अध्याय 4: एक कहानी यह भी
मन्नू भंडारी
परिचय
‘एक कहानी यह भी’ मन्नू भंडारी द्वारा लिखा गया एक आत्मकथात्मक अंश है। इस पाठ में लेखिका ने अपने बचपन से लेकर किशोरावस्था तक की घटनाओं, विशेषकर अपने पिता के व्यक्तित्व, उनके प्रभाव और उनकी कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल के योगदान का वर्णन किया है। लेखिका ने यह भी बताया है कि किस प्रकार उस समय के राजनैतिक और सामाजिक आंदोलनों, विशेषकर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुए छात्र आंदोलनों ने उनके व्यक्तित्व और लेखन को आकार दिया। यह पाठ एक साधारण लड़की के असाधारण लेखिका और जुझारू व्यक्तित्व बनने की कहानी है।
कहानी का सारांश (आत्मकथात्मक अंश)
यह अंश मन्नू भंडारी की आत्मकथा 'एक कहानी यह भी' का ही एक हिस्सा है, जिसमें वे अपने जीवन के उन पड़ावों का ज़िक्र करती हैं जिन्होंने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा।
1. पिता का प्रभाव:
लेखिका के व्यक्तित्व निर्माण में उनके पिता का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। उनके पिता एक बहुत ही पढ़े-लिखे और प्रतिभावान व्यक्ति थे, जिन्होंने इंदौर से अजमेर आकर व्यापार किया। वे बहुत क्रोधी और अहंवादी थे, लेकिन उनके कुछ गुण लेखिका के व्यक्तित्व में भी उतरे। पिता के व्यक्तित्व की दो प्रमुख बातें थीं:
- रचनात्मकता और घर में साहित्यिक माहौल: पिता के घर में हमेशा साहित्यिक चर्चाएँ होती थीं। वे अनेक पुस्तकें पढ़ते थे और उनके घर में बड़े-बड़े साहित्यकार आते थे। इससे लेखिका को बचपन से ही साहित्य और बौद्धिक चर्चाओं का वातावरण मिला।
- कुंठा और शक का स्वभाव: पिता का स्वभाव संदेही और कुंठित था। वे चाहते थे कि मन्नू घर में रहें, उनकी पढ़ाई लिखाई घर पर हो। वे सामाजिक सक्रियता और आंदोलन में लड़कियों की भागीदारी के पक्षधर नहीं थे। इसका परिणाम यह हुआ कि लेखिका के मन में एक तरह का **विद्रोही स्वभाव** पनपा। पिता अपनी बातें मनवाते थे, लेकिन स्वयं उन बातों पर खरे नहीं उतरते थे, जिससे लेखिका को उनके प्रति दुविधा महसूस होती थी। पिता चाहते थे कि लेखिका जागरूक बनें, पर उनका घर से बाहर निकलना, सभाओं में भाग लेना उन्हें नागवार गुजरता था।
2. शीला अग्रवाल का प्रभाव:
लेखिका के कॉलेज के दिनों में उनकी हिंदी प्राध्यापिका **शीला अग्रवाल** का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। शीला अग्रवाल ने न केवल उन्हें साहित्यिक पुस्तकों को चुनकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया, बल्कि उन्हें साहित्य की दुनिया में प्रवेश करने का मार्ग भी दिखाया। उन्होंने लेखिका को साहित्य का सही अर्थ समझाया और उन्हें हर अच्छी-बुरी रचना पर खुलकर अपनी राय व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया।
- साहित्यिक मार्गदर्शन: शीला अग्रवाल ने लेखिका को साहित्य के चयन में मदद की और साहित्य की गहरी समझ विकसित की।
- वैचारिक स्वतंत्रता: उन्होंने मन्नू को वैचारिक रूप से स्वतंत्र होने, अपने विचारों को व्यक्त करने और बिना संकोच के बोलने के लिए प्रेरित किया।
- सक्रियता के लिए प्रेरणा: शीला अग्रवाल ने लेखिका को **सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों** में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनके कहने पर ही मन्नू भंडारी ने घर से बाहर निकलकर आंदोलनों में भाग लेना शुरू किया, जुलूसों में शामिल हुईं और भाषण दिए।
3. आज़ादी के आंदोलन और सामाजिक सक्रियता:
