अध्याय 7: संस्कृति
भदंत आनंद कौसल्यायन
परिचय
‘संस्कृति’ नामक निबंध भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखा गया एक विचारोत्तेजक और दार्शनिक लेख है। इस निबंध में लेखक ने **'संस्कृति' और 'सभ्यता'** शब्दों के शाब्दिक और व्यावहारिक अर्थों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। वे इन दोनों शब्दों के बीच के सूक्ष्म अंतर को समझाते हुए बताते हैं कि वास्तविक संस्कृति क्या है और यह कैसे मनुष्य के जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लेखक के अनुसार, संस्कृति वह योग्यता है जिससे मनुष्य कोई नया आविष्कार या चिंतन करता है, जबकि सभ्यता उन आविष्कारों या चिंतनों का परिणाम है। यह पाठ मनुष्य के कल्याण, त्याग और परोपकार की भावना को ही सच्ची संस्कृति का आधार मानता है।
निबंध का सारांश
लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन इस निबंध में 'संस्कृति' और 'सभ्यता' शब्दों का विश्लेषण करते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि इन शब्दों का अर्थ प्रायः भ्रमित करने वाला होता है।
1. संस्कृति और सभ्यता में अंतर:
लेखक ने संस्कृति और सभ्यता के बीच के अंतर को स्पष्ट करने के लिए कई उदाहरण दिए हैं:
- आग का आविष्कार: जब मनुष्य ने **आग का आविष्कार** किया, तो यह उसकी **संस्कृति** थी। यह उसकी अंतर्निहित प्रेरणा, जिज्ञासा और आवश्यकता की जननी थी। आग के आविष्कार के बाद मनुष्य ने उसका उपयोग करना सीखा, जैसे खाना पकाना, ठंड दूर करना आदि। आग का यह उपयोग और उससे विकसित हुई व्यवस्था **सभ्यता** का हिस्सा है।
- सुई-धागे का आविष्कार: मनुष्य ने जब **सुई-धागे का आविष्कार** किया, तो यह उसकी संस्कृति थी, क्योंकि उसने शरीर को ढँकने और सर्दी से बचने की अपनी मूल प्रवृत्ति से प्रेरित होकर यह खोज की। इस आविष्कार से कपड़े सिलना, पहनना और वस्त्रों की विविधता **सभ्यता** का अंग बनी।
इस प्रकार, लेखक समझाते हैं कि **संस्कृति वह योग्यता है जिससे मनुष्य आविष्कार करता है, नया ज्ञान प्राप्त करता है या किसी नई बात की खोज करता है। यह उसकी प्रवृत्ति है, उसकी प्रेरणा है।** इसके विपरीत, **सभ्यता उस संस्कृति का परिणाम है**, अर्थात् संस्कृति के माध्यम से प्राप्त वस्तुओं या विचारों का उपयोग करना, उनका विकास करना और उनसे जीवन को बेहतर बनाना सभ्यता है। जो औजार या आविष्कार हम इस्तेमाल करते हैं, वे सभ्यता हैं, लेकिन उनके पीछे की मानवीय प्रेरणा और बुद्धि संस्कृति है।
2. वास्तविक संस्कृति का आधार:
लेखक के अनुसार, केवल आविष्कार करना ही सच्ची संस्कृति नहीं है, बल्कि उस आविष्कार के पीछे **मानव कल्याण की भावना** का होना आवश्यक है। वे ऐसे उदाहरण देते हैं जहाँ मनुष्य ने अपनी मूल आवश्यकताओं (भूख, प्यास) से परे जाकर दूसरों के लिए कुछ किया:
- एक व्यक्ति जो स्वयं भूखा है, लेकिन वह अपने हिस्से का भोजन किसी भूखे व्यक्ति को दे देता है, तो यह उसकी **संस्कृति** है। यह उसकी **त्याग और परोपकार की भावना** को दर्शाता है।
