अध्याय 2: बालगोबिन भगत
रामवृक्ष बेनीपुरी
परिचय
‘बालगोबिन भगत’ रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखा गया एक सुंदर रेखाचित्र है। यह कहानी एक ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व का परिचय कराती है जो गृहस्थ जीवन जीते हुए भी एक सच्चे साधु या संत के गुणों को धारण करता है। बालगोबिन भगत कबीर के सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारते हैं और समाज को यह संदेश देते हैं कि संन्यास का अर्थ घर-बार छोड़ना नहीं, बल्कि मोह-माया से मुक्त होकर सादगी, निष्ठा और भक्ति का जीवन जीना है।
कहानी का सारांश
बालगोबिन भगत एक मझोले कद के, गोरे रंग के साठ वर्ष से ऊपर के व्यक्ति थे। उनके बाल पक चुके थे और दाढ़ी नहीं रखते थे। वे हमेशा साफ-सुथरे कपड़े पहनते थे, जिसमें सिर पर कबीरपंथियों जैसी कनफटी टोपी, गले में तुलसी की जड़ों की बेडोल माला और माथे पर रामानंदी चंदन का टीका लगा होता था। सर्दियों में एक काली कमली (कंबल) ओढ़ लेते थे। वे गृहस्थ थे, लेकिन उनका आचरण साधुओं जैसा था।
बालगोबिन भगत कबीर को अपना साहब (गुरु) मानते थे। वे कबीर के गीतों को बड़े मधुर स्वर में गाते थे। उनके खेतों में काम करते समय, भोर में प्रभातियाँ गाते समय या गाँव में भजन करते समय उनका संगीत लोगों को मंत्रमुग्ध कर देता था। आषाढ़ मास में जब धान की रोपाई होती थी, तब उनके गीत सुनकर सभी किसान और मजदूर झूम उठते थे। भादों की अंधेरी रातों में उनकी खंजड़ी की आवाज़ और प्रभातियाँ गाँव में जीवन भर देती थीं। कार्तिक मास में उनकी प्रभातियाँ शुरू होती थीं और फागुन तक चलती थीं। ठंड के दिनों में भी वे प्रभातियाँ गाते हुए नदी-स्नान के लिए जाते और वापस आकर भजन करते थे।
भगत जी का व्यवहार बहुत सीधा और सच्चा था। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे, किसी से झगड़ा नहीं करते थे और किसी की चीज़ बिना पूछे नहीं लेते थे। उनका खेत भी था और खेती-बाड़ी करके अपना जीवन निर्वाह करते थे। वे अपनी सारी पैदावार कबीरपंथी मठ पर चढ़ा देते थे और वहाँ से जो प्रसाद के रूप में मिलता, उसी से अपना गुजर-बसर करते थे।
उनका एक बेटा और एक बहू थी। वे अपने बेटे से बहुत प्यार करते थे, लेकिन बेटा थोड़ा सुस्त और बोदा (कमजोर) था। भगत जी का मानना था कि ऐसे ही लोगों को अधिक प्यार और देखभाल की ज़रूरत होती है। दुर्भाग्यवश, उनका बेटा बीमार पड़ गया और उसकी मृत्यु हो गई। बेटे की मृत्यु पर भी भगत जी ने शोक नहीं मनाया। उन्होंने अपने बेटे के शव को एक चटाई पर लिटाकर, फूल और तुलसी के पत्ते सजाकर रखा, और उसके पास बैठकर कबीर के भक्ति गीत गाते रहे। वे बहू को भी रोने से मना करते थे और उसे उत्सव मनाने को कहते थे क्योंकि उनके अनुसार आत्मा परमात्मा से मिल गई थी, और यह एक आनंद का क्षण था।
उन्होंने अपनी बहू के भाई को बुलाया और उसे आदेश दिया कि वह अपनी बहन का दूसरा विवाह करवा दे। बहू चाहती थी कि वह भगत जी की सेवा में रहे, लेकिन भगत जी अपने सिद्धांतों के पक्के थे। उन्होंने कहा कि अगर बहू नहीं गई, तो वे घर छोड़कर चले जाएँगे। अंततः, बहू को जाना पड़ा। यह उनकी त्याग भावना और सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने का परिचायक था, क्योंकि वे विधवा विवाह के पक्षधर थे।
बालगोबिन भगत हर साल गंगा स्नान के लिए जाते थे, जो करीब तीस कोस दूर था। वे पैदल ही जाते और आते थे। घर से खाकर चलते और वापस आकर ही खाते। रास्ते में कहीं भी कुछ नहीं खाते थे, बस अपनी खंजड़ी बजाते और गीत गाते जाते थे।
