अध्याय 11: उत्साह और अट नहीं रही है

कवि: सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

कवि परिचय

**सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'** (जन्म: 1896, महिषादल, मेदिनीपुर, बंगाल; मृत्यु: 1961, प्रयागराज) हिंदी साहित्य के **छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों** में से एक हैं। वे अपनी ओजपूर्ण कविताओं, मुक्त छंद के प्रवर्तन और क्रांतिकारी विचारों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने कविता के साथ-साथ उपन्यास, कहानी और निबंध भी लिखे हैं। उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीय चेतना, प्रकृति प्रेम और मानवीय संवेदनाओं का गहरा चित्रण मिलता है। उनकी प्रमुख काव्य कृतियों में 'अनामिका', 'परिमल', 'गीतिका', 'तुलसीदास', 'कुकुरमुत्ता' आदि शामिल हैं। 'उत्साह' और 'अट नहीं रही है' उनकी दो प्रसिद्ध कविताएँ हैं जो क्रमशः क्रांति और प्रकृति के सौंदर्य पर केंद्रित हैं।

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कविता का सार: 'उत्साह'

**'उत्साह'** कविता एक **आह्वान गीत** है। इसमें कवि **बादलों** को संबोधित करते हुए उन्हें **क्रांति और परिवर्तन** का प्रतीक मानता है। बादल दो रूपों में दिखाई देते हैं – एक तरफ वे पीड़ित और प्यासे लोगों की आशाओं को पूरा करने वाले हैं, तो दूसरी तरफ वे विध्वंस, विप्लव और क्रांति चेतना के प्रतीक हैं।

                बादल, गरजो!
                घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ!
                ललित ललित, काले घुँघराले,
                बाल कल्पना के से पाले,
                विद्युत-छवि उर में, कवि, नवजीवन वाले!
                वज्र छिपा नूतन कविता
                फिर भर दो – बादल, गरजो!

                विक्ल विक्ल उनमन थे उनमन
                विश्व के निदाघ के सकल जन,
                आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!
                तप्त धरा जल से फिर
                शीतल कर दो – बादल, गरजो!
            

कवि बादलों से **घोर गर्जन** करने का आह्वान करता है। वे बादलों को सुंदर और घुंघराले काले बालों के समान बताता है, जो बच्चों की कल्पनाओं की तरह पाले हुए लगते हैं। कवि कहता है कि बादलों के हृदय में बिजली की चमक (क्रांति की चेतना) छिपी हुई है, और वे कवि के समान नवजीवन प्रदान करने वाले हैं। कवि बादलों से आग्रह करता है कि वे अपने भीतर वज्र (कठोरता, शक्ति) छिपाकर रखें और नई कविता (नया जीवन, नई चेतना) का संचार करें।

अगले छंद में, कवि कहता है कि संसार के सभी लोग गर्मी (दुख, शोषण, पीड़ा) से व्याकुल और परेशान थे। ऐसे में अज्ञात दिशाओं से आए अनंत बादल (क्रांति के दूत) इस तपती हुई धरती को अपने जल से (परिवर्तन से) शीतल कर दें।

यह कविता **क्रांतिकारी कविताओं** की श्रेणी में आती है। यहाँ बादल केवल प्राकृतिक वर्षा के प्रतीक नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन, क्रांति और अन्याय के विरुद्ध विद्रोह के प्रतीक हैं। कवि शोषितों के मन में उत्साह भरना चाहता है और उन्हें परिवर्तन के लिए प्रेरित करना चाहता है। यह कविता **आशा, उत्साह और नवीनता** का संदेश देती है।

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कविता का सार: 'अट नहीं रही है'

**'अट नहीं रही है'** कविता में कवि **सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'** ने **फागुन (वसंत ऋतु)** की मनमोहक सुंदरता का चित्रण किया है। फागुन मास में प्रकृति इतनी सुंदर और आकर्षक हो जाती है कि उसकी सुंदरता को कहीं समाहित करना मुश्किल हो जाता है। प्रकृति का सौंदर्य इतना अधिक है कि वह 'अट नहीं रही है' (समा नहीं रही है)।

                अट नहीं रही है
                आभा फागुन की तन
                सट नहीं रही है।

                कहीं साँस लेते हो,
                घर-घर भर देते हो,
                उड़ने को नभ में तुम
                पर-पर कर देते हो,
                आँख हटाता हूँ तो
                हट नहीं रही है।

                पत्तों से लदी डाल
                कहीं हरी, कहीं लाल,
                कहीं पड़ी है उर में
                मंद गंध पुष्प माल,
                पाट-पाट शोभा श्री
                पट नहीं रही है।
            

कवि कहता है कि फागुन की आभा (सुंदरता) इतनी अधिक है कि वह शरीर में समा नहीं पा रही है। फागुन के महीने में जब हवा साँस लेती है (मंद-मंद बहती है), तो उसकी सुगंध से घर-घर महक उठते हैं। प्रकृति में चारों ओर इतनी सुंदरता और हल्कापन होता है कि पक्षियों के पंख फड़फड़ाने लगते हैं, मानो वे आकाश में उड़ने को आतुर हों। कवि कहता है कि इस सुंदरता से आँख हटाने की कोशिश करता हूँ, तो भी आँख हट नहीं पाती है।