- सूर्य के नीचे सोया हुआ व्यक्ति भले ही सोता रहे, लेकिन यदि कोई संवेदनशील व्यक्ति उसे उठकर छाया में ले जाने का प्रयास करता है, तो यह उसकी संस्कृति है।
लेखक कहते हैं कि मनुष्य में दो प्रकार की वृत्तियाँ (प्रवृत्तियाँ) होती हैं:
- **प्रवृत्ति (सकारात्मक):** वह प्रेरणा जो मनुष्य को कुछ नया करने, आविष्कार करने और मानव कल्याण के लिए कार्य करने को प्रेरित करती है। यही वास्तविक संस्कृति की जननी है।
- **निवृत्ति (नकारात्मक):** वह प्रवृत्ति जो मनुष्य को स्वार्थ, विनाश या अनावश्यक संचय की ओर ले जाती है। यह संस्कृति का विकृत रूप है।
3. भौतिक संस्कृति और आध्यात्मिक संस्कृति:
लेखक ने संस्कृति के दो रूपों की भी चर्चा की है:
- **भौतिक संस्कृति:** यह उन भौतिक आविष्कारों और उपकरणों से संबंधित है जिनसे जीवन सुगम होता है, जैसे घर, वस्त्र, परिवहन के साधन, तकनीकी उपकरण आदि।
- **आध्यात्मिक संस्कृति:** यह मनुष्य के विचारों, नैतिक मूल्यों, परोपकारिता, दया, प्रेम, त्याग और उन उदात्त भावनाओं से संबंधित है जो उसे मनुष्य बनाती हैं। लेखक के अनुसार, यही सच्ची संस्कृति है।
लेखक अंत में यह निष्कर्ष निकालते हैं कि **संस्कृति अविभाज्य वस्तु है**, इसे बाँटा नहीं जा सकता। संस्कृति मनुष्य की वह क्षमता है जो उसे पशुता से ऊपर उठाकर मनुष्य बनाती है, उसे कल्याणकारी कार्यों के लिए प्रेरित करती है। सभ्यता का विकास भले ही अलग-अलग देशों में अलग-अलग ढंग से हुआ हो, लेकिन **मानवता के मूल तत्व, त्याग और परोपकार की भावना ही सच्ची संस्कृति है**, और यही वह चीज़ है जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखती है। वह जो कुछ भी अच्छा है, मानव-कल्याणकारी है, वही संस्कृति है और जो बुरा है, विध्वंसक है, वह असंस्कृति है।
मुख्य विचार/अवधारणाएँ
- संस्कृति (Culture): वह योग्यता या प्रेरणा जिससे मनुष्य किसी नई बात की खोज या आविष्कार करता है। यह मनुष्य की अंदरूनी वृत्ति है जो उसे कल्याणकारी कार्य करने को प्रेरित करती है (उदा: आग या सुई-धागे का आविष्कार करने की मूल प्रेरणा)। लेखक के अनुसार, वास्तविक संस्कृति वह है जो मनुष्य को मानव कल्याण के लिए प्रेरित करे, त्याग और परोपकार की भावना जगाए।
- सभ्यता (Civilization): संस्कृति का परिणाम। संस्कृति के माध्यम से प्राप्त वस्तुओं या विचारों का उपयोग, उनका विकास और उनसे जीवन को बेहतर बनाना सभ्यता है (उदा: आग से खाना पकाना, वस्त्रों का उपयोग करना)।
- प्रवृत्ति (Tendency/Inclination): मनुष्य की वह सकारात्मक प्रेरणा जो उसे सृजनात्मक और कल्याणकारी कार्यों की ओर ले जाती है।
- निवृत्ति (Cessation/Renunciation): मनुष्य की वह प्रवृत्ति जो उसे स्वार्थ, संग्रह या विनाश की ओर ले जाती है। लेखक इसे संस्कृति का विकृत रूप मानते हैं।
- आविष्कारक: वह व्यक्ति जो अपनी अंतर्निहित प्रेरणा और जिज्ञासा से किसी नई चीज की खोज करता है (जैसे न्यूटन, आग का आविष्कार करने वाला मनुष्य)।
मुख्य विषय
