अध्याय 1: माता का अँचल
शिवपूजन सहाय
लेखक-परिचय
शिवपूजन सहाय (1893-1963) हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार थे। उनका जन्म बिहार के बक्सर जिले के उनवाँस गाँव में हुआ था। उन्होंने 'देहाती दुनिया' (1926) नामक एक आंचलिक उपन्यास लिखा, जिसे हिंदी का पहला आंचलिक उपन्यास माना जाता है। उनकी भाषा सरल, स्वाभाविक और ग्रामीण परिवेश के निकट थी। वे 'मतवाला' और 'माधुरी' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से भी जुड़े रहे। शिवपूजन सहाय को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए 1960 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।
प्रस्तुत पाठ **'माता का अँचल'** उनके उपन्यास 'देहाती दुनिया' का ही एक अंश है। यह आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है, जिसमें लेखक ने अपने बचपन का स्मरण किया है। इस पाठ में **ग्रामीण अंचल और उसके शिशु-जीवन की सहजता, भोलापन, माता-पिता का वात्सल्य, और बच्चों के खेल-कूद** का बड़ा ही मनमोहक चित्रण है। यह हमें दिखाता है कि बच्चे का सबसे सुरक्षित और सुकून भरा स्थान माँ का अँचल ही होता है, खासकर संकट के समय।
---पाठ का सार
**'माता का अँचल'** शिवपूजन सहाय द्वारा लिखित एक आत्मकथात्मक पाठ है, जिसमें लेखक ने अपने बचपन का स्मरण किया है। कहानी तत्कालीन ग्रामीण परिवेश में एक बच्चे (लेखक का बचपन का नाम - **भोलानाथ**, असली नाम - तारकेश्वरनाथ) और उसके माता-पिता के असीम वात्सल्य तथा ग्रामीण जीवन की सहजता का बड़ा ही मार्मिक चित्रण करती है।
कहानी की शुरुआत में लेखक बताता है कि उसके पिता उसे सुबह से ही अपने पास सुलाते थे। वे उसके साथ सुबह जल्दी उठते, स्नान करते, पूजा-पाठ करते और उसे भी अपने साथ रखते। पिता भोलानाथ को कंधे पर बिठाकर घुमाते, गंगा में मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाते और रामनाम बही में राम-राम लिखकर हजार बार पढ़ने का अभ्यास कराते थे। भोलानाथ को बचपन में अपने पिता से बहुत लगाव था। पिता उसे 'भोलानाथ' कहकर पुकारते थे। वे उसे अपनी गोद में बिठाकर खाना खिलाते, कभी-कभी जबरदस्ती कौर (ग्रास) खिलाते ताकि वह और खाए, जबकि माँ उसे खिलाते समय अलग-अलग पक्षियों के नाम लेकर प्यार से खिलाती थीं, जिससे वह खुशी-खुशी खाता था।
पिताजी भोलानाथ को अक्सर अपने साथ चौपाल पर ले जाते थे, जहाँ वे उसे अपनी गोद में बिठाकर हुक्का पीते और कभी-कभी उसकी मूछें खींचते थे। भोलानाथ भी उनसे छेड़खानी करता और नकली दाढ़ी-मूछें बना लेता था। भोलानाथ का सबसे अधिक समय अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलने में बीतता था। उनके खेल बहुत ही सरल और प्राकृतिक होते थे: कभी मिट्टी के घरौंदे बनाना, कभी बारात का स्वाँग रचना, कभी खेती करना, कभी दुकान लगाना। वे पेड़ों पर चढ़ते, पानी में डुबकी लगाते और किसी की बात की परवाह नहीं करते थे। वे चूहों के बिल में पानी डालकर मस्ती करते, जिससे उनके पिता उन्हें डाँटते थे।
एक बार बच्चे इमली के पेड़ पर चढ़कर खेल रहे थे और पेड़ पर एक बूढ़ा चूहा देखकर उसे छेड़ दिया। बूढ़ा चूहा बिल से निकला और बच्चों के पीछे भागा। सभी बच्चे डरकर भागे और एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते भागे। भोलानाथ को भी बहुत डर लगा। वह भागते-भागते घर की ओर लपका। उसे रास्ते में कई चोटें आईं। उसके कपड़े भी फट गए और खून बहने लगा।
डर के मारे वह सीधे घर में घुस गया और अपनी माँ की गोद में जा छिपा। माँ ने जब उसे घायल और डरा हुआ देखा, तो वह व्याकुल हो उठी। उन्होंने तुरंत हल्दी पीसकर उसके घावों पर लगाई, उसे प्यार से पुचकारा और उसके आँसू पोंछे। इस बीच, उसके पिता भी वहाँ आ गए और उसे अपनी गोद में लेने की कोशिश की, लेकिन भोलानाथ माँ के आँचल में ही दुबका रहा। माँ का अँचल उसे सबसे अधिक सुरक्षित महसूस करा रहा था।
यह घटना दर्शाती है कि बच्चे के लिए पिता का प्यार और लाड-प्यार अपनी जगह है, लेकिन संकट के समय उसे सबसे अधिक सुरक्षा और शांति माँ के आँचल में ही मिलती है। कहानी बचपन की मासूमियत, ग्रामीण जीवन की सुंदरता और माता-पिता के निस्वार्थ प्रेम का अद्भुत चित्रण करती है।
---पाठ्यपुस्तक के प्रश्न और उत्तर
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प्रस्तुत पाठ के आधार पर बताइए कि उस समय के बच्चों और अब के बच्चों के खेलों में क्या अंतर है?
