अध्याय 4: मानवीय करुणा की दिव्य चमक
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
परिचय
‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा लिखित एक संस्मरण है। यह संस्मरण भारत में बेल्जियम से आए एक ऐसे विदेशी सन्यासी **फादर कामिल बुल्के** के जीवन और व्यक्तित्व को समर्पित है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। लेखक ने फादर बुल्के को 'मानवीय करुणा की दिव्य चमक' कहा है क्योंकि उनका जीवन करुणा, प्रेम और परोपकार से भरा था। यह पाठ उनके भारत प्रेम, हिंदी प्रेम, और उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का सजीव चित्रण प्रस्तुत करता है।
संस्मरण का सारांश
लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने **फादर कामिल बुल्के** को याद करते हुए इस संस्मरण की शुरुआत की है। वे बताते हैं कि फादर बुल्के की मृत्यु ज़हरबाद (गैंग्रीन) से हुई थी, जो कि एक दर्दनाक बीमारी है, और लेखक को यह अजीब लगता है कि ऐसे महान व्यक्ति की मृत्यु इतनी पीड़ादायक हुई। वे फादर को ऐसे व्यक्ति के रूप में याद करते हैं जो मानवीय करुणा से लबालब थे। उनकी नीली आँखें हमेशा प्रेम और वात्सल्य से भरी रहती थीं।
लेखक बताते हैं कि फादर बुल्के बेल्जियम के **रेम्सचैपल** नामक स्थान से भारत आए थे। वे वहाँ इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ कर सन्यासी बन गए थे। उनके मन में हमेशा भारत जाने की इच्छा थी, जिसे उन्होंने अपने परिवार से व्यक्त किया था। उनके पिता व्यापारी थे, भाई भी थे, और एक बहन थी जो बहुत जिद्दी थी। वे उन सबसे विदा लेकर भारत आ गए।
भारत आकर उन्होंने **सेंट जेवियर्स कॉलेज, राँची** में हिंदी और संस्कृत की पढ़ाई की। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. किया और अपना शोध कार्य (पीएच.डी.) भी किया, जिसका विषय था **'रामकथा: उत्पत्ति और विकास'**। इसके बाद उन्होंने **'ब्लू बर्ड'** नामक नाटक का हिंदी रूपांतरण **'नील पंछी'** नाम से किया। उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य था **हिंदी-अंग्रेज़ी शब्दकोश (डिक्शनरी) तैयार करना**, जिसे उन्होंने वर्षों की मेहनत से पूरा किया। वे बाइबिल का हिंदी अनुवाद करने वाली समिति के भी सदस्य थे।
फादर बुल्के का जीवन सादगीपूर्ण था। वे हमेशा सफेद चोगे (कपड़े) में रहते थे। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रबल समर्थक थे और इसके लिए अथक प्रयास करते थे। वे जब भी हिंदी के उपेक्षित होने की बात सुनते, तो उन्हें गुस्सा आता था। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखकर गर्व महसूस करते थे।
फादर बुल्के लेखक के परिवारिक सदस्य जैसे थे। वे लेखक के बच्चों के नामकरण-संस्कार में शामिल हुए, उनके बच्चों के विवाह में बड़े-बुज़ुर्ग की तरह आशीर्वाद दिया। जब लेखक की पत्नी का देहांत हुआ, तो फादर ने उन्हें सांत्वना दी, जो लेखक को आज भी याद है। वे सभी से प्रेम और अपनत्व का रिश्ता रखते थे। दिल्ली में जब वे बीमार होते थे, तो उनके मित्र उन्हें देखते थे। वे दूसरों के दुख में तुरंत शामिल हो जाते थे और अपनी सांत्वना से दुख दूर कर देते थे।
लेखक को फादर की अंतिम यात्रा भी याद है, जिसमें दिल्ली के बड़े-बड़े साहित्यकार, वैज्ञानिक, धर्मगुरु और आम लोग शामिल थे। वे सब दुखी थे क्योंकि उन्होंने एक महान आत्मा को खो दिया था। फादर को अंतिम बार दिल्ली के कश्मीरी गेट कब्रिस्तान में दफनाया गया। जिस प्रकार एक घना, फलदार और सुगंधित वृक्ष अपनी छाया देता है, उसी प्रकार फादर बुल्के का व्यक्तित्व भी लोगों को शांति और प्रेम देता था। लेखक ने उन्हें **'मानवीय करुणा की दिव्य चमक'** कहा है, क्योंकि उनकी उपस्थिति दूसरों को सुख और शांति प्रदान करती थी।