- **संस्कृति और सभ्यता का सूक्ष्म अंतर:** पाठ इन दो महत्त्वपूर्ण शब्दों के बीच के भेद को स्पष्ट करता है, जो अक्सर भ्रमित करते हैं।
- **मानव कल्याण संस्कृति का मूल आधार:** लेखक के अनुसार, सच्ची संस्कृति वही है जो मनुष्य को दूसरों के कल्याण के लिए प्रेरित करे, न कि केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए आविष्कार करे।
- **त्याग और परोपकार का महत्त्व:** निबंध इस बात पर जोर देता है कि दूसरों के लिए अपना सुख-त्याग करने और परोपकार करने की भावना ही मानवीय संस्कृति का सर्वोच्च रूप है।
- **आधुनिकता और विनाश:** परमाणु बम जैसे आविष्कारों के उदाहरण से लेखक यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या विनाशकारी आविष्कार भी संस्कृति का हिस्सा हो सकते हैं। वे इन्हें 'असंस्कृति' या 'विकृति' मानते हैं।
- **भौतिकता बनाम आध्यात्मिकता:** पाठ अप्रत्यक्ष रूप से भौतिक सुखों के पीछे भागने की बजाय मानवीय मूल्यों और आध्यात्मिक गुणों को महत्त्व देने का संदेश देता है।
पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर
प्रश्न अभ्यास (पृष्ठ संख्या 128-129)
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लेखक ने संस्कृति और सभ्यता में क्या अंतर बताया है?
लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन ने संस्कृति और सभ्यता में निम्नलिखित सूक्ष्म अंतर बताया है:
- संस्कृति: संस्कृति वह **योग्यता या प्रेरणा** है जिससे मनुष्य कोई नया आविष्कार करता है, कोई नया ज्ञान प्राप्त करता है या किसी नई बात की खोज करता है। यह मनुष्य की वह **अंदरूनी वृत्ति, बुद्धि या प्रवृत्ति** है जो उसे कल्याणकारी कार्य करने को प्रेरित करती है। जैसे: आग का आविष्कार करने की मूल प्रेरणा, सुई-धागे का आविष्कार करने की बुद्धि, या स्वयं भूखे रहकर दूसरे को भोजन देने की भावना।
- सभ्यता: सभ्यता संस्कृति का **परिणाम** है। संस्कृति के माध्यम से प्राप्त वस्तुओं या विचारों का उपयोग करना, उनका विकास करना और उनसे अपने जीवन को बेहतर बनाना सभ्यता है। जैसे: आग से खाना पकाना, कपड़ों का उपयोग करना, या किसी अविष्कार का भौतिक उपयोग करना।
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लेखक की दृष्टि में 'सभ्यता' और 'संस्कृति' की सही समझ कब तक नहीं हो सकती?
लेखक की दृष्टि में 'सभ्यता' और 'संस्कृति' की सही समझ तब तक नहीं हो सकती जब तक हम इन दोनों को **एक ही अर्थ में प्रयोग करते रहेंगे** या इन्हें **एक-दूसरे का पर्याय मानेंगे**। लेखक का मानना है कि ये दोनों शब्द भिन्न अर्थ रखते हैं, और जब तक हम इनके बीच के सूक्ष्म अंतर को नहीं समझेंगे, तब तक हम न तो संस्कृति के वास्तविक स्वरूप को जान पाएंगे और न ही सभ्यता के सही मायने को। वे जोर देते हैं कि संस्कृति मूल प्रेरणा है और सभ्यता उसका परिणाम। जब तक यह भेद स्पष्ट नहीं होता, सही समझ संभव नहीं है।
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आग की खोज में क्या प्रेरणा रही होगी?