उनकी मृत्यु भी उन्हीं के सिद्धांतों के अनुरूप हुई। वे हर दिन गंगा स्नान के बाद गंगाजल पीते थे और भजन गाते थे। धीरे-धीरे वे कमज़ोर होते गए, लेकिन अपने नियम नहीं छोड़े। एक दिन सुबह लोगों ने उनके गीत नहीं सुने। जाकर देखा तो बालगोबिन भगत का निर्जीव शरीर पड़ा था। उनकी मृत्यु शांत और स्वाभाविक थी, जैसे एक साधु की होनी चाहिए। इस प्रकार, बालगोबिन भगत ने गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी एक सच्चे संत का जीवन जिया और समाज को आदर्श जीवन का मार्ग दिखाया।
मुख्य पात्र
- बालगोबिन भगत: कहानी के मुख्य पात्र, एक गृहस्थ साधु जो कबीर के सिद्धांतों का पालन करते हैं। वे सादगी, निष्ठा, भक्ति और निस्वार्थता के प्रतीक हैं।
- लेखक (रामवृक्ष बेनीपुरी): स्वयं एक पात्र के रूप में उपस्थित हैं जो बालगोबिन भगत के व्यक्तित्व और उनके जीवन-दर्शन का गहन अवलोकन करते हैं और उनका रेखाचित्र प्रस्तुत करते हैं।
- भगत का बेटा: थोड़ा सुस्त और बोदा होने के बावजूद भगत जी का प्रिय पात्र, जिसकी मृत्यु भगत जी के विलक्षण स्वभाव को उजागर करती है।
- भगत की बहू: सुशील और समझदार स्त्री, जो भगत जी की सेवा करना चाहती है, लेकिन उनके आदेश पर दूसरा विवाह कर लेती है। वह त्याग और आज्ञाकारिता का प्रतीक है।
मुख्य विषय
- गृहस्थ में साधुता: कहानी का मुख्य विषय यह है कि सच्चा साधु या संन्यासी बनने के लिए घर-बार छोड़ने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि मन की शुद्धि, मोह-माया का त्याग, और निष्ठापूर्ण आचरण ही महत्वपूर्ण है। बालगोबिन भगत गृहस्थ होते हुए भी साधु थे।
- कबीर के सिद्धांतों का पालन: बालगोबिन भगत कबीर के आदर्शों, जैसे निरंकार ईश्वर में विश्वास, आडंबरहीनता, समानता और प्रेम का पूरी निष्ठा से पालन करते हैं।
- सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार: भगत जी अपने बेटे की मृत्यु पर शोक न मनाकर, बल्कि आनंद मनाने का उपदेश देकर और अपनी विधवा बहू का पुनर्विवाह करवाकर सामाजिक रूढ़ियों (जैसे मृत्यु पर अत्यधिक शोक और विधवा-विवाह निषेध) पर करारा प्रहार करते हैं।
- साहित्य और संगीत का महत्व: भगत जी के जीवन में संगीत और लोकगीतों का गहरा महत्व दिखाया गया है, जो उनके व्यक्तित्व को और भी आकर्षक बनाता है और उनकी भक्ति को व्यक्त करता है।
- मानवीय संवेदनाएँ: कहानी में दुख, प्रेम, वात्सल्य और त्याग जैसी मानवीय संवेदनाओं को बालगोबिन भगत के माध्यम से बड़ी गहराई से दर्शाया गया है।
पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर
प्रश्न अभ्यास (पृष्ठ संख्या 78-79)
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बालगोबिन भगत गृहस्थ थे, फिर भी उन्हें साधु क्यों कहा जाता था?
बालगोबिन भगत गृहस्थ होते हुए भी साधु इसलिए कहलाते थे क्योंकि उनका आचरण और विचार साधुओं जैसे थे। उनमें निम्नलिखित विशेषताएँ थीं:
- वे कबीर के पक्के अनुयायी थे और उन्हीं के आदर्शों पर चलते थे।
- वे कभी झूठ नहीं बोलते थे और सबसे खरा व्यवहार करते थे।
- किसी से भी झगड़ा नहीं करते थे और बिना पूछे किसी की चीज़ नहीं छूते थे।
- उनके पास जो कुछ भी था, वह सब 'साहब' (कबीर) का मानते थे। वे अपने खेत की सारी पैदावार पहले कबीरपंथी मठ में ले जाते और वहाँ से प्रसाद स्वरूप जो मिलता, उसी से गुजर-बसर करते थे।
- उनमें सांसारिक मोह-माया का बिल्कुल भी आकर्षण नहीं था। बेटे की मृत्यु पर भी वे शोक नहीं मनाते, बल्कि आत्मा-परमात्मा के मिलन का उत्सव मनाते हैं।
- वे अपनी विधवा बहू का पुनर्विवाह करवा देते हैं, जो सामाजिक रूढ़ियों का त्याग और सच्ची संत प्रवृत्ति का प्रमाण है।
- उनका जीवन सादा, निष्ठावान और भक्तिपूर्ण था।
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भगत की पुत्रवधू उन्हें अकेला क्यों नहीं छोड़ना चाहती थी?
