अध्याय 6: नौबतखाने में इबादत

यतींद्र मिश्र

परिचय

‘नौबतखाने में इबादत’ यतींद्र मिश्र द्वारा लिखा गया एक व्यक्ति-चित्र (संस्मरण) है, जो भारत के प्रसिद्ध शहनाई वादक **उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ** के व्यक्तित्व और जीवन-शैली पर प्रकाश डालता है। यह पाठ बिस्मिल्ला खाँ के संगीत के प्रति अगाध समर्पण, उनकी धार्मिक उदारता, उनकी सादगी और उनके गंगा-जमुनी तहज़ीब (सांस्कृतिक सौहार्द) के प्रतीक होने को बड़ी ही आत्मीयता से प्रस्तुत करता है। लेखक ने उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे उनके बचपन, संगीत की साधना, काशी और गंगा से उनके जुड़ाव, और उनके जीवन-दर्शन का सजीव चित्रण किया है।

संस्मरण का सारांश

यह व्यक्ति-चित्र शहनाई के जादूगर **उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ** के जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाता है। लेखक यतींद्र मिश्र ने बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व को 'नौबतखाने में इबादत' (शाही प्रवेश द्वार पर ईश्वर की आराधना) के रूप में चित्रित किया है, जहाँ संगीत स्वयं एक इबादत (प्रार्थना) बन जाता है।

1. बचपन और संगीत की शुरुआत:

लेखक बताते हैं कि बिस्मिल्ला खाँ का मूल नाम **अमीरुद्दीन** था। उनका जन्म डुमराँव, बिहार में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा और संगीत की शुरुआत काशी (वाराणसी) में हुई, जहाँ उनके मामा **अलीबख्श खाँ** और नाना जी **रसूलबख्श खाँ** शहनाई बजाने वाले थे। अमीरुद्दीन ने मात्र छह साल की उम्र से ही अपने मामा अलीबख्श खाँ से शहनाई बजाना सीखना शुरू कर दिया था। वे रोज़ बालाजी मंदिर और विश्वनाथ मंदिर में रियाज़ (अभ्यास) करते थे। उनकी सच्ची इबादत उनका संगीत ही था।

2. काशी और गंगा से अगाध प्रेम:

उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का **काशी और गंगा से अटूट रिश्ता** था। वे कभी भी काशी को छोड़कर नहीं गए। उनके लिए काशी और गंगा उनके संगीत की प्रेरणास्रोत थीं। वे गंगा के किनारे बैठकर रियाज़ करते थे और उन्हें ऐसा लगता था कि शहनाई की आवाज़ में गंगा की लहरों का संगीत घुल रहा है। वे अपनी शहनाई में काशी और गंगा की आत्मा को महसूस करते थे। एक बार एक शिष्य ने उनसे पूछा कि वे विदेश क्यों नहीं बस जाते, जहाँ उन्हें बहुत धन मिलेगा, तो उन्होंने जवाब दिया कि वे गंगा को छोड़कर कैसे रह सकते हैं? उनके लिए **काशी और गंगा उनके वास्तविक बिस्मिल्ला खाँ थे**।

3. धार्मिक सौहार्द के प्रतीक:

बिस्मिल्ला खाँ एक पक्के मुसलमान थे, लेकिन उनके लिए **धर्म और संगीत एक-दूसरे के पूरक** थे। वे पाँचों वक्त की नमाज़ पढ़ते थे, लेकिन साथ ही काशी विश्वनाथ मंदिर और बालाजी मंदिर में शहनाई बजाते थे। वे मोहर्रम में शोक मनाते थे और उसमें भाग लेते थे, लेकिन साथ ही हनुमान जयंती और गंगा दशहरा पर भी शहनाई बजाते थे। उनके लिए अल्लाह और ईश्वर एक ही थे, जिन्हें वे संगीत के माध्यम से ही प्राप्त करने की कोशिश करते थे। वे कहते थे कि "अल्लाह का दिया हुआ सुर कभी बेसुरा नहीं हो सकता।" उनकी शहनाई की ध्वनि मंदिरों में गूँजती थी और मस्जिद में भी। वे **गंगा-जमुनी तहज़ीब (हिंदू-मुस्लिम एकता और सांस्कृतिक सौहार्द)** के जीते-जागते उदाहरण थे।