प्रस्तुत पाठ 'माता का अँचल' के आधार पर उस समय के बच्चों और अब के बच्चों के खेलों में बहुत अंतर है:
- **उस समय के बच्चों के खेल:**
- **प्राकृतिक और रचनात्मक:** बच्चे प्रकृति से जुड़े खेल खेलते थे, जैसे मिट्टी के घरौंदे बनाना, खेत-खलिहान में खेलना, पेड़ों पर चढ़ना, चूहों के बिलों में पानी डालना।
- **स्वयं निर्मित सामग्री:** उनके खेल में कोई महंगी सामग्री नहीं होती थी। वे स्वयं मिट्टी, पत्थरों, लकड़ी के टुकड़ों, टूटी-फूटी चीज़ों से खेल सामग्री बना लेते थे (जैसे मिट्टी के ढेले, सरकंडे की फूस)।
- **सामूहिक और शारीरिक:** खेल अधिक सामूहिक होते थे, जिसमें सभी बच्चे मिलकर खेलते थे। इनमें शारीरिक गतिविधि अधिक होती थी, जिससे वे स्वस्थ और फुर्तीले बनते थे।
- **खुले और विस्तृत स्थान:** खेलने के लिए उन्हें खुले मैदान, गलियाँ, चौराहे और पेड़ों की छाँव मिलती थी।
- **कल्पनाशक्ति का विकास:** उनके खेल कल्पनाशीलता पर आधारित होते थे, जैसे बारात का स्वाँग भरना, दुकान लगाना, खेती करना।
- **अब के बच्चों के खेल:**
- **तकनीकी और गैजेट-आधारित:** आजकल के बच्चे अधिकतर वीडियो गेम्स, मोबाइल गेम्स, कंप्यूटर गेम्स या इंटरनेट पर आधारित खेल खेलते हैं।
- **बाजार आधारित सामग्री:** उनके खेलों में महंगे खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, और ब्रांडेड खेल सामग्री होती है।
- **एकल या छोटे समूह में:** कई खेल अकेले खेले जाते हैं या बहुत छोटे समूहों में, जिससे सामाजिक मेलजोल कम होता है। शारीरिक गतिविधि भी कम होती है।
- **सीमित और बंद स्थान:** बच्चे अपार्टमेंट, घरों के अंदर या छोटे पार्कों में खेलते हैं। मैदानों की कमी है।
- **कम कल्पनाशीलता:** बने-बनाए खेलों में बच्चों की कल्पनाशीलता और रचनात्मकता का अवसर कम मिलता है।
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भोलानाथ अपने साथियों को देखकर सिसकना क्यों भूल जाता है?