भगत की पुत्रवधू उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी क्योंकि:
- भगत जी बूढ़े हो चुके थे और उनके बेटे की मृत्यु के बाद उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था।
- उन्हें डर था कि भगत जी बुढ़ापे में भोजन कौन बनाएगा और कौन उनकी सेवा करेगा।
- भगत जी के प्रतिदिन के नियम-पालन, जैसे गंगा-स्नान, भजन-गायन आदि में सहायता की आवश्यकता होती थी।
- वह स्वयं एक सुशील और कर्तव्यपरायण स्त्री थी और पति के न रहने पर ससुर की सेवा करना अपना धर्म मानती थी।
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भगत ने अपने बेटे की मृत्यु पर अपनी भावनाएँ किस प्रकार व्यक्त कीं?
भगत ने अपने बेटे की मृत्यु पर शोक या विलाप नहीं किया, बल्कि अपनी भावनाओं को बिल्कुल अलग और विलक्षण तरीके से व्यक्त किया। उन्होंने बेटे के मृत शरीर को एक चटाई पर लिटाकर, उस पर फूल और तुलसी के पत्ते बिखेर दिए। पास ही एक दीपक जलाया और कबीर के भक्ति गीत गाने लगे। वे पूरे तल्लीन होकर गीत गा रहे थे। वे अपनी बहू को भी रोने से मना करते रहे और उसे उत्सव मनाने को कहते थे। उनके अनुसार, आत्मा परमात्मा से मिल गई थी और विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली थी, इसलिए यह खुशी का अवसर था। इस प्रकार, उन्होंने मृत्यु को दुख की नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन की घड़ी मानकर अपनी आस्था और आध्यात्मिक चिंतन को प्रकट किया।
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भगत के संगीत का जादू क्या था?
भगत के संगीत में अद्भुत जादू था, जो लोगों को मोहित कर देता था। उनका संगीत निम्नलिखित कारणों से जादुई था:
- मधुरता और लय: उनके स्वरों में ऐसी मधुरता और लय थी कि सुनते ही लोग झूम उठते थे।
- मौसम पर प्रभाव: आषाढ़ में धान की रोपाई के समय उनके गीत सुनकर बच्चे, स्त्रियाँ और किसान सभी एक लय में काम करने लगते थे। भादों की अंधेरी रातों में उनकी खंजड़ी की आवाज़ और प्रभातियाँ सन्नाटे को तोड़कर जीवन भर देती थीं।
- भक्ति भाव: उनके गीत कबीर के भक्ति-पद होते थे, जो सीधे हृदय को छूते थे और सुनने वालों को ईश्वरीय प्रेम में लीन कर देते थे।
- सार्वजनिक प्रभाव: उनका संगीत केवल व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि समूह में, खेतों में, और गलियों में भी गाते हुए लोगों को प्रभावित करता था और उन्हें एक नई ऊर्जा देता था।
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पाठ के आधार पर बालगोबिन भगत के दिनचर्या का वर्णन कीजिए।
बालगोबिन भगत की दिनचर्या अत्यंत नियमित और अनुशासित थी:
- सुबह जल्दी उठना: वे रोज़ाना भोर में तारे रहते ही उठ जाते थे।
- नदी स्नान: उठकर दो मील दूर स्थित नदी में स्नान के लिए जाते थे, भले ही कितनी भी ठंड क्यों न हो।
- प्रभातियाँ और भजन: स्नान से लौटकर गाँव के पोखरे के ऊँचे भिंडे पर बैठकर अपनी खंजड़ी बजाते हुए प्रभातियाँ और भजन गाते थे। यह क्रिया फागुन से कार्तिक तक चलती थी।
- खेत में कार्य: वे अपनी खेती-बाड़ी का काम भी करते थे, कभी धान की रोपाई करते तो कभी फसल की कटाई।
- कबीरपंथी मठ में पैदावार देना: अपनी सारी पैदावार पहले कबीरपंथी मठ में चढ़ाते और वहाँ से जो मिलता, उसी से घर चलाते थे।
- गंगा स्नान की यात्रा: हर साल तीस कोस दूर गंगा स्नान के लिए पैदल जाते थे, रास्ते में कुछ भी नहीं खाते थे और वापस आकर ही खाते थे।
- नियमों का पालन: वे अपने जीवन के नियमों और सिद्धांतों का इतनी दृढ़ता से पालन करते थे कि अंत समय तक भी अपने नियम नहीं छोड़े, भले ही उनका शरीर दुर्बल हो गया था।
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बालगोबिन भगत के किन विशेषताओं पर रामवृक्ष बेनीपुरी मुग्ध थे?