आग की खोज में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रेरणाएँ रही होंगी:
- **उदर पूर्ति की प्रेरणा:** आदिमानव ने कच्चे माँस को खाते हुए कभी जलती हुई लकड़ी या घर्षण से निकली चिंगारी से माँस को पकते देखा होगा और सोचा होगा कि पका हुआ माँस अधिक स्वादिष्ट और सुपाच्य होता है।
- **शीत से बचने की प्रेरणा:** ठंड से ठिठुरते हुए मनुष्य ने आग की गर्मी महसूस की होगी और उसे ठंड से बचने का साधन माना होगा।
- **जिज्ञासा और अवलोकन:** मनुष्य स्वभाव से जिज्ञासु होता है। उसने लकड़ियों के आपस में रगड़ने या पत्थरों के टकराने से आग निकलते देखा होगा और उसे जानने की उत्सुकता हुई होगी।
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वास्तविक अर्थों में 'संस्कृत व्यक्ति' किसे कहा जा सकता है?
वास्तविक अर्थों में **'संस्कृत व्यक्ति'** उसे कहा जा सकता है जो अपनी **बुद्धि और विवेक से किसी नए तथ्य या ज्ञान का आविष्कार करे** और वह आविष्कार **मानव-कल्याण की भावना** से प्रेरित हो।
- वह केवल स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि **दूसरों के हित के लिए** कार्य करता है।
- उसमें त्याग, दया, परोपकार और प्रेम की भावना कूट-कूटकर भरी होती है।
- उदाहरण के लिए, जिसने स्वयं भूखे रहकर अपने हिस्से का भोजन किसी भूखे को दे दिया, या जो व्यक्ति स्वयं को धूप में जलते हुए व्यक्ति को देखकर उसे छाया में ले जाता है, वही वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है।
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न्यूटन को 'संस्कृत मानव' कहने के पीछे लेखक के क्या तर्क हैं?
लेखक न्यूटन को 'संस्कृत मानव' कहते हैं क्योंकि न्यूटन ने अपनी **बुद्धि और विवेक** का उपयोग करके **गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत** का आविष्कार किया। उन्होंने सेब को गिरते देखकर यह नहीं सोचा कि यह पृथ्वी की अपनी ओर खींचने की शक्ति के कारण गिर रहा है, बल्कि उन्होंने इस साधारण घटना में निहित **गहरे वैज्ञानिक रहस्य** को समझा। उनकी यह **जिज्ञासा और अन्वेषण की प्रवृत्ति** जो किसी बाहरी दबाव या आवश्यकता के कारण नहीं, बल्कि उनके आंतरिक बोध से उत्पन्न हुई, यही उनकी संस्कृति थी। उन्होंने जो ज्ञान प्राप्त किया, वह किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए उपयोगी था। इसलिए, ऐसे व्यक्ति को, जो अपनी अंदरूनी प्रेरणा से ज्ञान का सृजन करे और वह ज्ञान मानव मात्र के लिए उपयोगी हो, लेखक 'संस्कृत मानव' मानते हैं।
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किन चारित्रिक विशेषताओं के आधार पर लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ को 'संस्कृत व्यक्ति' कहा है?
लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ को 'संस्कृत व्यक्ति' निम्नलिखित चारित्रिक विशेषताओं के आधार पर कहा है:
- **संगीत के प्रति अगाध समर्पण:** बिस्मिल्ला खाँ ने अपनी शहनाई को केवल एक वाद्य यंत्र नहीं, बल्कि अपनी साधना और इबादत का माध्यम बनाया। वे जीवन भर संगीत की तपस्या में लीन रहे और उसे सर्वोच्च स्थान दिया। यह उनकी कला के प्रति गहरी निष्ठा और समर्पण को दर्शाता है।
- **धार्मिक सौहार्द और सहिष्णुता:** वे मुस्लिम होते हुए भी काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाते थे और गंगा-जमुनी तहज़ीब (हिंदू-मुस्लिम एकता) के प्रतीक थे। उनके लिए ईश्वर और अल्लाह एक ही थे, और वे संगीत को उस परम सत्ता तक पहुँचने का माध्यम मानते थे। यह उनकी धार्मिक उदारता और सर्वधर्म समभाव को दर्शाता है।
- **सादगी और निरभिमानी स्वभाव:** भारत रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मान के बाद भी उनका जीवन अत्यंत सादा रहा। वे धन-दौलत और दिखावे से दूर रहे। यह उनकी विनम्रता और भौतिक मोह से मुक्ति को दर्शाता है।
- **मानवीय मूल्यों का सम्मान:** वे दूसरों के दुख-सुख में शामिल होते थे और सभी के प्रति प्रेम और आदर का भाव रखते थे। उनका व्यक्तित्व मानवीय करुणा से परिपूर्ण था।
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लेखक ने मानव-संस्कृति को अविभाज्य क्यों कहा है?
लेखक ने मानव-संस्कृति को अविभाज्य इसलिए कहा है क्योंकि:
- **मानवीय प्रेरणाएँ सार्वभौमिक:** मनुष्य के भीतर की मूल प्रेरणाएँ (जैसे भूख, प्यास, ठंड से बचाव की इच्छा) और परोपकार की भावनाएँ किसी एक देश या जाति तक सीमित नहीं हैं। ये पूरे मानव समाज में समान रूप से विद्यमान हैं।
- **कल्याणकारी भावनाएँ सर्वव्यापी:** दया, प्रेम, त्याग, करुणा और दूसरों के हित की भावनाएँ विश्व के हर कोने में पाई जाती हैं। जब कोई व्यक्ति स्वयं भूखा रहकर दूसरों को भोजन देता है, तो यह कृत्य किसी एक संस्कृति का नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव-संस्कृति का हिस्सा बन जाता है।
- **ज्ञान का आदान-प्रदान:** मानव द्वारा किया गया कोई भी आविष्कार या खोज (जैसे आग, सुई-धागा) धीरे-धीरे पूरे विश्व में फैल जाता है और सभी उसका लाभ उठाते हैं। ज्ञान या कला पर किसी एक का अधिकार नहीं होता।
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आशय स्पष्ट कीजिए: "मानव-संस्कृति एक अविभाज्य वस्तु है।"
इस कथन का आशय यह है कि मनुष्य द्वारा अर्जित ज्ञान, उसके आविष्कार, उसकी कलाएँ और सबसे बढ़कर उसकी **मानवीय संवेदनाएँ (दया, करुणा, परोपकार, त्याग)** किसी एक देश, धर्म, जाति या समय की सीमा में बाँधी नहीं जा सकतीं। यह संपूर्ण मानव जाति की सामूहिक विरासत है।
लेखक यह समझाना चाहते हैं कि भले ही भौतिक सभ्यताएँ (जैसे पहनावा, खानपान, रहन-सहन) अलग-अलग दिखें, लेकिन इनके पीछे जो मानव-प्रेरणाएँ और कल्याणकारी भावनाएँ काम करती हैं, वे अविभाज्य हैं। जब किसी देश में कोई आविष्कार होता है, तो उसका लाभ धीरे-धीरे पूरी दुनिया उठाती है। जब कोई भूखा व्यक्ति अपना भोजन दूसरे भूखे को देता है, तो यह कृत्य किसी विशेष संस्कृति का नहीं, बल्कि **सार्वभौमिक मानव-संस्कृति** का हिस्सा बन जाता है।
मानव-संस्कृति का अर्थ मनुष्य की वह श्रेष्ठतम प्रवृत्ति है जो उसे विनाश की ओर नहीं, बल्कि सृजन और कल्याण की ओर ले जाती है। यह ऐसी भावना है जो सभी मनुष्यों को जोड़ती है और उन्हें एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील बनाती है। इसीलिए इसे विभाजित नहीं किया जा सकता, यह संपूर्ण मानवता की साझी पहचान है।
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