भोलानाथ अपने साथियों को देखकर सिसकना इसलिए भूल जाता है क्योंकि:
- **बच्चों का स्वाभाविक आकर्षण:** बच्चों के लिए अपने हमउम्र साथियों के साथ खेलना सबसे अधिक प्रिय होता है। खेलते बच्चों का झुंड देखकर वह अपनी सारी पीड़ा, भय और दुःख भूल जाता है।
- **ध्यान का बँटना:** साथियों के उत्साह और खेल की मस्ती उसे अपनी चोट और माँ के डाँट से मिली उदासी से ध्यान हटाने में मदद करती है।
- **सहज बाल-मन:** बच्चों का मन बहुत चंचल और सरल होता है। वे क्षण भर में दुख भूलकर मस्ती में डूब जाते हैं। भोलानाथ भी इसी बाल-सुलभ प्रवृत्ति के कारण अपने साथियों को देखकर अपनी रोने की भावना को छोड़कर खेलने में लीन हो जाता है।
- **सुरक्षा और अपनत्व का भाव:** साथियों के बीच उसे एक प्रकार की सुरक्षा और अपनत्व महसूस होता है, जो उसके भय को कम कर देता है।
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भोलानाथ और उसके साथियों के खेल और खेलने की सामग्री आपके खेल और खेलने की सामग्री से किस प्रकार भिन्न है?
भोलानाथ और उसके साथियों के खेल और खेलने की सामग्री हमारे (आजकल के बच्चों के) खेल और खेलने की सामग्री से निम्नलिखित प्रकार से भिन्न है:
- **भोलानाथ और साथियों के खेल/सामग्री:**
- **प्राकृतिक और देसी:** उनके खेल प्राकृतिक परिवेश से जुड़े थे, जैसे मिट्टी के घरौंदे, चूहों के बिल में पानी डालना, पेड़ों पर चढ़ना, बारात का स्वाँग, दुकान लगाना, खेती करना।
- **कम लागत/निःशुल्क:** खेलने की सामग्री आसपास उपलब्ध प्राकृतिक चीज़ें होती थीं—मिट्टी, धूल, पत्थरों के टुकड़े, टूटी-फूटी चीज़ें, फूस के डंडे, दीये, ठीकरा (मिट्टी का टूटा बर्तन)। इन पर कोई पैसा खर्च नहीं होता था।
- **कल्पना आधारित:** उनके खेल पूरी तरह उनकी कल्पना शक्ति पर निर्भर करते थे। वे अपनी कल्पना से किसी भी चीज़ को कुछ भी बना लेते थे।
- **शारीरिक और सामूहिक:** खेल में शारीरिक श्रम अधिक होता था और सभी बच्चे मिलकर खेलते थे, जिससे सामाजिकता बढ़ती थी।
- **हमारे खेल/सामग्री (आजकल):**
- **कृत्रिम और तकनीकी:** हमारे खेल अक्सर तकनीकी गैजेट्स, वीडियो गेम्स, मोबाइल गेम्स या बने-बनाए बोर्ड गेम्स पर आधारित होते हैं।
- **उच्च लागत/खरीदी हुई:** खेलने की सामग्री प्रायः बाजार से खरीदी जाती है, जैसे वीडियो गेम कंसोल, स्मार्टफोन, रिमोट कंट्रोल खिलौने, प्लास्टिक के खेल के सामान। ये अक्सर महंगे होते हैं।
- **नियम आधारित:** ये खेल पूर्वनिर्धारित नियमों और संरचनाओं पर आधारित होते हैं, जिससे कल्पनाशीलता का scope कम होता है।
- **कम शारीरिक/व्यक्तिगत:** कई खेल अकेले या छोटे समूहों में खेले जाते हैं, जिनमें शारीरिक गतिविधि कम होती है और सामाजिक मेलजोल भी सीमित होता है।
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पाठ में ऐसे प्रसंगों का वर्णन कीजिए जो आपके दिल को छू गए हों।
पाठ में कई प्रसंग ऐसे हैं जो दिल को छू जाते हैं, जैसे:
- **पिता और पुत्र का अद्भुत संबंध:**
- सुबह पिता का भोलानाथ को अपने साथ स्नान कराना, पूजा में बिठाना और अपने कंधे पर बिठाकर गंगा ले जाना। गंगा में मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाना और 'रामनाम बही' में राम-राम लिखवाना। यह पिता-पुत्र के गहरे आत्मीय संबंध और संस्कार देने की प्रक्रिया को दर्शाता है।
- पिता द्वारा ज़बरदस्ती कौर खिलाना ताकि वह और खाए, जबकि माँ उसे प्यार से चिड़िया, तोता, मैना के नाम पर खिलाती हैं। यह माता-पिता के प्यार के अलग-अलग तरीकों को दर्शाता है।