फागुन में पेड़ों की डालियाँ नए पत्तों से लद जाती हैं – कहीं हरे पत्ते तो कहीं लाल-लाल कोंपलें दिखाई देती हैं। कहीं पेड़ों के गले में सुगंधित फूलों की माला पड़ी हुई है, यानी पेड़ फूलों से लदे हुए हैं। कवि कहते हैं कि फागुन की शोभा इतनी फैली हुई है कि वह किसी भी तरह समा नहीं पा रही है। हर जगह सौंदर्य ही सौंदर्य बिखरा हुआ है।

यह कविता प्रकृति के **सौंदर्य और उन्माद** का अद्भुत वर्णन करती है। कवि फागुन की सुंदरता को एक जीवंत रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसमें रंग, सुगंध और गति का अद्भुत मेल है। यह कविता प्रकृति के अनुपम सौंदर्य के प्रति कवि की गहन **अनुभूति और प्रेम** को दर्शाती है।

एक तरफ गरजते हुए बादल और दूसरी तरफ फूलों से लदा वसंत का दृश्य।

मुख्य बिंदु

'उत्साह' कविता के लिए:

'अट नहीं रही है' कविता के लिए:

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर

'उत्साह' पर आधारित प्रश्न

  1. कवि बादल से 'गरजने' के लिए क्यों कहता है, 'बरसने' के लिए क्यों नहीं?

    कवि बादल से 'गरजने' के लिए कहता है, 'बरसने' के लिए नहीं, क्योंकि यहाँ बादल केवल प्राकृतिक वर्षा के प्रतीक नहीं हैं। 'गरजना' **विद्रोह, क्रांति, परिवर्तन और उत्साह** का प्रतीक है। कवि चाहता है कि समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण और निराशा के खिलाफ एक **क्रांतिकारी चेतना** जागे। जिस प्रकार बादल अपनी गर्जना से लोगों में उत्तेजना और भय पैदा करते हैं, उसी प्रकार कवि चाहता है कि उसके काव्य में भी इतनी शक्ति हो कि वह सोए हुए समाज में क्रांति का बिगुल फूंक सके। 'बरसना' शांति और शीतलता का प्रतीक हो सकता है, लेकिन कवि का उद्देश्य शांत करना नहीं, बल्कि **परिवर्तन की आग** जलाना है।

  2. कविता का शीर्षक 'उत्साह' क्यों रखा गया है?

    कविता का शीर्षक 'उत्साह' इसलिए रखा गया है क्योंकि यह कविता **जीवन में उत्साह, स्फूर्ति, नवीनता और क्रांति की भावना** को जगाती है।

    • यह बादलों के गर्जन के माध्यम से **क्रांति का आह्वान** करती है, जो निराशा में डूबे लोगों में नया उत्साह भर सके।
    • यह समाज में **परिवर्तन लाने की इच्छा** और उसके लिए **संघर्ष करने की प्रेरणा** देती है।
    • कवि स्वयं को भी बादलों के समान 'नवजीवन वाले' कवि के रूप में देखता है, जो अपनी कविता से लोगों में नया उत्साह भरता है।
    कुल मिलाकर, कविता का मूल भाव ही एक सकारात्मक ऊर्जा और परिवर्तन के लिए तैयार रहने का **उत्साह** है, इसलिए यह शीर्षक पूर्णतः सार्थक है।

  3. कविता में बादल किन-किन अर्थों की ओर संकेत करते हैं?

    कविता में बादल कई अर्थों की ओर संकेत करते हैं:

    • **क्रांति और विद्रोह का प्रतीक:** बादल का गर्जन समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण और रूढ़ियों के खिलाफ एक क्रांतिकारी बदलाव का प्रतीक है।
    • **नवजीवन और आशा का प्रतीक:** बादल वर्षा कर धरती को नया जीवन देते हैं, उसी प्रकार कवि बादलों के माध्यम से शोषित और दुखी लोगों में नई आशा और ऊर्जा का संचार करना चाहता है।
    • **शक्ति और कठोरता का प्रतीक:** बादलों के हृदय में 'विद्युत-छवि' और 'वज्र' छिपा है, जो उनकी असीम शक्ति और कठोरता को दर्शाता है, जिससे वे पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त कर सकें।
    • **सौंदर्य और कल्पना का प्रतीक:** 'ललित-ललित, काले घुँघराले', 'बाल कल्पना के से पाले' जैसे विशेषण बादलों के सौंदर्य और उनमें निहित कोमल कल्पनाओं की ओर भी संकेत करते हैं।
    • **अज्ञात शक्ति का प्रतीक:** 'अज्ञात दिशा से अनंत के घन' कहकर कवि उन अज्ञात शक्तियों या आंदोलनों की ओर इशारा करता है जो कहीं से भी उठकर परिवर्तन ला सकती हैं।
    इस प्रकार, बादल केवल प्राकृतिक परिघटना न होकर एक व्यापक सामाजिक, मानवीय और काव्यात्मक प्रतीक बन गए हैं।

'अट नहीं रही है' पर आधारित प्रश्न

  1. 'अट नहीं रही है' कविता में फागुन मास की सुंदरता का वर्णन कवि ने कैसे किया है?