फादर बुल्के ने भारत में रहते हुए कभी अपने मूल देश बेल्जियम या अपने परिवार को भुलाया नहीं। जब भी उन्हें याद आती थी, वे दुखी हो जाते थे। वे अपनी माँ को बहुत याद करते थे, और उनके पत्रों से पता चलता था कि उनकी माँ को भी उनकी बहुत चिंता रहती थी। हालाँकि, भारत उनके लिए कर्मभूमि था और वे इसे अपना घर मानते थे।
लेखक अंत में कहते हैं कि फादर बुल्के जैसे व्यक्तित्व का खोना हिंदी और भारतीय समाज के लिए एक अपूरणीय क्षति है। उनका स्मरण एक यज्ञ की पवित्र अग्नि के समान है, जो लोगों के मन में हमेशा जलती रहेगी और उन्हें प्रेरणा देती रहेगी।
प्रमुख व्यक्तित्व
- फादर कामिल बुल्के: इस संस्मरण के केंद्रीय पात्र। वे बेल्जियम से आए एक जेसुइट पादरी थे जिन्होंने हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम प्रदर्शित किया। उनका जीवन मानवीय करुणा, प्रेम, परोपकार, अकादमिक निष्ठा और हिंदी भक्ति का प्रतीक था।
- लेखक (सर्वेश्वर दयाल सक्सेना): संस्मरणकार जो फादर बुल्के के गहरे मित्र थे। उन्होंने फादर के व्यक्तित्व का सूक्ष्मता से अवलोकन किया और उनकी स्मृतियों को इस पाठ में सजीव किया है।
मुख्य विषय
- मानवीय करुणा और परोपकार: फादर बुल्के का जीवन प्रेम, सहानुभूति और दूसरों के प्रति निस्वार्थ सेवा का प्रतीक था। वे हर किसी के सुख-दुख में शामिल होते थे और उन्हें सांत्वना देते थे।
- भाषा और संस्कृति प्रेम: बेल्जियम से आए होकर भी फादर बुल्के ने हिंदी भाषा को अपनाया, उसमें पीएचडी की, शब्दकोश बनाया और उसे राष्ट्रभाषा बनाने के लिए संघर्ष किया। यह उनका हिंदी और भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम दर्शाता है।
- साहित्यिक योगदान: फादर बुल्के का हिंदी साहित्य को शब्दकोश और शोधकार्य के माध्यम से दिया गया योगदान अमूल्य है, जो उनके ज्ञान और निष्ठा को दर्शाता है।
- साधुता और संकल्प: इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर सन्यासी बनना और फिर भारत आकर हिंदी के लिए समर्पित हो जाना, उनके दृढ़ संकल्प और साधुता को प्रकट करता है।
- संस्मरण लेखन की विशेषता: यह पाठ दिखाता है कि संस्मरण कैसे एक व्यक्ति के व्यक्तित्व की विभिन्न परतों को खोलता है और उसके प्रभाव को दर्शाता है।
पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर
प्रश्न अभ्यास (पृष्ठ संख्या 105-106)
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लेखक ने फादर बुल्के को 'मानवीय करुणा की दिव्य चमक' क्यों कहा है?
लेखक ने फादर बुल्के को 'मानवीय करुणा की दिव्य चमक' इसलिए कहा है क्योंकि:
- उनका हृदय **करुणा और प्रेम** से परिपूर्ण था। वे जिससे भी मिलते, उससे आत्मीय संबंध बना लेते थे।
- वे हमेशा दूसरों के **सुख-दुख** में शामिल होते थे। किसी के भी दुख में वे तुरंत पहुँच जाते और अपनी सांत्वना से उसे शांत कर देते थे, जैसे कोई बड़ा भाई या पुरोहित करता हो।
- वे किसी पर क्रोधित नहीं होते थे, बल्कि सभी के प्रति **वात्सल्य और अपनत्व** का भाव रखते थे।
- उनकी आँखें हमेशा प्रेम और आशीर्वाद से भरी रहती थीं। उनकी उपस्थिति मात्र से लोगों को **शांति और पवित्रता** का अनुभव होता था।
- उन्होंने अपना जीवन परोपकार और हिंदी भाषा के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया।
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फादर बुल्के भारतीय संस्कृति के एक अभिन्न अंग हैं, किस आधार पर ऐसा कहा गया है?