सन् 1946-47 के दिनों में देश में स्वतंत्रता आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था। शहर-शहर, गाँव-गाँव में छात्र और युवा आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे। लेखिका का शहर अजमेर भी इन आंदोलनों से अछूता नहीं था। कॉलेज के विद्यार्थियों ने भी हड़तालें, जुलूस और प्रभात फेरियाँ निकालनी शुरू कर दी थीं। मन्नू भंडारी भी इसमें सक्रिय रूप से शामिल थीं। वे छात्राओं को इकट्ठा करती थीं, उन्हें भाषण देती थीं और जुलूसों का नेतृत्व करती थीं।
- उनकी इस सक्रियता से उनके पिता अक्सर नाराज़ हो जाते थे। वे उन्हें घर से बाहर निकलने से रोकते थे, पर मन्नू भंडारी अपनी प्रध्यापिका शीला अग्रवाल के प्रोत्साहन से अपनी गतिविधियों को जारी रखती थीं।
- एक बार तो उनके पिता ने कॉलेज के प्रिंसिपल से शिकायत कर दी कि मन्नू की गतिविधियाँ कॉलेज का माहौल खराब कर रही हैं। प्रिंसिपल ने मन्नू को बुलाकर डांटा भी, लेकिन शीला अग्रवाल ने उनका बचाव किया।
- बाद में, प्रिंसिपल ने खुद पिता को बुलाया और मन्नू की प्रशंसा की, यह कहते हुए कि मन्नू एक बड़ी नेता बनने वाली हैं। इस घटना ने पिता को संतुष्ट तो किया, लेकिन उनका दोहरापन लेखिका के मन में हमेशा बना रहा।
मुख्य पात्र
- मन्नू भंडारी: स्वयं लेखिका और आत्मकथात्मक अंश की केंद्रीय पात्र। वे एक संवेदनशील, जिज्ञासु, विद्रोही और जुझारू व्यक्तित्व वाली महिला हैं, जिनकी पहचान एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में होती है।
- पिता: लेखिका के पिता, एक विद्वान, अहंवादी और क्रोधी व्यक्ति। उनका दोहरा व्यक्तित्व (जागरूकता के पक्षधर, पर लड़कियों की सामाजिक सक्रियता के विरोधी) लेखिका के मन में द्वंद्व पैदा करता है और उन्हें प्रभावित करता है।
- शीला अग्रवाल: लेखिका की हिंदी प्राध्यापिका। वे एक प्रगतिशील विचारों वाली महिला थीं जिन्होंने मन्नू को साहित्य और समाज दोनों में सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया। वे लेखिका के व्यक्तित्व निर्माण में एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाती हैं।
मुख्य विषय
- व्यक्तित्व निर्माण में पारिवारिक और शैक्षिक परिवेश का योगदान: यह पाठ दर्शाता है कि कैसे किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण उसके घर के माहौल, विशेषकर माता-पिता के स्वभाव और उनके व्यवहार, तथा उसके शिक्षकों और शैक्षिक परिवेश से होता है।
- द्वंद्व और विरोधाभास: लेखिका के पिता का विरोधाभासी व्यक्तित्व (रूढ़िवादी और प्रगतिशील दोनों) और उनके प्रति लेखिका के मन में पैदा हुए प्रेम और विद्रोह का द्वंद्व इस पाठ का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
- नारी-चेतना और स्वतंत्रता: पाठ नारी-चेतना के विकास को दर्शाता है कि कैसे एक लड़की अपने घर की सीमाओं से निकलकर सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी करती है और अपनी पहचान बनाती है। यह स्वतंत्रता की चाह को भी उजागर करता है।
- सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता: स्वतंत्रता आंदोलन और उसमें युवाओं, विशेषकर छात्राओं की भागीदारी का चित्रण इस पाठ को समकालीन इतिहास से जोड़ता है और सामाजिक बदलाव की प्रेरणा देता है।
- लेखन का स्रोत: यह पाठ अप्रत्यक्ष रूप से यह भी बताता है कि एक लेखक के जीवन के अनुभव और परिवेश ही उसके लेखन के मुख्य स्रोत बनते हैं।
पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर
प्रश्न अभ्यास (पृष्ठ संख्या 97-98)
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लेखिका के व्यक्तित्व पर किन-किन व्यक्तियों का किस रूप में प्रभाव पड़ा?