- **बच्चों के सहज और काल्पनिक खेल:**
- बच्चों का मिट्टी के घरौंदे बनाना, दावतें उड़ाना और फिर उसे तोड़ देना। बारात का स्वाँग भरना, कनस्तर के तंबूर और आम के पत्तों की शहनाई से बजाना, धूल में सान कर जलेबी बनाना। ये प्रसंग बचपन की मासूमियत, रचनात्मकता और साधारण चीज़ों में खुशी ढूँढने की कला को दर्शाते हैं।
- **संकट में माँ का अँचल:**
- जब भोलानाथ साँप से डरकर भागता हुआ आता है और सीधे अपनी माँ की गोद में छिप जाता है। माँ का उसे घायल देखकर तुरंत हल्दी लगाना, प्यार से सहलाना और पिता के बार-बार बुलाने पर भी माँ का अँचल न छोड़ना। यह प्रसंग सबसे अधिक मार्मिक और हृदयस्पर्शी है। यह दर्शाता है कि दुनिया में माँ का आँचल ही बच्चे के लिए सबसे सुरक्षित, शांत और ममतामयी आश्रय होता है, जहाँ वह हर भय और पीड़ा से मुक्त हो जाता है। यह माँ के निस्वार्थ वात्सल्य और बच्चे की उस पर अगाध विश्वास का प्रतीक है।
- **पिता और पुत्र का अद्भुत संबंध:**
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इस कहानी में लेखक ने ग्रामीण जीवन का जो चित्र प्रस्तुत किया है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
शिवपूजन सहाय ने 'माता का अँचल' कहानी में बीसवीं सदी के शुरुआती दशक के ग्रामीण जीवन का बड़ा ही सजीव और यथार्थपरक चित्र प्रस्तुत किया है, जिसमें सादगी, आत्मीयता और प्रकृति से जुड़ाव प्रमुख है:
- **पारिवारिक और सामाजिक आत्मीयता:** कहानी में पिता-पुत्र और माँ-पुत्र के बीच गहरा वात्सल्य और अपनत्व दिखाई देता है। पिता का बच्चे को साथ लेकर पूजा करना, खिलाना, घुमाना और माँ का ममता से खिलाना, संकट में बच्चे को अँचल में छिपाना, ये सब संयुक्त परिवार और ग्रामीण समाज में रिश्तों की गर्माहट को दर्शाते हैं। चौपाल पर बड़ों का बैठना और बच्चों का उनके साथ मस्ती करना सामाजिक जुड़ाव का प्रतीक है।
- **प्राकृतिक परिवेश और बच्चों के खेल:** ग्रामीण बच्चे खुले परिवेश में प्रकृति के साथ खेलते हैं। मिट्टी, धूल, पेड़-पौधे, जानवर (साँप, चूहे, चिड़ियाँ) उनके खेल का हिस्सा हैं। वे मिट्टी के घरौंदे बनाते हैं, पेड़ों पर चढ़ते हैं, खेत-खलिहान में खेलते हैं, और प्राकृतिक वस्तुओं से ही अपने खेल की सामग्री जुटाते हैं। यह दिखाता है कि ग्रामीण जीवन में बच्चे प्रकृति से कितना घुल-मिल जाते हैं।
- **सादगीपूर्ण जीवन-शैली:** ग्रामीण जीवन अत्यंत सादगी भरा है। लोगों का रहन-सहन, खान-पान और मनोरंजन के साधन सभी प्राकृतिक और सहज हैं। कोई दिखावा नहीं है। बच्चों के खेल भी बिना किसी तामझाम के, अपनी कल्पना के बल पर खेले जाते हैं।
- **आंचलिक भाषा का प्रयोग:** लेखक ने कहानी में ग्रामीण परिवेश की बोलचाल की भाषा और आंचलिक शब्दों का सुंदर प्रयोग किया है (जैसे 'अँचल', 'कौर', 'घमासान', 'अमोला', 'खेती-बारी'), जो कहानी को यथार्थ के करीब लाता है और ग्रामीण जीवन का अनुभव कराता है।
- **सामुदायिक भावना:** बच्चों के सामूहिक खेल और उनका मिलकर हुड़दंग मचाना ग्रामीण समाज की सामुदायिक भावना को दर्शाता है, जहाँ बच्चे अक्सर बड़े समूह में खेलते और बढ़ते हैं।
- **डर और सुरक्षा:** साँप से बच्चों का डरकर भागना ग्रामीण जीवन के उन खतरों को भी दिखाता है जो प्रकृति से जुड़े होते हैं, और संकट के समय माँ के अँचल की सुरक्षा का महत्व भी उजागर होता है।
- **भोलानाथ और साथियों के खेल/सामग्री:**
- **उस समय के बच्चों के खेल:**
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