फादर बुल्के भारतीय संस्कृति के एक अभिन्न अंग इसलिए कहे गए हैं क्योंकि:
- वे बेल्जियम से आकर भारत में ही बस गए थे और उन्होंने भारत को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। उन्होंने यहाँ की संस्कृति को पूर्णतः आत्मसात कर लिया था।
- उन्होंने हिंदी भाषा को सीखा, उसमें एम.ए. किया, पीएच.डी. की और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जीवन भर संघर्ष किया। उनका हिंदी-अंग्रेज़ी शब्दकोश उनका हिंदी के प्रति अगाध प्रेम और सेवा का प्रमाण है।
- वे रामकथा पर शोध कर भारतीय संस्कृति की जड़ों तक गए।
- वे भारतीय त्योहारों, रीति-रिवाजों और सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से भाग लेते थे। लेखक के परिवार के साथ उनका रिश्ता किसी भारतीय परिवार के मुखिया जैसा था।
- उन्होंने कभी अपने मूल देश या संस्कृति का दिखावा नहीं किया, बल्कि भारतीय परिवेश में घुल-मिल गए।
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पाठ में आए उन प्रसंगों का उल्लेख कीजिए जिनसे फादर बुल्के का हिंदी प्रेम प्रकट होता है।
पाठ में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनसे फादर बुल्के का हिंदी प्रेम प्रकट होता है:
- उन्होंने इलाहाबाद से हिंदी में एम.ए. किया और अपना शोध **'रामकथा: उत्पत्ति और विकास'** हिंदी में ही पूरा किया।
- उन्होंने प्रसिद्ध नाटक **'ब्लू बर्ड' का हिंदी में 'नील पंछी'** के नाम से अनुवाद किया।
- उन्होंने वर्षों की मेहनत से **हिंदी-अंग्रेज़ी शब्दकोश (डिक्शनरी)** तैयार किया, जो हिंदी भाषा के लिए एक अमूल्य देन है।
- वे **बाइबिल का हिंदी अनुवाद** करने वाली समिति के भी सदस्य थे।
- वे हिंदी को **राष्ट्रभाषा बनाने के प्रबल समर्थक** थे और हर हिंदी भाषी को हिंदी की उपेक्षा पर डाँटते थे। उन्हें हिंदी के प्रति उदासीनता बर्दाश्त नहीं थी।
- जब दिल्ली में उनका देहांत हुआ तो उनकी अंतिम यात्रा में सभी प्रमुख साहित्यकार और हिंदी प्रेमी शामिल हुए, जो उनके हिंदी जगत में सम्मान को दर्शाता है।
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इस पाठ के आधार पर फादर कामिल बुल्के की जो छवि आपके मन में बनती है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
इस पाठ को पढ़कर मेरे मन में फादर कामिल बुल्के की एक अत्यंत ही पवित्र, स्नेही और समर्पित व्यक्ति की छवि बनती है। वे एक ऐसे सन्यासी थे जिनका हृदय मानवीय करुणा से ओत-प्रोत था। उनकी आँखों में हमेशा प्रेम और वात्सल्य का भाव रहता था, जिससे मिलने वाले को गहरी शांति और अपनापन महसूस होता था। वे परोपकारी स्वभाव के थे और दूसरों के दुख में तुरंत शामिल हो जाते थे, अपनी सांत्वना से दुख दूर कर देते थे।
फादर बुल्के को हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति से अगाध प्रेम था। उन्होंने हिंदी को अपनाकर उसमें उच्च शिक्षा प्राप्त की, शोध कार्य किया और एक विशाल शब्दकोश तैयार किया। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे और इसकी उपेक्षा पर क्रोधित हो जाते थे। उनका जीवन सादगीपूर्ण था, लेकिन उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली और तेजस्वी था, जैसे कोई घना, फलदार और सुगंधित वृक्ष अपनी छाया देता है। वे एक ऐसे विदेशी संत थे जिन्होंने भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया और यहाँ की संस्कृति में पूरी तरह रच-बस गए। वे केवल एक धार्मिक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विद्वान, एक भाषाविद् और एक सच्चे मानवीय मूल्य वाले इंसान थे। -
लेखक ने फादर बुल्के को 'देवदारु की छाया' क्यों कहा है?
लेखक ने फादर बुल्के को 'देवदारु की छाया' इसलिए कहा है क्योंकि:
- विशालता और सघनता: देवदारु का वृक्ष बहुत ऊँचा, घना और विशाल होता है, जो बहुत दूर तक अपनी छाया फैलाता है। इसी तरह, फादर बुल्के का व्यक्तित्व भी बहुत विशाल और व्यापक था।
- शीतलता और शांति: देवदारु की छाया शीतल और आरामदायक होती है। फादर बुल्के की उपस्थिति भी लोगों को ऐसी ही शीतलता और शांति प्रदान करती थी। वे दूसरों के दुख में अपनी करुणा और सांत्वना से उन्हें आराम देते थे।
- स्थिरता और दृढ़ता: देवदारु का वृक्ष स्थिर और अडिग होता है। फादर बुल्के भी अपने सिद्धांतों, हिंदी प्रेम और मानवीय मूल्यों पर अडिग थे।
- औदार्य और परोपकार: जिस प्रकार वृक्ष बिना किसी भेद-भाव के सभी को अपनी छाया देता है, उसी प्रकार फादर बुल्के भी सभी से प्रेम करते थे और बिना किसी अपेक्षा के दूसरों की मदद करते थे।
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