लेखिका के व्यक्तित्व पर मुख्य रूप से दो व्यक्तियों का गहरा प्रभाव पड़ा: उनके **पिता** और उनकी कॉलेज की प्राध्यापिका **शीला अग्रवाल**।
- पिता का प्रभाव:
- सकारात्मक: पिता के कारण लेखिका को घर में साहित्यिक और बौद्धिक माहौल मिला। उनके घर में बड़े-बड़े साहित्यकार आते थे, जिससे लेखिका ने बचपन से ही साहित्य और ज्ञान की बातें सुनीं। पिता ने उन्हें देश-दुनिया के प्रति जागरूक रहने और अपनी आँखों से देखकर चीज़ों को समझने की प्रेरणा दी।
- नकारात्मक: पिता का स्वभाव क्रोधी, अहंवादी और संदेही था। वे चाहते थे कि बेटियाँ घर में रहें और सामाजिक सक्रियता से दूर रहें। उनका यह दोहरा व्यक्तित्व (एक ओर जागरूक बनाने की इच्छा, दूसरी ओर घर से बाहर निकलने पर रोक) लेखिका के मन में विद्रोह और हीन भावना भरता था। इस विरोधाभास ने लेखिका को और भी अधिक दृढ़ निश्चयी और विद्रोही बनाया।
- शीला अग्रवाल का प्रभाव:
- साहित्यिक प्रेरणा: उन्होंने लेखिका को सही मायने में साहित्य से जोड़ा, उन्हें अच्छी किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित किया और साहित्य की बारीकियों को समझाया।
- वैचारिक स्वतंत्रता: शीला अग्रवाल ने लेखिका को अपनी बात आत्मविश्वास से कहने, अपने विचारों को बेझिझक व्यक्त करने और बिना संकोच बोलने के लिए प्रेरित किया।
- सामाजिक सक्रियता: उन्होंने लेखिका को घर से बाहर निकलकर सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेने, जुलूसों में शामिल होने और भाषण देने के लिए प्रोत्साहित किया। उनके ही मार्गदर्शन में लेखिका एक जुझारू कार्यकर्ता बनीं।
- पिता का प्रभाव:
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लेखिका ने अपने पिता के बारे में लिखा है, "वे बहुत क्रोधी और अहंवादी थे।" क्या आप उनके इन गुणों को लेखिका के स्वभाव में भी देखते हैं?
हाँ, लेखिका के पिता के **क्रोधी और अहंवादी** गुण कुछ हद तक लेखिका के स्वभाव में भी दिखाई देते हैं।
- अहंवाद/आत्मविश्वास: लेखिका में अपने विचारों को लेकर एक दृढ़ता और आत्मविश्वास दिखाई देता है, जो पिता के अहंवाद का ही सकारात्मक रूप हो सकता है। वे अपनी बात मनवाने में और अपने आदर्शों पर अडिग रहने में ज़िद दिखाती हैं, जैसे वे पिता के मना करने पर भी आंदोलन में भाग लेती हैं।
- क्रोध/विद्रोह: पिता के विरोधाभासी व्यवहार के कारण लेखिका के मन में जो हीन भावना और विद्रोह की भावना पनपी, वह एक प्रकार का क्रोध ही था। यह क्रोध ही उन्हें अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने और सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने की प्रेरणा देता है। उनकी बेबाकी और स्पष्टवादिता भी कहीं न कहीं इस क्रोध से ही जुड़ी है।
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इस आत्मकथांश में लेखिका के पिता ने रसोई को 'भटियारखाना' कहकर क्यों संबोधित किया है?
