अध्याय 8: सूरदास के पद

कवि: सूरदास

कवि परिचय

**सूरदास** (जन्म: अनुमानतः 1478 ई., रुनकता या सीही गाँव; मृत्यु: अनुमानतः 1583 ई., पारसौली) हिंदी साहित्य के **भक्तिकाल की कृष्णभक्ति शाखा** के प्रमुख कवि माने जाते हैं। इन्हें **'वात्सल्य रस के सम्राट'** के रूप में जाना जाता है, क्योंकि उन्होंने भगवान कृष्ण के बाल-रूप और उनकी लीलाओं का अद्भुत वर्णन किया है। वे वल्लभाचार्य के शिष्य थे और अष्टछाप के कवियों में सबसे प्रमुख थे। सूरदास जन्मांध थे या बाद में अंधे हुए, इस विषय पर मतभेद हैं, लेकिन उनकी रचनाओं में कृष्ण के रूप और लीलाओं का जैसा सजीव चित्रण मिलता है, वह किसी भी नेत्रहीन व्यक्ति के लिए असंभव सा प्रतीत होता है। उनकी प्रमुख रचनाएँ **'सूरसागर', 'साहित्य लहरी' और 'सूरसारावली'** हैं। प्रस्तुत पद उनकी 'सूरसागर' से संकलित हैं, जिनमें गोपियों का उद्धव के प्रति व्यंग्य और श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम प्रकट होता है।

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कविता का सार: 'सूरदास के पद'

कक्षा 10 की हिंदी पाठ्यपुस्तक में **सूरदास के चार पद** संकलित हैं। ये पद **भ्रमरगीत प्रसंग** से लिए गए हैं, जब श्रीकृष्ण मथुरा चले जाते हैं और गोपियों को छोड़कर उद्धव के माध्यम से योग-साधना का संदेश भेजते हैं। गोपियाँ, जो श्रीकृष्ण के प्रेम में पूरी तरह डूबी हुई हैं, उद्धव के इस 'निर्गुण ब्रह्म' और 'योग' के संदेश को स्वीकार नहीं कर पातीं और व्यंग्यात्मक शैली में अपनी प्रेम-भक्ति का दृढ़ता से परिचय देती हैं।

                **पहला पद:**
                ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
                अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी॥
                पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
                ज्यौं जल माँह तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी॥
                प्रीति-नदी मैं पाँव न बोरयौ, दृस्टि न रूप परागी।
                'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी॥

                **सारांश:** गोपियाँ उद्धव पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं कि हे उद्धव! तुम बहुत भाग्यशाली हो, क्योंकि तुम कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम-बंधन से अछूते हो और तुम्हारा मन उनके प्रेम में अनुरक्त नहीं हुआ। वे उदाहरण देती हैं कि जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहकर भी जल से अछूता रहता है, और जैसे तेल से सनी गगरी जल में डुबोने पर भी उस पर पानी की एक बूँद भी नहीं टिकती, उसी प्रकार तुम भी कृष्ण के सान्निध्य में रहकर उनके प्रेम से निर्लिप्त हो। गोपियाँ कहती हैं कि तुमने कभी प्रेम-रूपी नदी में पैर नहीं डुबोया और न ही तुम्हारी दृष्टि कभी किसी के रूप-सौंदर्य पर मुग्ध हुई। सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ स्वयं को अबला और भोली बताती हैं, और कहती हैं कि वे तो कृष्ण के प्रेम में इस प्रकार लिप्त हैं जैसे गुड़ में चींटियाँ लिपट जाती हैं और फिर कभी अलग नहीं हो पातीं। यह पद उद्धव के ज्ञान पर गोपियों के प्रेम की विजय को दर्शाता है।
            
                **दूसरा पद:**
                मन की मन ही माँझ रही।
                कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही॥
                अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
                अब इन जोग संदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही॥
                चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
                'सूरदास' अब धीर धरहिं क्यों, मरजादा न लही॥