4. सादगी और निरभिमानी व्यक्तित्व:

भारत रत्न जैसा सर्वोच्च सम्मान पाने के बाद भी बिस्मिल्ला खाँ का जीवन बहुत **सादगीपूर्ण** था। वे कभी भी धन-दौलत के पीछे नहीं भागे। उन्हें फ़िल्मी दुनिया का चकाचौंध पसंद नहीं था। वे धोती-कुरता पहनते थे और स्कूटर पर घूमते थे। उन्हें अपनी शहनाई से ही लगाव था, जिसे वे अपनी 'शहनाई बेगम' कहते थे। उनमें **अभिमान नाम की कोई चीज़ नहीं थी**। वे हमेशा अपने आपको एक मामूली इंसान मानते थे और कहते थे कि "अल्लाह का फज़ल (कृपा) है कि मैं बजा लेता हूँ।"

5. संगीत की तपस्या और समर्पण:

लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ के संगीत के प्रति **अगाध तपस्या और समर्पण** का वर्णन किया है। वे मानते थे कि संगीत एक साधना है, जिसे जीवन भर सीखना पड़ता है। वे संगीत को ही अपनी **इबादत** मानते थे, अपनी आत्मा की आवाज़ मानते थे। वे हमेशा रियाज़ करते रहते थे और कहते थे कि **"ईश्वर से सच्ची लगन ही संगीत को जीवंत बनाती है।"**

यह पाठ उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ को केवल एक कलाकार के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसे इंसान के रूप में प्रस्तुत करता है, जिन्होंने अपने संगीत और अपने जीवन दोनों से **मानवीयता, धार्मिक सौहार्द और सांस्कृतिक एकता** का संदेश दिया। उनकी मृत्यु से संगीत और संस्कृति दोनों को एक अपूरणीय क्षति हुई, लेकिन उनकी शहनाई की धुनें आज भी लोगों के दिलों में गूँजती हैं।

उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ अपनी शहनाई बजाते हुए, उनकी आँखों में एकाग्रता और भक्ति।

मुख्य व्यक्तित्व

मुख्य विषय

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर

प्रश्न अभ्यास (पृष्ठ संख्या 123-124)

  1. शहनाई की दुनिया में डुमराँव को क्यों याद किया जाता है?

    शहनाई की दुनिया में डुमराँव को निम्नलिखित कारणों से याद किया जाता है:

    • यह प्रसिद्ध शहनाई वादक **उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का जन्म स्थान** है।
    • डुमराँव में ही शहनाई बनाने के लिए जिस घास (रीड) का उपयोग होता है, वह **सोन नदी के किनारे** पाई जाती है। इस घास को नरकट कहा जाता है। शहनाई में लगने वाली रीड अंदर से खोखली होती है और शहनाई बजाने के लिए इसका होना अत्यंत आवश्यक है। इस नरकट के बिना शहनाई की मधुर ध्वनि निकलना असंभव है।
    इस प्रकार, डुमराँव का संबंध सीधे बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई के निर्माण दोनों से है, इसलिए इसे शहनाई की दुनिया में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

  2. बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई की मंगल ध्वनि का नायक क्यों कहा गया है?

    बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई की मंगल ध्वनि का नायक इसलिए कहा गया है क्योंकि:

    • शहनाई को भारतीय परंपरा में **मांगलिक वाद्य** माना जाता है। यह मंदिरों, शादी-ब्याह और शुभ अवसरों पर बजाया जाता है।
    • बिस्मिल्ला खाँ ने शहनाई को घर-परिवार और मंदिरों की सीमाओं से निकालकर **विश्वस्तर पर पहचान** दिलाई। उन्होंने इसे शास्त्रीय संगीत के मंच पर प्रतिष्ठित किया।
    • उनकी शहनाई से निकलने वाली ध्वनि में एक **दैवीयता और पवित्रता** थी, जो श्रोताओं के मन में शांति और आनंद भर देती थी।
    • उन्होंने 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर शहनाई बजाकर भारत की स्वतंत्रता का स्वागत किया, जो स्वयं एक बहुत ही मांगलिक अवसर था।
    उनके संगीत ने शहनाई को मांगलिक अवसरों से जोड़कर उसे एक नई ऊँचाई प्रदान की, जिससे वे शहनाई की मंगल ध्वनि के पर्याय बन गए।

  3. सुषिर वाद्यों से क्या अभिप्राय है? शहनाई को 'सुषिर वाद्यों में शाह' की उपाधि क्यों दी गई होगी?