    'अट नहीं रही है' कविता में कवि ने फागुन मास की सुंदरता का अत्यंत जीवंत और मोहक वर्णन किया है:

    • **चारों ओर व्याप्त आभा:** कवि कहता है कि फागुन की आभा (चमक, सौंदर्य) इतनी अधिक है कि वह 'अट नहीं रही है', अर्थात कहीं समा नहीं पा रही है। हर जगह सौंदर्य बिखरा हुआ है।
    • **खुशबूदार हवा:** जब फागुन में हवा साँस लेती है, तो उसकी सुगंध से घर-घर भर जाते हैं, जिससे वातावरण मनमोहक हो जाता है।
    • **हल्कापन और गति:** चारों ओर इतनी मादकता और हल्कापन है कि आकाश में पक्षी उड़ने को पर-पर कर रहे हैं (पंख फड़फड़ा रहे हैं)।
    • **हरे-लाल पत्ते और फूल:** पेड़ों की डालियाँ नए हरे पत्तों और लाल-लाल कोंपलों से लदी हैं। कहीं सुगंधित फूलों की मालाएं पेड़ों के उर (हृदय) पर पड़ी हैं, जिससे प्रकृति दुल्हन सी सजी लगती है।
    • **आँख न हट पाना:** कवि कहता है कि फागुन की सुंदरता इतनी सम्मोहक है कि आँख हटाने की कोशिश करने पर भी हट नहीं पाती है।
    इस प्रकार, कवि ने फागुन की सुंदरता को उसके हर पहलू से वर्णित किया है, जिसमें रंग, सुगंध, गति और व्यापकता सभी का अनुभव होता है।

  2. कवि की आँख फागुन की सुंदरता से क्यों नहीं हट रही है?

    कवि की आँख फागुन की सुंदरता से इसलिए नहीं हट रही है क्योंकि फागुन महीने में प्रकृति का सौंदर्य अपने **चरम पर** होता है। चारों ओर प्राकृतिक शोभा इतनी **मनमोहक, आकर्षक और लुभावनी** है कि कवि स्वयं को उससे अलग नहीं कर पा रहा है। पेड़ों पर नए हरे-लाल पत्ते, फूलों की सुगंध, हवा की मादकता और आकाश में उड़ते पक्षी – ये सभी दृश्य मिलकर एक ऐसा जादू रचते हैं जिससे कवि पूरी तरह सम्मोहित हो गया है। उसे लगता है कि प्रकृति की यह सुंदरता इतनी व्याप्त है कि वह कहीं 'अट' (समा) नहीं पा रही है। इस असीमित और विहंगम सौंदर्य के कारण कवि की आँखें उस पर से हट ही नहीं पा रही हैं।

  3. 'अट नहीं रही है' कविता में कवि ने प्रकृति के मानवीकरण का प्रयोग कैसे किया है? उदाहरण सहित समझाइए।

    'अट नहीं रही है' कविता में कवि ने प्रकृति का अत्यंत सुंदर मानवीकरण किया है। मानवीकरण तब होता है जब जड़ या अमूर्त वस्तुओं को मनुष्य जैसे गुण या क्रियाएँ करते हुए दिखाया जाता है।

    • **'कहीं साँस लेते हो, घर-घर भर देते हो'**: यहाँ फागुन की हवा को मनुष्य की तरह 'साँस लेते' हुए दिखाया गया है, और उसके सुगंध को 'घर-घर भर देने' की क्रिया से जोड़ा गया है। इससे फागुन की हवा सजीव और गतिशील प्रतीत होती है।
    • **'उड़ने को नभ में तुम, पर-पर कर देते हो'**: यहाँ कवि फागुन के प्रभाव से वातावरण में ऐसी स्फूर्ति का वर्णन करते हैं, जो पक्षियों को अपने पंख फड़फड़ाने (पर-पर करने) को प्रेरित करती है। यहाँ फागुन को एक ऐसी शक्ति के रूप में दिखाया गया है जो जीवों को क्रियाशील बना रही है।
    • **'कहीं पड़ी है उर में, मंद गंध पुष्प माल'**: यहाँ पेड़ों को मानवीय रूप में दर्शाया गया है, जिनके 'उर' (हृदय) पर फूलों की सुगंधित मालाएँ पड़ी हैं। इससे पेड़ जीवंत और सुंदर लगते हैं, मानो वे आभूषण पहने हों।
    इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि कवि ने फागुन को केवल एक मौसम न दिखाकर, उसे एक सजीव, क्रियाशील और मानवीय गुणों से युक्त सत्ता के रूप में प्रस्तुत किया है, जो अपनी सुंदरता से सबको मोहित कर रही है।



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