                **सारांश:** इस पद में गोपियाँ अपनी विरह-व्यथा का वर्णन करती हैं। वे उद्धव से कहती हैं कि उनके मन की बात (श्रीकृष्ण से प्रेम और मिलन की आशा) मन में ही रह गई, वे उसे किसी से कह नहीं पा रही हैं। वे इतने समय से केवल कृष्ण के आने की अवधि (समय) को ही आधार मानकर तन और मन की सारी पीड़ा सह रही थीं। किंतु अब उद्धव के योग के संदेशों को सुन-सुनकर उनकी विरहाग्नि और भी बढ़ गई है। गोपियाँ कहती हैं कि वे जहाँ से सहायता की पुकार करना चाहती थीं (अर्थात् श्रीकृष्ण से), वहीं से योग-ज्ञान की प्रबल धारा बह निकली है (उद्धव का संदेश आया है)। सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ अब धैर्य क्यों धारण करें, जब श्रीकृष्ण ने ही प्रेम की मर्यादा का पालन नहीं किया। यहाँ गोपियों का धैर्य टूटना और कृष्ण से शिकायत व्यक्त करना प्रमुख है।
            
                **तीसरा पद:**
                हमारैं हरि हारिल की लकरी।
                मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी॥
                जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि, कान्ह कान्ह जक री।
                सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी॥
                सु तौ ब्याधि हमकौ लै आए, देखी सुनी न करी।
                यह तौ 'सूर' तिन्हिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी॥

                **सारांश:** इस पद में गोपियाँ अपनी अनन्य कृष्ण भक्ति का दृढ़ता से परिचय देती हैं। वे कहती हैं कि उनके लिए श्रीकृष्ण हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जिस प्रकार हारिल पक्षी अपनी पकड़ी हुई लकड़ी को कभी नहीं छोड़ता, उसी प्रकार उन्होंने भी मन, वचन और कर्म से नंद के नंदन (श्रीकृष्ण) को अपने हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखा है। वे जागते-सोते, स्वप्न में, दिन-रात, हर क्षण 'कान्ह-कान्ह' की रट लगाए रहती हैं। उद्धव के योग के संदेश उन्हें कड़वी ककड़ी के समान लगते हैं, जिसे निगला नहीं जा सकता। गोपियाँ कहती हैं कि उद्धव उनके लिए एक ऐसी 'व्याधि' (बीमारी) ले आए हैं, जिसे उन्होंने न कभी देखा, न सुना और न ही कभी अनुभव किया। सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ कहती हैं कि यह योग का संदेश उन्हीं को जाकर सौंपो जिनका मन चंचल है (चकरी के समान घूमता रहता है), उनका मन तो श्रीकृष्ण के प्रेम में स्थिर है। यह पद गोपियों के अटल प्रेम और योग के प्रति उनकी अरुचि को दर्शाता है।
            
                **चौथा पद:**
                हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
                समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए॥
                इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
                बड़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग संदेस पठाए॥
                ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
                अब अपने मन फेरि पाइहें, चलत जु हुते चुराए॥
                ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
                राज धरम तौ यहै 'सूर', जो प्रजा न जाहिं सताए॥

                **सारांश:** इस अंतिम पद में गोपियाँ कृष्ण पर सीधा व्यंग्य करती हैं और उन्हें 'राजनीति' का पाठ पढ़ने वाला बताती हैं। वे उद्धव (यहाँ 'मधुकर' यानी भौंरा, जो उद्धव का प्रतीक है) की बातें सुनकर समझ गई हैं और सारे समाचार पा लिए हैं। वे कहती हैं कि श्रीकृष्ण तो पहले से ही बहुत चतुर थे, अब लगता है कि उन्होंने गुरुओं से बड़े-बड़े राजनीति ग्रंथ भी पढ़ लिए हैं। उनकी इसी बड़ी हुई बुद्धि को जानकर उन्होंने योग का संदेश भेजा है। गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! पहले के लोग बहुत भले होते थे, जो दूसरों की भलाई के लिए दौड़ते फिरते थे। अब वे (गोपियाँ) अपना वह मन वापस पाना चाहती हैं जो कृष्ण मथुरा जाते समय चुरा ले गए थे। वे कृष्ण से प्रश्न करती हैं कि वे भला अन्याय क्यों कर रहे हैं, जो दूसरों को अन्याय से छुड़ाने वाले थे। सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ कहती हैं कि राजा का धर्म तो यही है कि वह अपनी प्रजा को न सताए। यहाँ गोपियाँ कृष्ण को प्रजा के रूप में अपनी पीड़ा बताती हैं और उनसे राजधर्म के पालन की अपेक्षा करती हैं। यह पद कृष्ण के व्यवहार पर गोपियों की नाराजगी और न्याय की अपेक्षा को प्रकट करता है।
            
गोपियाँ उद्धव से बात करती हुईं, उद्धव योग का संदेश देते हुए और गोपियाँ व्यथा में।

मुख्य बिंदु

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर

I. विचार करें और उत्तर दें (पृष्ठ XX - काल्पनिक)

  1. गोपियों द्वारा उद्धव को 'बड़भागी' कहने में क्या व्यंग्य निहित है?