    **सुषिर वाद्य:** वे वाद्य यंत्र जो **फूँक कर बजाए जाते हैं**, सुषिर वाद्य कहलाते हैं। जैसे- शहनाई, बाँसुरी, शंख, नरसिंहा आदि।

    शहनाई को **'सुषिर वाद्यों में शाह'** की उपाधि दी गई है क्योंकि:

    • 'शाह' का अर्थ होता है राजा या सम्राट। शहनाई की ध्वनि अत्यंत **मधुर, सुरीली और प्रभावशाली** होती है, जो अन्य किसी सुषिर वाद्य में नहीं मिलती।
    • यह अपनी **तान, लय और मधुरता** में अद्वितीय है। शहनाई की ध्वनि में गंभीरता, मार्मिकता और एक प्रकार की पवित्रता होती है।
    • इसे मंदिरों और मांगलिक अवसरों पर बजाया जाता है, जिससे इसका **धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व** भी बढ़ जाता है।
    • उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसे कलाकारों ने इसे इतनी ऊँचाई पर पहुँचा दिया कि यह अन्य सुषिर वाद्यों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाने लगी।
    इसी कारण शहनाई को सुषिर वाद्यों का राजा या 'शाह' कहा जाता है।

  4. आशय स्पष्ट कीजिए:
    (क) "काशी में संगीत आयोजन की एक प्राचीन और अद्भुत परंपरा है। डूमरौ में बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई गूँजती है।"
    (ख) "फटकर शहनाई और फटकर लुंगी का क्या है आज फटी है तो कल सी जाएगी।"

    **(क) "काशी में संगीत आयोजन की एक प्राचीन और अद्भुत परंपरा है। डूमरौ में बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई गूँजती है।"**
    **आशय:** इस पंक्ति का आशय यह है कि काशी (वाराणसी) में सदियों से संगीत और कला को विशेष महत्त्व दिया गया है। यहाँ मंदिरों में, घाटों पर और विभिन्न उत्सवों में संगीत की परंपरा रही है। इस प्राचीन परंपरा को आगे बढ़ाने वाले और इसे विश्वभर में प्रसिद्धि दिलाने वाले प्रमुख कलाकार उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ थे। यहाँ 'डूमरौ में बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई गूँजती है' का अर्थ है कि उनके संगीत में काशी की आत्मा और उसकी परंपरा समाई हुई है। वे भले ही डुमराँव में जन्मे हों, पर उनकी कला, उनकी साधना और उनकी प्रसिद्धि का केंद्र काशी ही था। उनके शहनाई से निकलने वाली हर धुन में काशी की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत की गूँज सुनाई देती थी।

    **(ख) "फटकर शहनाई और फटकर लुंगी का क्या है आज फटी है तो कल सी जाएगी।"**
    **आशय:** यह कथन उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की **सादगी, निरभिमानी स्वभाव और धन के प्रति अनासक्ति** को दर्शाता है।
    उनके एक शिष्य ने उन्हें फटी हुई लुंगी में देखकर कहा कि भारत रत्न मिलने के बाद भी वे फटी लुंगी पहनते हैं। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि 'फटकर शहनाई' (अर्थात् सुर का बेसुरा हो जाना या संगीत की साधना में कमी) सबसे बुरी बात है, जबकि 'फटी लुंगी' (अर्थात् भौतिक चीज़ों की कमी) कोई बड़ी बात नहीं। यदि आज लुंगी फटी है तो कल उसे सीना जा सकता है या नई खरीदी जा सकती है, लेकिन एक कलाकार के लिए उसका संगीत अगर बेसुरा हो जाए तो उसे सुधारना बहुत मुश्किल है। उनके लिए **कला की पवित्रता और साधना** धन-दौलत या दिखावे से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थी। यह उनकी जीवन-दृष्टि को प्रकट करता है कि वास्तविक संपत्ति कला है, न कि भौतिक वस्तुएँ।