लेखिका के पिता ने रसोई को 'भटियारखाना' (वह स्थान जहाँ भाड़ जलता हो या जहाँ बहुत शोर-शराबा हो, या जहाँ लोग अपना समय बर्बाद करते हों) कहकर संबोधित किया है क्योंकि:
- वे रसोई को महिलाओं के बौद्धिक विकास में बाधक मानते थे। उनका मानना था कि रसोई में काम करने से महिलाओं की प्रतिभा कुंठित हो जाती है और वे देश-दुनिया के प्रति जागरूक नहीं हो पातीं।
- वे लेखिका (मन्नू) को एक साधारण गृहिणी के रूप में नहीं, बल्कि एक प्रतिभाशाली और जागरूक व्यक्तित्व के रूप में देखना चाहते थे, जो देश और समाज के लिए कुछ करे।
- उनके अनुसार, रसोई में समय बिताना निरर्थक था और यह ज्ञानार्जन तथा बौद्धिक चर्चा के माहौल से दूर रखता था।
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वह कौन-सी घटना थी जिसके बारे में सुनने पर लेखिका को न अपनी आँखों पर विश्वास हो पाया और न अपने कानों पर?
वह घटना यह थी कि जब प्रिंसिपल ने लेखिका की गतिविधियों (कॉलेज से बाहर जाकर जुलूस निकालने और भाषण देने) के कारण उनके पिता को कॉलेज बुलाया। पिता गुस्से में कॉलेज गए थे क्योंकि उन्हें लग रहा था कि मन्नू ने उनकी इज्जत मिट्टी में मिला दी है। परंतु, जब पिता वापस आए और उन्होंने लेखिका को यह बताया कि प्रिंसिपल ने मन्नू की शिकायत करने की बजाय, उनकी (मन्नू की) **प्रशंसा की** और कहा कि "मन्नू भंडारी कॉलेज के लिए गौरव है और वह एक नेता बनकर रहेगी," तो लेखिका को अपनी आँखों और कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उन्हें लगा कि यह उनके पिता के स्वभाव के बिल्कुल विपरीत था, क्योंकि उनके पिता उनकी सामाजिक सक्रियता के सख्त खिलाफ थे।
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लेखिका की अपने पिता से वैचारिक टकराहट क्यों होती थी?
लेखिका की अपने पिता से वैचारिक टकराहट के कई कारण थे:
- पिता का दोहरा व्यक्तित्व: पिता एक ओर तो लेखिका को जागरूक, बौद्धिक और स्वतंत्र विचारों वाला बनाना चाहते थे, लेकिन दूसरी ओर वे नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भाग ले। यह विरोधाभास लेखिका को खटकता था।
- स्त्री स्वतंत्रता पर मतभेद: पिता का मानना था कि लड़कियों को घर के दायरे में रहकर ही शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए, जबकि लेखिका सामाजिक स्वतंत्रता और सक्रियता की पक्षधर थीं।
- सम्मान की चाह: पिता यह तो चाहते थे कि लेखिका को सम्मान मिले, पर वह सम्मान उनकी अपनी शर्तों पर हो। लेखिका समाज से जुड़कर अपने बलबूते पर सम्मान पाना चाहती थीं।
- भावनात्मक दूरी: पिता का शक्की और क्रोधी स्वभाव भी लेखिका को उनसे दूर करता था, जिससे वैचारिक मतभेद खुलकर सामने आते थे।
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इस आत्मकथांश के आधार पर मन्नू भंडारी के साहित्यिक व्यक्तित्व की विशेषताएँ लिखिए।
इस आत्मकथांश के आधार पर मन्नू भंडारी के साहित्यिक व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएँ सामने आती हैं:
- संवेदनशीलता: वे अपने परिवेश, समाज और संबंधों के प्रति बहुत संवेदनशील थीं। पिता के विरोधाभास और समाज के रूढ़िवादी रवैये को उन्होंने गहराई से महसूस किया।