    गोपियों द्वारा उद्धव को 'बड़भागी' कहने में **व्यंग्य** निहित है। वे वास्तव में उद्धव को बड़भागी (भाग्यशाली) नहीं, बल्कि **दुर्भाग्यशाली** और **अभागी** मानती हैं। इस व्यंग्य के माध्यम से वे कहना चाहती हैं कि:

    • उद्धव श्रीकृष्ण के इतने निकट रहकर भी उनके **प्रेम और सौंदर्य से अछूते** रहे। वे कृष्ण के सान्निध्य में रहते हुए भी प्रेम के बंधन में नहीं बँधे, जबकि गोपियाँ कृष्ण के दूर होते हुए भी उनके प्रेम में पूरी तरह डूबी हुई हैं।
    • वे कमल के पत्ते और तेल की गगरी के समान हैं, जो जल में रहकर भी जल से निर्लिप्त रहते हैं। इस प्रकार उद्धव ने **प्रेम रूपी नदी में कभी पाँव नहीं डुबोया** और न ही उनकी दृष्टि कृष्ण के रूप-सौंदर्य पर मोहित हुई।
    • उद्धव प्रेम के सुख और अनुभूति से वंचित हैं, क्योंकि वे योग और निर्गुण ब्रह्म की नीरस बातें करते हैं। प्रेम की अनुभूति न होना उनके लिए एक प्रकार का दुर्भाग्य ही है।
    अतः, 'बड़भागी' शब्द का प्रयोग करके गोपियाँ उद्धव की प्रेमहीनता, निर्लिप्तता और उदासीनता पर कटाक्ष करती हैं।

  2. गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा कैसे लोगों को देने की बात कही है?

    गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा ऐसे लोगों को देने की बात कही है **जिनका मन चंचल है** और जो श्रीकृष्ण के प्रेम में स्थिर नहीं हैं। वे कहती हैं: **"यह तौ 'सूर' तिन्हिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।"** उनके कहने का तात्पर्य है कि:

    • उनका मन तो श्रीकृष्ण के प्रेम में **अटल और स्थिर** है, जैसे हारिल पक्षी अपनी लकड़ी को नहीं छोड़ता।
    • योग की आवश्यकता उन्हें होती है जिनका मन भटकता है, जो एकनिष्ठ प्रेम नहीं कर पाते।
    • गोपियाँ स्वयं को श्रीकृष्ण के प्रति पूरी तरह समर्पित मानती हैं, इसलिए उन्हें योग-साधना की कोई आवश्यकता नहीं है। उनके लिए कृष्ण-प्रेम ही सबसे बड़ा योग है।
    वे योग को एक 'व्याधि' (बीमारी) मानती हैं, जो उनके लिए अनुपयोगी है।

  3. गोपियों को श्रीकृष्ण में ऐसे कौन से परिवर्तन दिखाई दिए जिनके कारण वे अपना राजधर्म भूल गए हैं?

    गोपियों को श्रीकृष्ण में निम्नलिखित परिवर्तन दिखाई दिए, जिनके कारण वे मानती हैं कि कृष्ण अपना राजधर्म भूल गए हैं:

    • **प्रेम की मर्यादा का उल्लंघन:** श्रीकृष्ण ने गोपियों से मिलने का वादा किया था, लेकिन वे स्वयं न आकर उद्धव के माध्यम से योग का नीरस संदेश भेजते हैं। गोपियों के अनुसार, यह उनके प्रेम की मर्यादा का उल्लंघन है।
    • **राजनीति का ज्ञान प्राप्त करना:** गोपियाँ व्यंग्य करती हैं कि श्रीकृष्ण अब राजनीति के ज्ञाता बन गए हैं और पहले से भी अधिक चतुर हो गए हैं ('हरि हैं राजनीति पढ़ि आए', 'इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए')।
    • **अन्यायपूर्ण व्यवहार:** जो कृष्ण दूसरों को अन्याय से मुक्त कराते थे, अब वे स्वयं गोपियों के साथ अन्याय कर रहे हैं, क्योंकि वे उनके प्रेम का प्रतिदान नहीं दे रहे और उन्हें विरह में तड़पा रहे हैं।
    • **प्रजा का हित न सोचना:** गोपियाँ स्वयं को प्रजा मानती हैं और कृष्ण को राजा। वे कहती हैं कि राजा का धर्म होता है अपनी प्रजा की रक्षा करना और उन्हें सताना नहीं ('राज धरम तौ यहै 'सूर', जो प्रजा न जाहिं सताए')। कृष्ण ऐसा नहीं कर रहे हैं।
    • **मन चुरा लेना और वापस न देना:** गोपियाँ मानती हैं कि कृष्ण जाते समय उनका मन चुरा ले गए थे और अब उसे वापस नहीं लौटा रहे हैं, बल्कि योग का संदेश भेजकर उन्हें और पीड़ा दे रहे हैं।
    इन परिवर्तनों के कारण गोपियाँ दुखी हैं और कृष्ण के व्यवहार को राजधर्म के विपरीत मानती हैं।

  4. गोपियों ने अपने और श्रीकृष्ण के प्रेम को किस-किस उदाहरण से समझाया है?

    गोपियों ने अपने और श्रीकृष्ण के प्रेम को समझाने के लिए निम्नलिखित उदाहरणों का प्रयोग किया है:

    • **गुड़ और चींटी:** गोपियाँ स्वयं को चींटी और श्रीकृष्ण को गुड़ बताती हैं ('गुर चाँटी ज्यौं पागी')। जिस प्रकार चींटी गुड़ से चिपक जाती है और उसे छोड़ नहीं पाती, यहाँ तक कि प्राण त्याग देती है, उसी प्रकार गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के प्रेम में इतनी तल्लीन हैं कि वे उनसे एक पल भी अलग नहीं हो सकतीं। यह उनके **एकनिष्ठ और अटूट प्रेम** को दर्शाता है।
    • **हारिल पक्षी की लकड़ी:** गोपियाँ श्रीकृष्ण को हारिल पक्षी की लकड़ी के समान मानती हैं ('हमारैं हरि हारिल की लकरी')। जिस प्रकार हारिल पक्षी अपने पैरों में दबी लकड़ी को कभी नहीं छोड़ता, उसी प्रकार गोपियों ने मन, वचन और कर्म से श्रीकृष्ण को अपने हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखा है। यह उनके **दृढ़ निश्चय और अनन्य भक्ति** को प्रकट करता है।
    ये उदाहरण गोपियों के श्रीकृष्ण के प्रति **गहरे, स्थायी और अविचल प्रेम** को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं।

  5. 'प्रीति-नदी में पाँव न बोरयौ, दृस्टि न रूप परागी' - इस पंक्ति में किस अलंकार का प्रयोग हुआ है? स्पष्ट कीजिए।

    इस पंक्ति **'प्रीति-नदी में पाँव न बोरयौ, दृस्टि न रूप परागी'** में मुख्य रूप से **रूपक अलंकार** का प्रयोग हुआ है।

    • **रूपक अलंकार:** यहाँ 'प्रीति' (प्रेम) को 'नदी' का रूप दे दिया गया है। 'प्रीति' उपमेय है और 'नदी' उपमान है, और दोनों में कोई भेद न करके अभेद दर्शाया गया है। अतः यह रूपक अलंकार का उदाहरण है।
    • **अनुप्रास अलंकार:** 'पाँव न बोरयौ', 'रूप परागी' में 'प' वर्ण की आवृत्ति और 'दृस्टि न' में 'न' वर्ण की आवृत्ति के कारण **अनुप्रास अलंकार** का सौंदर्य भी है।
    इस पंक्ति में गोपियाँ उद्धव पर व्यंग्य करती हैं कि उद्धव कृष्ण के निकट रहकर भी प्रेम रूपी नदी में कभी नहीं उतरे, अर्थात् उन्हें प्रेम का अनुभव नहीं हुआ, और न ही उनकी दृष्टि कृष्ण के अनुपम सौंदर्य पर मुग्ध हुई।



(ब्राउज़र के प्रिंट-टू-पीडीएफ फ़ंक्शन का उपयोग करता है। प्रकटन भिन्न हो सकता है।)