शाती है। वे आग को पानी से बुझाने का प्रयास कर रहे थे।
    • **लक्ष्मण की प्रतिक्रिया:** लक्ष्मण ने **निडरता, वाचालता और व्यंग्यात्मक** स्वभाव का परिचय दिया। उन्होंने परशुराम के क्रोध को और भड़काया। उन्होंने बचपन में तोड़े गए कई धनुषों का उदाहरण देकर शिव धनुष के टूटने को सामान्य घटना बताया। उन्होंने परशुराम को बिना कारण क्रोध करने वाला कहा और उनके आत्म-प्रशंसा का उपहास किया। उनकी भाषा कटु और उत्तेजक थी, जो उनके युवा और विद्रोही स्वभाव को दर्शाती है। वे आग में घी डालने का काम कर रहे थे।

  2. लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या विशेषताएँ बताई हैं?

    लक्ष्मण ने परशुराम को संबोधित करते हुए सच्चे वीर योद्धा की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं:

    • **कर्म में विश्वास, कथन में नहीं:** वीर पुरुष अपनी वीरता युद्धभूमि में दिखाते हैं, वे केवल अपनी प्रशंसा नहीं करते ('सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु')।
    • **धीर और अछोभ:** सच्चा वीर धैर्यवान और शांत रहता है, वह कभी अधीर नहीं होता और ना ही विचलित होता है ('बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा')।
    • **दुश्मन का सामना:** वे शत्रु को सामने पाकर अपनी डींगें नहीं हाँकते, बल्कि साहसपूर्वक उसका सामना करते हैं। डींगें हाँकना कायरों का काम है ('बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रताप')।
    • **कटु वचन न बोलना:** वीर पुरुष गाली या कटु वचन नहीं बोलते, क्योंकि ऐसा करने से उनकी शोभा नहीं बढ़ती ('गारी देत न पावहु सोभा')।
    • **आत्म-संयम:** वीर पुरुष क्रोध को रोककर अनावश्यक दुख सहन नहीं करते, बल्कि उचित समय पर अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हैं।

  3. परशुराम के क्रोध को शांत करने के लिए राम ने जल के समान शीतल वचन क्यों कहे?

    लक्ष्मण के व्यंग्यपूर्ण और कटु वचन परशुराम के क्रोधरूपी अग्नि में आहुति का काम कर रहे थे, जिससे उनका क्रोध लगातार बढ़ रहा था। परशुराम अपने प्रचंड क्रोध में विवेक खो रहे थे और स्थिति बिगड़ती जा रही थी। ऐसे में, श्री राम ने स्थिति की गंभीरता को समझा। वे जानते थे कि यदि यह संवाद इसी तरह आगे बढ़ा तो अनर्थ हो सकता है। इसलिए, परशुराम के क्रोध को शांत करने और स्थिति को सामान्य करने के लिए राम ने **जल के समान शीतल और मर्यादापूर्ण वचन** कहे। उनके शांत वचन परशुराम के क्रोध की ज्वाला को बुझाने और उन्हें शांत करने में सहायक थे। यह राम के शांत, धैर्यवान और लोक-मंगलकारी स्वभाव को दर्शाता है।

  4. परशुराम ने अपने बल, पौरुष और स्वभाव के बारे में क्या-क्या बातें कहीं?

    परशुराम ने अपने बल, पौरुष और स्वभाव के बारे में निम्नलिखित बातें कहीं:

    • **अत्यंत क्रोधी स्वभाव:** वे स्वयं को 'अति कोही' (अत्यंत क्रोधी) बताते हैं।
    • **बाल ब्रह्मचारी:** वे कहते हैं कि वे बाल ब्रह्मचारी हैं, यानी आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले हैं।
    • **क्षत्रियकुल द्रोही:** वे विश्वविख्यात क्षत्रिय कुल के शत्रु हैं और अनेक बार क्षत्रियों का संहार कर चुके हैं।
    • **भुजबल से पृथ्वी को राजाविहीन करना:** उन्होंने अपनी भुजाओं के बल से कई बार पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया है।
    • **भूमि ब्राह्मणों को दान करना:** राजाओं को मारकर उन्होंने वह भूमि अनेक बार ब्राह्मणों को दान कर दी है।
    • **सहस्रबाहु का वध:** उन्होंने सहस्रबाहु (कार्तवीर्य अर्जुन) की भुजाओं को काटने वाले अपने फरसे का जिक्र किया, जिसे देखकर लक्ष्मण को भी डर जाना चाहिए।
    • **गर्भो के बच्चों का दलन:** उनका फरसा इतना भयानक है कि वह गर्भ में पल रहे बच्चों को भी नष्ट कर देता है।
    इन बातों से परशुराम का अहंकार, क्रोध और अपनी शक्ति पर अत्यधिक विश्वास झलकता है।

  5. लक्ष्मण के व्यंग्यों ने परशुराम के क्रोध को किस प्रकार बढ़ाया? उदाहरण सहित समझाइए।

    लक्ष्मण के व्यंग्यों ने परशुराम के क्रोध को लगातार बढ़ाया क्योंकि लक्ष्मण की बातें परशुराम के स्वाभिमान और क्रोध को सीधी चुनौती थीं। उदाहरण के लिए:

    • **धनुष टूटने को सामान्य बताना:** जब लक्ष्मण ने कहा कि 'सुनिहु देव सब धनुष समाना। का छति लाभु जून धनु तोरें?' (हे देव! सुनो, हमारे लिए तो सभी धनुष एक जैसे हैं। इस पुराने धनुष को तोड़ने से क्या हानि-लाभ?), तो यह परशुराम के शिव धनुष के प्रति श्रद्धा और उनके क्रोध का उपहास था।
    • **राम का दोष न मानना:** 'छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू?' (छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथ का कोई दोष नहीं। हे मुनि! आप बिना कारण ही क्यों क्रोध करते हैं?), यह कहकर लक्ष्मण ने परशुराम के क्रोध को अनावश्यक बताया।
    • **आत्म-प्रशंसा का उपहास:** 'अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥' (आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेक बार अनेक प्रकार से बखानी है) यह कहकर लक्ष्मण ने परशुराम की आत्म-प्रशंसा को ढोंग बताया।
    • **कायरों की श्रेणी में रखना:** 'सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु। बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रताप॥' (शूरवीर तो युद्ध में अपनी करनी करते हैं, कहकर अपने को जताते नहीं। शत्रु को सामने पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींगें हाँकते हैं।) यह कहकर लक्ष्मण ने परशुराम को परोक्ष रूप से कायर कहा, जो एक क्रोधी और अहंकारी योद्धा के लिए सबसे बड़ा अपमान था।
    • **गाली को शोभाहीन बताना:** 'बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥' (आप तो वीरव्रती, धैर्यवान और अशांत रहने वाले हैं। गाली देते हुए शोभा नहीं पाते।) यह सुनकर परशुराम का क्रोध और भड़क उठा क्योंकि लक्ष्मण ने उन्हें उनके ही कहे गए गुणों के विपरीत कटु वचन बोलने वाला सिद्ध कर दिया।
    इस प्रकार, लक्ष्मण के प्रत्येक व्यंग्य ने परशुराम के अहंकार और क्रोधी स्वभाव को उकसाया, जिससे उनका क्रोध लगातार बढ़ता चला गया।



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