रामवृक्ष बेनीपुरी बालगोबिन भगत की अनेक विशेषताओं पर मुग्ध थे:
- साधुतापूर्ण व्यवहार: गृहस्थ होते हुए भी उनका साधु जैसा पवित्र और निष्काम जीवन।
- कबीर के प्रति अटूट श्रद्धा: कबीर के सिद्धांतों का अक्षरशः पालन करना और उन्हें अपना साहब मानना।
- मधुर संगीत: उनके कंठ से निकले कबीर के पदों की मधुरता और उनका जादुई प्रभाव।
- सरल और सच्चा व्यक्तित्व: कभी झूठ न बोलना, किसी से झगड़ा न करना, और बिना पूछे किसी की चीज़ न लेना।
- सामाजिक रूढ़ियों का खंडन: बेटे की मृत्यु पर शोक न मनाना और विधवा बहू का पुनर्विवाह करवाना, जो उनकी प्रगतिशील सोच को दर्शाता है।
- त्याग और निस्वार्थता: अपनी सारी उपज कबीरपंथी मठ में चढ़ा देना और प्रसाद से जीवनयापन करना।
- अनुशासित दिनचर्या: उनकी अत्यंत नियमित और कठोर दिनचर्या, जिसे वे अंत तक निभाते रहे।
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कबीर के प्रति बालगोबिन भगत की अगाध श्रद्धा किन रूपों में प्रकट हुई है?
कबीर के प्रति बालगोबिन भगत की अगाध श्रद्धा निम्नलिखित रूपों में प्रकट हुई है:
- अनुसरण: वे कबीर को अपना 'साहब' मानते थे और उन्हीं के आदर्शों तथा सिद्धांतों का अक्षरशः पालन करते थे।
- संगीत: वे केवल कबीर के पद ही गाते थे, और उन्हें पूरी श्रद्धा के साथ अपने दैनिक जीवन में उतारते थे।
- समर्पण: वे अपने खेतों की सारी पैदावार कबीरपंथी मठ पर चढ़ा देते थे और वहाँ से प्रसाद के रूप में मिली चीज़ों से ही अपना जीवन निर्वाह करते थे।
- विचारधारा: बेटे की मृत्यु पर उनका व्यवहार (शोक न मनाना, आत्मा-परमात्मा का मिलन बताना) और विधवा बहू के पुनर्विवाह का आग्रह, कबीर की निर्गुण भक्ति और सामाजिक समानता की विचारधारा का ही परिणाम था।
- सादगी और आडंबरहीनता: उनकी वेशभूषा, सादगी भरा जीवन, और निस्वार्थ भाव भी कबीर के सिद्धांतों से प्रभावित थे।
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आपके विचार से बालगोबिन भगत की मृत्यु किस प्रकार हुई होगी?
पाठ के आधार पर, ऐसा प्रतीत होता है कि बालगोबिन भगत की मृत्यु स्वाभाविक रूप से और अत्यंत शांतिपूर्वक हुई होगी। लेखक बताते हैं कि वे अपनी उम्र के साथ-साथ कमज़ोर होते जा रहे थे, लेकिन उन्होंने अपनी दिनचर्या और नियमों का पालन नहीं छोड़ा। वे प्रतिदिन गंगा स्नान के लिए जाते रहे और भजन गाते रहे। अंतिम दिन भी उन्होंने अपने नियम निभाए, लेकिन उनकी आवाज़ में कमज़ोरी थी। अगले दिन सुबह लोगों ने उनके भजन नहीं सुने, और जाकर देखा तो वे शांत पड़े थे, मानो सो रहे हों। इससे पता चलता है कि उनकी मृत्यु किसी बीमारी या संघर्ष से नहीं, बल्कि धीरे-धीरे शरीर के क्षीण होने के कारण हुई, जैसे एक सच्चे संत या तपस्वी की जीवनलीला समाप्त होती है – बिना किसी कष्ट और शांतिपूर्ण ढंग से।
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