  5. बिस्मिल्ला खाँ का तात्पर्य शहनाई से और शहनाई का तात्पर्य बिस्मिल्ला खाँ से है। आशय स्पष्ट कीजिए।

    इस कथन का आशय यह है कि उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई एक-दूसरे के पर्याय बन गए थे।

    • **बिस्मिल्ला खाँ का तात्पर्य शहनाई से:** बिस्मिल्ला खाँ ने शहनाई को इतनी ऊँचाई पर पहुँचाया कि जब भी शहनाई की बात होती है, उनका नाम सबसे पहले आता है। उन्होंने शहनाई को केवल एक वाद्य यंत्र नहीं, बल्कि अपनी आत्मा और जीवन का हिस्सा बना लिया था। उनके बिना शहनाई अधूरी लगती थी।
    • **शहनाई का तात्पर्य बिस्मिल्ला खाँ से:** बिस्मिल्ला खाँ का पूरा जीवन शहनाई को समर्पित था। उन्होंने अपनी साधना और भक्ति से शहनाई को एक ऐसी प्रतिष्ठा दिलाई कि शहनाई को उनके नाम से ही जाना जाने लगा। वे शहनाई के माध्यम से ही स्वयं को अभिव्यक्त करते थे।
    जैसे किसी फूल की सुगंध उससे अलग नहीं की जा सकती, वैसे ही बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई से और शहनाई को बिस्मिल्ला खाँ से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। दोनों एक-दूसरे में इतने रच-बस गए थे कि एक के बिना दूसरे की कल्पना असंभव थी।

  6. काशी में संगीत समारोह आयोजित होते हैं, जिसमें बिस्मिल्ला खाँ आवश्यक रूप से उपस्थित रहते हैं। काशी के लिए बिस्मिल्ला खाँ का होना एक अनमोल सांस्कृतिक धरोहर क्यों है?

    काशी में संगीत समारोह आयोजित होते हैं, जिनमें बिस्मिल्ला खाँ की उपस्थिति अत्यंत आवश्यक होती थी। काशी के लिए बिस्मिल्ला खाँ का होना एक अनमोल सांस्कृतिक धरोहर इसलिए है क्योंकि:

    • प्राचीन परंपरा के संवाहक: काशी अपनी प्राचीन संगीत परंपरा के लिए प्रसिद्ध है, और बिस्मिल्ला खाँ उस परंपरा के सबसे बड़े संवाहक और प्रतिनिधि थे। उन्होंने अपनी कला से इस परंपरा को जीवित रखा और उसे विश्व पटल पर पहुँचाया।
    • गंगा-जमुनी तहज़ीब के प्रतीक: बिस्मिल्ला खाँ एक मुस्लिम होते हुए भी काशी के मंदिरों में शहनाई बजाते थे और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक थे। उनका यह सांप्रदायिक सौहार्द काशी की मिश्रित संस्कृति का जीवंत उदाहरण था।
    • आध्यात्मिक और कलात्मक जुड़ाव: वे काशी के बालाजी मंदिर और विश्वनाथ मंदिर से भावनात्मक रूप से जुड़े थे। उनके संगीत में काशी की आत्मा और गंगा की पवित्रता का वास था।
    • विश्वव्यापी पहचान: उन्होंने अपनी शहनाई के माध्यम से काशी को पूरे विश्व में एक नई पहचान दिलाई। वे स्वयं काशी के सांस्कृतिक दूत थे।
    • सरल और निरभिमानी व्यक्तित्व: उनकी सादगी, निष्ठा और कला के प्रति समर्पण ने उन्हें काशी के लोगों के दिलों में एक विशेष स्थान दिलाया। वे एक कलाकार के साथ-साथ एक महान इंसान भी थे।
    इन सभी कारणों से बिस्मिल्ला खाँ काशी के लिए केवल एक कलाकार नहीं, बल्कि एक चलती-फिरती सांस्कृतिक विरासत थे, जो अत्यंत अनमोल थी।



(Uses browser's print-to-PDF function. Appearance may vary.)