- जुझारूपन/विद्रोही स्वभाव: अन्याय और रूढ़ियों के प्रति उनमें विद्रोह की भावना थी। उन्होंने अपनी स्वतंत्रता के लिए, और सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष किया, जो उनके लेखन में भी परिलक्षित होता है।
- बौद्धिकता और वैचारिक स्पष्टता: पिता के घर के साहित्यिक माहौल और शीला अग्रवाल के मार्गदर्शन ने उनमें बौद्धिक गहराई और विचारों की स्पष्टता पैदा की, जो उनके लेखन की नींव बनी।
- सामाजिक जागरूकता: स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी ने उन्हें सामाजिक रूप से अत्यंत जागरूक बनाया। उनके लेखन में समाज की विसंगतियों पर कटाक्ष और यथार्थ का चित्रण मिलता है।
- आत्मविश्वास और बेबाकी: शीला अग्रवाल के प्रोत्साहन से उनमें आत्मविश्वास और अपनी बात बेबाकी से कहने का साहस आया, जो उनके सशक्त लेखन शैली में भी झलकता है।
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शीला अग्रवाल के प्रभाव से लेखिका की किन-किन आदतों में बदलाव आया?
शीला अग्रवाल के प्रभाव से लेखिका की आदतों में कई महत्त्वपूर्ण बदलाव आए:
- साहित्यिक समझ और रुचि का विकास: वे केवल हिंदी साहित्य ही नहीं, बल्कि विभिन्न भाषाओं के साहित्य को चुनने, पढ़ने और उन पर खुलकर विचार करने लगीं। उन्होंने साहित्य की सही पहचान सीखी।
- वैचारिक दृढ़ता और अभिव्यक्ति: उनमें अपने विचारों को लेकर दृढ़ता आई और वे बिना झिझक के अपनी बात रखने लगीं। वे किसी भी रचना पर अपनी आलोचनात्मक राय देने में सक्षम हो गईं।
- सामाजिक सक्रियता में वृद्धि: शीला अग्रवाल ने उन्हें केवल किताबी ज्ञान तक सीमित न रखकर सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित किया। वे घर से बाहर निकलकर जुलूसों में शामिल होने लगीं, भाषण देने लगीं और छात्राओं का नेतृत्व करने लगीं।
- आत्मविश्वास में वृद्धि: उनके प्रोत्साहन से लेखिका में आत्मविश्वास बढ़ा और उनमें सार्वजनिक रूप से बोलने और अपनी पहचान बनाने का साहस आया।
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लेखिका ने अपने बचपन की कौन-कौन सी घटनाएँ इस आत्मकथांश में लिखी हैं?
लेखिका ने अपने बचपन और किशोरावस्था की कई महत्त्वपूर्ण घटनाएँ इस आत्मकथांश में लिखी हैं:
- उनके पिता का इंदौर से अजमेर आकर व्यापार करना और उनका नया घर।
- घर में साहित्यिक वातावरण और पिता के साहित्यिक मित्रों का आगमन।
- उनकी बचपन की 'अकमपटी' (कम समझदार) होने की भावना और बड़ी बहन सुशीला से उनकी तुलना।
- पिता का रंग-भेद का भाव (काले-गोरे का भेद), जिससे लेखिका के मन में हीन भावना आती थी।
- उनकी हिंदी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से जुड़ाव और उनके मार्गदर्शन में साहित्यिक रुचि का विकास।
- सन् 1946-47 के स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी, जुलूस निकालना और भाषण देना।
- पिता का उनके आंदोलन में भाग लेने पर गुस्सा होना और प्रिंसिपल से शिकायत करना।
- प्रिंसिपल द्वारा पिता को बुलाकर लेखिका की प्रशंसा करना और उन्हें भविष्य की नेता बताना।
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